Friday, April 25, 2008

और झलक भर.....


आँसू नें कहा मुझको ठहरने दो पलक पर
आँखों को तेरी देख सकूं और झलक भर
मैं जानता हूँ तुमको कोई जख्म बडा है
फूटेगा किसी रोज तो हर एक घडा है
लेकिन तडप किताब के भीतर का फूल है
किसने सहेज कर रखा कोई भी शूल है
आसान है हर गम के पन्नों को पलट दो
फिर जीस्त पर रंगीन सा एक नया कवर दो
गुल की कलम लगाओ, तोता खरीद लाओ
तारों को फूल जैसे सारे बिखेर डालो
मुस्कान की चाभी से घर चाँद का भी खोलो
चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो
लेकिन जो मर गये हैं, वो सपने सहेजते हो
फिर ताजमहल बन कर जीने की हसरते हैं
अपने लहू से गुल को रंगीन कर रहे हो
सुकरात जैसा प्याला पीने की हसरते हैं
तुम मुस्कुरा रहे हो, मैं हो रहा हूँ आतुर
मैं कीमती हूँ कितना, तुमको पता नहीं है
लेकिन कि ठहरता हूँ, पारस है आँख तेरी
बुझती नहीं है सागर, क्योंकर के प्यास मेरी
मैं चाहता हूँ ठहरूं, उस कोर...वहीं पर
आँखों को तेरी देख सकूं, और झलक भर.....

*** राजीव रंजन प्रसाद
11.02.2007

2 comments:

रंजू भाटिया said...

मुस्कान की चाभी से घर चाँद का भी खोलो
चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो
लेकिन जो मर गये हैं, वो सपने सहेजते हो
फिर ताजमहल बन कर जीने की हसरते हैं
अपने लहू से गुल को रंगीन कर रहे हो
सुकरात जैसा प्याला पीने की हसरते हैं

बहुत सुंदर राजीव जी ..

राकेश खंडेलवाल said...

चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो

क्या तुम कभी उदास हुए हो ?
जितना कोई और नहीं है
मन के उतने पास हुए हो ?
तोड़ भाव की ज़ंज़ीरों को
लिखने फिर से तकदीरों को
मरुथल की राहों पर भटका
हँसता सा मधुमास हुए हो ?

नज़्म अच्छी है.