लाला जगदलपुरी जी अपनी किताब ‘बस्तर इतिहास
एवं संस्कृति’ में मासकदेवी का उल्लेख करते हुए लिखते हैं “दंतेवाड़ा में एक शिलालेख मिलता है जिसके अनुसार बस्तर के छिन्दक नाग कुल में एक बड़ा प्रतापी नरेश हो गया है, जिसकी एक
विदुषी बहिन थी। उसका नाम मासकदेवी था। उसने तत्कालीन वातावरण में नारीचेतना,
प्रजा-प्रेम, सेवा-भाव, कृषि
उत्थान आदि प्रवृत्तियों के विकास के लिये प्रसंशनीय कदम उठाया था। शिलालेख का समय
अज्ञात है किंतु उसमें सर्व-साधारण को यह सूचित किया गया था कि ‘राज्य अधिकारी कर उगाहने में कृषक जनता को कष्ट पहुँचाते हैं। अनीयमित रूप
से कर वसूलते हैं। अतएव प्रजा के हितचिंतन की दृष्टि से पाँच महासभाओं और किसानों
के प्रतिनिधियों नें मिल कर यह नीयम बना दिया है कि राज्याभिषेक के अवसर पर जिन
गाँवों से कर वसूल किया जाता है, उनमें ही एसे नागरिकों से
वसूली की जाये, जो गाँव में अधिक समय से रहते आये हों। जो इस
नीयम का पालन नहीं करेंगे वे चक्रकोट के शासक और मासकदेवी के विद्रोही समझे
जायेंगे’। शिलालेख में दर्शायी गयी राजाज्ञा में राजा की
बहिन का हाथ है जो प्रजाकल्याण की भावना से तत्कालीन हुकूमत पर हस्तक्षेप करती है
और शासक तथा शासित के बीच प्रेम और सौहार्द स्थापित करने की पहल करती है”।
मासकदेवी पर विमर्श को उनकी ही कुछ पंक्तियों से आगे बढाते हैं –
मासकदेवी पर विमर्श को उनकी ही कुछ पंक्तियों से आगे बढाते हैं –
एसे पथराव चल गये लोगो
भाव कोमल कुचल गये लोगो।
भीड में अर्थ खा रहे धक्के,
शब्द आगे निकल गये लोगो।
वस्तुत: बस्तर को समझने के विमर्श में आम तौर पर लोग मासकदेवी को लांघ कर निकल जाते हैं; संभवत: इसी लिये इस महत्वपूर्ण स्त्रीविमर्श के अर्थ से अबूझ रहते हैं। इस अभिलेख के कुछ शब्दों पर ठहरना होगा वे हैं – महासभा, किसानों के प्रतिनिधि तथा कर। जब तक महासभा के कार्य, किसानों के प्रतिनिधियों को हासिल अधिकार तथा कर प्रणाली की विवेचना न हो इस शिलालेख के आधे अधूरे मायने ही समझे जा सकते हैं। संभवत: यह महासभा पंचायतों का समूह रही होंगी जिनके बीच बैठ कर मासकदेवी नें समस्याओं को सुना, किसानों नें गाँव गाँव से वहाँ पहुँच कर अपना दुखदर्द बाँटा होगा। इस तर्क के पीछे गंग युग तक वैदिक सभ्यता की कुछ लोकतांत्रिक परम्पराओं का पाया जाना है।
विरथ, सभा-समीति आदि पूर्ववैदिक काल से ही चली आ रही वे लोकतांत्रिक संस्थायें थीं जो विचार-विमर्श, सैनिक तथा धार्मिक कार्यों का सम्पादन आदि करती थी। ऋग्वेद में इस प्रकार की संस्थायें यथा- सभा, समीति, विरथ तथा गण का उल्लेख मिलता है। आज भी किसी न किसी बदले हुए रूप में ये सभी संस्थायें देखी जा सकती हैं। अथर्ववेद में उल्लेख है कि “सभा च मा समिति-श्चावतां प्रजापतेदुहितरौ संविदाने” अर्थात सभा तथा समिति प्रजापति की दो पुत्रियाँ हैं”। डॉ. कीथ नें समीति को जनसभा बताया है जबकि सभा को श्रेष्ठ जनों की बैठक से जोड दिया है। इस दृष्टि से मासक देवी के शिलालेख में उल्लेखित पाँच- महासभा के मायने व्यापक हो जाते हैं। नाग युगीन शासन प्रबंध पाँच-प्रधान की बात करता है। सोनारपाल अभिलेख (1224 ई.) में इनमें से चार प्रधानों के नाम हैं महाप्रधान (मंत्री), पडिवाल (दौरावारिक), चामरकुमार (युवराज) तथा सर्ववादी (पुरोहित)। डॉ. हीरालाल शुक्ल समकालीन आन्ध्रप्रदेश के चालुक्य राज नरेन्द्र के नन्दमपुडी दानपत्र से उद्धरण लेते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि पंचप्रधान में उपरोक्त चार के अलावा पाँचवा पद सेनापति का रहा होगा। समग्रता से उपरोक्त उदाहरणों को देखा जाये तो प्रतीत होता है कि ग्रामीण सभायें आपस में जुडी होती थी जो ‘पंच-प्रधान’ की उपस्थिति के बाद महासभा कही जाती थी। इस सभा को शासन द्वारा नितिगत निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी गयी होगी जिस आधार पर मासकदेवी नें अपनी अध्यक्षता में ग्रामीणों और किसानों की बातों को सुन कर न केवल समुचित निर्णय लिया अपितु शिलालेख बद्ध भी कर दिया। शिलालेख का अंतिम वाक्य मासकदेवीको मिले अधिकारों की व्याख्या करता है जिसमे लिखा है - ‘जो इस नीयम का पालन नहीं करेंगे वे चक्रकोट के शासक और मासकदेवी के विद्रोही समझे जायेंगे’।
मासकदेवी एक उदाहरण है जिनको केन्द्र में रख कर प्राचीन बस्तर के स्त्री-विमर्श और शासकों व शासितों के अंतर्सम्बन्धों पर विवेचना संभव है। यह जानकारी तो मिलती ही है कि लगान वसूल करने में बहुत सी अनीयमिततायें थी। साथ ही सुखद अहसास होता है कि तत्कालीन प्रजा के पास एसी ग्रामीण संस्थायें थी जो शासन द्वारा निर्मित समीतियों से भी सीधे जुडी थी। प्रतिपादन की निरंकुशता पर लगाम लगाने का कार्य महासभाओं में होता था तथा नाग युग यह उदाहरण भी प्रस्तुत करता है कि अवसर दिये जाने पर स्त्री हर युग में एक बेहतर प्रशासक सिद्ध हुई है।
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