Monday, April 28, 2008

देखता रहा करता था तुम्हें...


तुम्हारी बोलती हुई आँखें
तुम्हारे सिले होठों से
बगावत कर जाया करती थीं
शाम शरारत से मुस्कुराती थी
और हवा गुदगुदा जाती थी कि "मना लो अब"
और मैं हलकी सी मुस्कान लिये
बस देखता रहा करता था तुम्हें
जब तलक गुस्से से मुठ्ठियाँ भींचे
टूट न पडती थीं तुम मुझ पर...

राजीव रंजन प्रसाद
२३.११.९५

7 comments:

डॉ० अनिल चड्डा said...

खूब कही, राजीव जी !

अमिताभ मीत said...

सही है भाई.

नीरज गोस्वामी said...

राजीव जी
जितने सुंदर शब्द उतने ही सुंदर भाव...भाई वाह. बधाई.
नीरज

रवीन्द्र प्रभात said...

सुंदर अभिव्यक्ति !

mamta said...

सुन्दर और चुलबुली सी रचना !!

पारुल "पुखराज" said...

सही है-बढ़िया है-चित्र उभर गया

रंजू भाटिया said...

:) बहुत ही ज्यादा पसंद आई है यह रचना आपकी राजीव जी