Monday, November 20, 2006

आत्मसंतोष


वे सारे लोग
जिनसे धोखा खाया है तुमने
भले थे..

उन्होने तुम्हे अनुभव दिया है
और चेतना का उपहार भी
और ले गये हैं साथ
एक आत्मग्लानि
वे तुमसे कभी आँख नहीं मिलायेंगे
उन गलियों, रास्तों और कूचों से
बच कर निकलेंगे
जिनसे तुम निर्बध
गुजरते रहते हो..

अपने अफसोस को
आत्मसंतोषमें कर दो परिणित
प्रसन्नता का एक कारण बना लो...

***राजीव रंजन प्रसाद

3 comments:

Anonymous said...

respected sir
aapki ye shayari bahut dil ko chooti hai aur sath main asha ki kiran bhi jagmagati hai.

आशीष "अंशुमाली" said...
This comment has been removed by the author.
आशीष "अंशुमाली" said...

बहुत अच्‍छी कविता है।