कतरा-कतरा
उसने मुझको छोड
मेरे कतरे कतरे को चाहा था
उसने कतरा कतरा ले कर
मुझको छोड दिया जीने..
मैं कहता हूँ सागर से
मुझमे डूब मरो कम्बख्त
कलेजा भर जायेगा
मेरी आँखों से तो सारा झर जायेगा
उसने तो मन की गागर में
ठूस ठूस कर सागर भर कर
मुझको छोड दिया पीने...
मेरा लहू निकाला मुझसे
मेरी आँखें छीन ले गया
मेरे मन की जीभ काट ली
मेरे पंख कुतर डाले
मैं कहता था दिल चिरता है
और कलेजा फट पडता है
कुछ मकडी के जाले दे कर
मुझको छोड दिया सीने...
*** राजीव रंजन प्रसाद
1 comment:
रजीव जी
बहुत सुन्दर कविता है
देख कर मन खुश हो गया
अभिषेक
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