Tuesday, May 06, 2008

तुम्हारा खत पढा...


तुम्हारा खत पढा
फिर पढा
कितने ही टुकडे चाक कलेजे के
मुँह को आ पडे
थामा ज़िगर को
और बिलकुल बन चुका मोती भी चूने न दिया
फिर पढा तुमहारा खत
और शनैः-शनैः होम होता रहा स्वयमेव
एक एक शब्द होते रहे गुंजायित
व्योम में प्रतिध्वनि स्वाहा!
नेह स्वाहा!
भावुकता स्वाहा!
तुम स्वाहा!
मैं स्वाहा!
और हमारे बीच जो कुछ भी था....स्वाहा!

आँखों को धुवाँ छील गया
गालों पर एक लम्बी लकीर खिंच पडी
जाने भीतर के वे कौन से तंतु
आर्तनाद कर उठे..शांतिः शांतिः शांतिः
अपनी ही हथेली पर सर रख कर
पलकें मूंद ली
ठहरे हुए पानी पर हल्की सी आहट नें
भवरें बो दीं
झिलमिलाता रहा पानी
सिमट कर तुम्हारा चेहरा हो गया
लगा चीख कर उठूं और एक एक खत
चीर चीर कर इतने इतने टुकडे कर दूं
जितनें इस दिल के हैं.....

हिम्मत क्यों नहीं होती मुझमे??

***राजीव रंजन प्रसाद
२३.०४.१९९५

8 comments:

पारुल "पुखराज" said...

नेह स्वाहा!
भावुकता स्वाहा!
तुम स्वाहा!
मैं स्वाहा!
और हमारे बीच जो कुछ भी था....स्वाहा!
bahut acchhey...panktiyon me ruuh hai..

शोभा said...

राजीव जी
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति है-
और शनैः-शनैः होम होता रहा स्वयमेव
एक एक शब्द होते रहे गुंजायित
व्योम में प्रतिध्वनि स्वाहा!
नेह स्वाहा!
भावुकता स्वाहा!
बधाई स्वीकारें ।

राकेश जैन said...

bahut khoob Rajeev ji.

mamta said...

राजीव जी आपकी कविता के हर शब्द बोल रहे है।

बहुत सुंदर!!

राकेश खंडेलवाल said...

टुकड़े टुकड़े में बँटी ख्वाहिशें आखिर ऐसे
प्यार का पहला खत फ़ाड़ा किसी ने जैसे
सतेरें तो हैं न इबारत मगर दिख पाती है
और फ़िर सांझ तन्हा होती चली जाती है
और सिमटी है सदा जलते हुए सूरज में

रंजू भाटिया said...

सिमट कर तुम्हारा चेहरा हो गया
लगा चीख कर उठूं और एक एक खत
चीर चीर कर इतने इतने टुकडे कर दूं
जितनें इस दिल के हैं.....
हिम्मत क्यों नहीं होती मुझमे??

बहुत सुंदर लिखा है आपने राजीव जी

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया!!!

एक टिप्पणी स्वाहा!

Anonymous said...

bahut sunder