गज़ल
मन को भी रफू कीजिये, केंचुल निकालिये,
बन कर दिखे जो आदमी, हैरत में डालिये..
रंगों ने ढक रखा है, वो चेहरा गुलाब सा,
गो सादगी कहाँ है कि,चाहत ही पालिये..
मोबाईलों के दौर में, ईज़हार-ए-ईश्क क्या,
एक कान का रिश्ता है, क्या जां निकालिये..
पुरबा में मन हिलोरा, सावन में मोर नाचे,
सदियाँ ही जैसे बीतीं, एसा मज़ा किये..
मरते हुए जीते हैं वो, "राजीव" तुम डरो,
मारे ही जाओगे कि जो, जीते हुए जिये..
***राजीव रंजन प्रसाद
1 comment:
मरते हुए जीते हैं वो, "राजीव" तुम डरो,
मारे ही जाओगे कि जो, जीते हुए जिये..
Wah sir kyaa baat kahi..
likhte rahiye
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