Monday, March 26, 2007

एक संवाद सूरज से..

कई भोर बीते, सुबह न आई
तो सूरज से पूछा
हुआ क्या है भाई?
पिघलती हुई एक गज़ल बन गये हो
ये पीली उदासी है या चाँदनी है
वो अहसास गुम क्यों,
वो गर्मी कहाँ है?
अगर रोशनी है, कहाँ है छुपाई?
कई भोर बीते, सुबह न आई..

तो सूरज ने मुझको हिकारत से देखा
आँखें दबा कर शरारत से देखा
कहा अपने जाले से निकला है कोई?
तुम्हारे ही भीतर
तुम्हारी है दुनिया
तुम्हीं पलकें मूंदे अंधेरा किये हो
तुम्हें देती किसकी हैं बातें सुनाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..

तुमसे है रोशन
अगर सारी दुनिया
तो मेरी ही दुनिया में कैसा अंधेरा?
ये कैसा बहाना कि इलजाम मुझपर
ये कैसी कहानी कि बेनाम हो कर
मुझे ही मेरा दोष बतला रहे हो?
मुझे दो उजाला तुम्हे है दुहाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..

ये उजले सवरे उन्हें ही मिलेंगे
जो आंखों को मन की खोला करेंगे
यादों की पट्टी पलक से हटाओ
कसक के सभी द्वार खोलो
खुली स्वास लो तुम
अपने ही में गुम
न रह कर उठो तुम
तो देखो हरएक फूल में
वो है तुमनें
पलक मूंद कर जिसको
मोती बनाया
नई मंज़िलों को तलाशो तो भाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२.०१.२००७

3 comments:

Mohinder56 said...

सुन्दर शब्दमाला से सजी आशावादी कविता...जिसे पढने का मजा ही कुछ और है

योगेश समदर्शी said...

गजब की भावनाएं, इतने सुंदर शब्दों मे उकेरने वाले
भाई राजीव रंजन जी को मेरी हार्दिक बधाई.

ये उजले सवरे उन्हें ही मिलेंगे
जो आंखों को मन की खोला करेंगे
यादों की पट्टी पलक से हटाओ
कसक के सभी द्वार खोलो
खुली स्वास लो तुम
अपने ही में गुम
न रह कर उठो तुम
तो देखो हरएक फूल में
वो है तुमनें
पलक मूंद कर जिसको
मोती बनाया
नई मंज़िलों को तलाशो तो भाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..

बहुत सुंदर भावों और आशय की कविता है मित्र.
आप उद्देश्यपरक रचनाएं लिखते है.
मुझे बहुत आच्छी लगी.

Anonymous said...

राजीवजी आपकी प्रत्येक कविता भावपूर्ण होती है, आपका शब्द-संयोजन भी कमाल का होता है।

तो सूरज ने मुझको हिकारत से देखा
आँखें दबा कर शरारत से देखा


भावपूर्ण गुदगुदाने वाली पंक्तियाँ.

बधाई!