Wednesday, January 29, 2014

अभिव्यक्ति के लिये नक्सलगढ में दुस्साहस भरी पदयात्रा


छब्बीस जनवरी का दिन जब राजपथ पर एक ओर जनजातीय क्रांति का सबसे बड़ा प्रतीक बस्तरिया नायक गुण्डाधुर उतरा हुआ था वहीं ओरछा के इस छोर पर छत्तीसगढ के अनेक पत्रकार और लेखक एकत्रित हो रहे थे। पत्रकारिता का मतलब बुद्धू बक्सा की चीख चिल्लाहट और क्रांति का अर्थ केजरीवाल वाला दृष्टिकोण इतना व्यापक हो गया है कि अखबार अपने ही पत्रकारों के दुस्साहस पर चुप्पी साधे बैठे हैं। जब पत्रकार नेमीचन्द्र जैन की हत्या हुई थी तब भी एक तरह की खामोशी थी यह स्थानीय पत्रकारों का ही माओवादियों पर दबाव था जब उन्होंने जंगल के भीतर की रिपोर्टिंग बंद कर दी, जिसके फलस्वरूप नक्सली प्रवक्ताओं को घटना पर खेद जताना पड़ा। कुछ ही समय के पश्चात यही फिर दोहरा दिया गया जब दक्षिण बस्तर के पत्रकार साईं रेड्डी की बहुत ही निर्मम तरीके से हत्या की गयी। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उन क्षमा याचनाओं का क्या जो माओवादियों के जारी परचों की उद्घोषणायें थीं? छत्तीसगढ में कार्य कर रहा संगठन जिसका मुख्य प्रवक्ता गुडसा उसेंडी अपनी पत्नी के साथ बेहतर पुनर्वास की अपेक्षा में आत्मसमर्पण कर चुका हो वहाँ क्या वैचारिक तौर पर खलबली नहीं मची हुई होगी? जब आत्मसमर्पण के बाद स्वयं गुडसा उसेंडी यह बयान देता हो कि उसने जो कुछ कहा है उनमें से अधिकांश के साथ उसकी सहमति नहीं है और वह स्वयं अनावश्यक हिन्सा का विरोधी रहा है तब क्या जो कुछ बस्तर में होता रहा है उसपर बहुत गंभीरता से सोचे जाने की आवश्यकता नहीं है? और इस कारण से भी अबूझमाड में जारी पदयात्रा और अधिक प्रासंगिक नहीं हो जाती? 

ओरछा से बीजापुर तक अनेको पत्रकार और लेखक पैदल निकल चले हैं। यह यात्रा छब्बीस जनवरी से शुरु हुई है जो कि भारत के गणतंत्र हो जाने का दिवस है और तीस जनवरी को समाप्त होनी है जो अहिंसा के सबसे बडे प्रतीक महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि है। प्रतीकों के अपने मायने होते हैं और पैंसठ साल के हो चुके हमारे गणतंत्र को यह स्मरण ही नहीं कि जाने कैसे उसके मूलभूत सिद्धांतों पर धूल की परत चढती गयी है। यह पदयात्रा केवल पत्रकार साथियों की हत्या का विरोध भर नहीं है, यह संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार को कायम रखने के लिये उठाया गया जोखिम भी है। माओवाद यदि क्रांति की किसी अवधारणा के साथ कार्य करता है तो पत्रकार और लेखकों की निर्मम हत्यायें उसके दावों को झुठलाती हैं, खोखला बनाती हैं। किसी पत्रकार और लेखक की कलम वस्तुत: सच उजागर करने का कदम भर होते हैं वे लाभ-हानि, जय-पराजय जैसे दृष्टिकोण के नहीं अपितु नीर-क्षीर विवेक के प्रस्तोता होते हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि व्यवस्था के खिलाफ लिखो तो जेलों में सडो, मुकदमों का सामना करो और नक्सलियों के विरुद्ध कलम चल गयी तो गला ही रेत दिया जायेगा। क्या इन परिस्थितियों के बीच काम करने वालों की स्थिति के विषय में हमारे अखबार चलाने वालों ने और उसके पाठकों ने ठहर कर कभी सोचा है? 

स्थानीय पत्रकार दोधारी तलवार पर चलते हैं। बेहतर तथा शीघ्रातिशीघ्र खबरें प्रस्तुत करने का दबाव रायपुर और दिल्ली से उनपर बना रहता है। वे अपना काम करें तो भी उनकी निष्पक्षताओं पर सवाल लिये खडे करने वालों की कोई कमी नहीं। इन्ही सवालों के कारण जंगल के भीतर का सच उजागर करने वाले पत्रकारों को कभी नक्सली होने का लेबल मिल जाता है तो कभी मुखबिर होने की लानत। हर किसी को कलम से ही शिकायत है और बंदूखें जंगल के भीतर और बाहर मुर्गा तोडने में व्यस्त हैं। इतना ही नहीं स्थानीय मुद्दों, इन पत्रकारों के वस्तविक हक-हुकूकों की जम कर अव्हेलना ही नहीं होती बल्कि दु:ख इस बात का भी है कि स्थानीय अखबारों और संचार माध्यमों तक ने अपने पत्रकार साथियों की दु:साहसी पदयात्रा को खबर बनाना जरूरी नहीं समझा? इन पत्रकारों को उनके अखबारों की ओर से न तो भविष्यनिधि हासिल है न ही बीमा लेकिन इतना तो हो सकता था कि इनके हौसलों को उनका हक और साहिल प्रदान किया जाता?

इस अभियान को सहमति स्वरूप वरिष्ठ लेखक गिरीश पंकज के साथ साथ अनेक पत्रकार जिनमे कमल शुक्ला, बाप्पी रे, रंजन दास, नितिन सिन्हा, लक्षमी नारायण लहरे, नील कमल वैष्णव, अशोक गभेल, लक्षमण चंद्रा आदि आदि के साथ साथ पटना से आये बिहार टुडे से दो पत्रकार भी सम्मिलित हैं। पदयात्रा में 26 जनवरी को पहला पड़ाव ओरछा से 13 किमी दूर जाटलूर में 27 जनवरी को दूसरा पड़ाव होगा, 28 को अगला पड़ाव लंका और 29 को कुटरू होगा, जहां पत्रकारों द्वारा सभा आयोजित होनी है। 30 जनवरी बीजापुर में पदयात्रा का समापन प्रस्तावित है। ओरछा से पदयात्रा के आगे बढने के पश्चात पिछले दो दिनों से इन साथियों की कोई भी खबर किसी भी स्त्रोत अथवा माध्यम से नहीं आ रही है। मैं यह मानता हूँ कि पंखों से नहीं अपितु हौसलों से उडान होती है और यही कारण है कि हमारे ये पत्रकार और लेखक साथी अपनी दुस्साहसी यात्रा अवश्य पूरी कर लेंगे तथा एक आवश्यक संदेश जंगल के भीतर छोड कर आने में सफल होंगे। संचार माध्यमों की इस महत्वपूर्ण खबर पर रहस्यमयी चुप्पी से मुझे कोई शिकायत नहीं उनके लिये दिल्ली है और दिल्ली की सरकार है खूब खबरें छापिये वहाँ की कानून व्यवस्था और वहाँ के कानून मंत्री की; बस्तर के पत्रकार अपनी अभिव्यक्ति का हक गुमनाम लडाईयों से भी हासिल करना जानते हैं। प्रतीक्षा है सथियों आपकी....।

- राजीव रंजन प्रसाद
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1 comment:

लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल " said...

प्रसंसनीय लेख हार्दिक बधाई ...