Monday, November 20, 2006

मूरत

और भी लोग है
जिन्हे तुमसे मुहब्बत होगी
और भी दिल है,
जिन्हे तेरा दर्द भाता है
और भी आह
तेरे ज़ख्म से उभरती है
और भी टीस तुझे देख कर उतरती है...

मै फिर भी ईस बियाबा मे
पत्थ्रर तराशता फिरता हूं
मुझे सिर्फ मुझे ही आस्था है तुम पर..
कि मन्दिर बना कर ही दम लूंगा
जिसमे तुम्हारा एक बुत रख
र्प्राण-प्रतिष्ठा कर दूंगा उसमें..

बोलो क्या तब तुम सारी दुनिया से सिमट कर
एक पत्थर की मूरत नहीं हो जाओगी....

*** राजीव रंजन प्रसाद

1 comment:

Anonymous said...

कविता बहुत अच्छी है
अभिषेक