जैसे इकलौता गुल खिल कर, काँटों को बेमोल बना दे
सीपी क्या है एक खोल है, मोती हो अनमोल बना दे..
तुम होते हो खो जाता हूं, फिर अपनी पहचान साथ है
जैसे कोई मर्तबान में, जल-चीनी का घोल बना दे..
मन के भीतर की आवाज़ें, आँखों से सुन लेता हूँ,
साथ हमारा एसा जो, खामोशी को भी बोल बना दे..
तुम को खो कर हालत मेरी, उस बच्चे के इम्तिहान सी
टीचर उसकी काँपी में, कुछ अंक नहीं दे गोल बना दे..
चार दीवारें, आँखों में छत, तनहाई "राजीव" रही
जैसे गम दुनिया निचोड कर इतना ही भूगोल बना दे..
*** राजीव रंजन प्रसाद
१२.११.२०००
2 comments:
Bahut Acche Rajeev Sir ...
kamaal hai sahab, wah wah kehne ko man hota hai, gehere main samvednaon ko aanand se bharne waali uttam rachna ke liye badhaii...
Yogesh Samdarshi.
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