Thursday, February 14, 2013

नागयुगीन बस्तर (760 - 1324 ई.) का समाज और वर्तमान का वैचारिक प्रदूषण



अभी हिन्दी दिवस के अवसर पर एक चर्चा से सामना हुआ। मूल रूप से यह कहे जाने की कोशिश थी कि हिन्दी एक सामंतवादी भाषा है तथा हमें अपनी स्थानीयताओं के स्तर पर उतरना चाहिये अथवा निज मातृभाषा को ही प्रबलता से अपना चाहिये। बस्तर क्षेत्र के अतीत में तो एसी आवाज़ कभी नहीं उठी किंतु पिछले कुछ वर्षों से वाम विचारधारा नें गोंडी का प्रश्न आगे किया है तथा माओवादी स्त्रोतों से एवं कुछ बस्तर के भ्रमणार्थी लेखकों/समाजशास्त्रियों/पत्रकारों नें यही बात बारम्बार राष्ट्रीय मंचों से आगे की है। किसी नें कहा शिक्षा का माध्यम गोंडी होना चाहिये तो कोई बताता है कि जंगल के भीतर माओवादी एसी पाठ्यपुस्तकें तैयार कर रहे हैं जो मूल गोण्डी में ही हैं। केवल गोण्डी ही क्यों बस्तर की अन्य अकेकानेक बोलियाँ भी समान आदरणीय हैं तथा मुझे लगता है कि भाषा-बोली का प्रश्न एक पंक्ति में विश्लेषित होने वाला नहीं है। नाग कालीन बस्तर के समाजशास्त्र पर चर्चा को इसी विन्दु के प्रारंभ करने के पीछे मेरा मंतव्य उस साजिश को उजागर करना है जिसके परोक्ष में जनजातियों को अलग थलग करने की कोशिश पुन: होने लगी है। बस्तर रियासत के अंतिम काकतीय राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव नें मध्य प्रादेशिक हिन्दी साहिय्त सम्मेलन (1950 ई.) के अवसर पर भाषा-बोली के सवालों को उठाते हुए अपने वक्तव्य में नागयुगीन इतिहास को कुरेदते हुए भाषा के सवाल को उठाया था - शिलालेखों से यह भली भाँति सिद्ध होता है कि गोंडों की अवनति लड़ाई में हार जाने के कारण नहीं हुई है परंतु प्रस्तुत प्रश्न के प्रति उदासीनता दिखाने के कारण हुई है। एक ही समय में जब उन्हें मुसलमान और आन्ध्र राजाओं से खतरा मालूम हुआ तो वे अपने अपने जंगलों में जा कर रहने लगे और शेष संसार से स्वयं को अलग कर लिया। संसार की कोई भी जाति अपने को अलग कर के उन्नति नहीं कर सकती।.....अमेरिका के रेड़ इंडियनों का समूल नाश गोलियों से नहीं हुआ। पर उनको रिजर्व यानि बाकी संसार से पृथक रखने से हुआ। हमारे देश के आदिवासी यदि पृथक रखे गये तो उनकी जाति ही नष्ट नहीं हो जायेगी पर उनका नैतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी विकास भी नहीं हो पायेगा। महाराजा प्रवीर नें एक बहु-भाषी अध्यापन का सिद्धांत दिया था व कहा था कि हिन्दी में पढाने के लिये हमारी प्रारंभिक पाठ्य पुस्तकें बेकार हैं, उनके स्थान पर हमें चित्रों की आवश्यकता है। जिसमें प्रत्येक अक्षर को एक जानवर की तस्वीर दिखा कर समझाया जाये और उस जानवर का नाम हिन्दी, हलबी और गोंडी में लिख दिया जाये। यह प्रवीर ही थे जिन्होंने सबसे पहले आदिवासी आईसोलेशन के खतरे को भांपा और इसे रोकने के लिये एक एक्टिविस्ट की तरह प्रयास भी किये उन्होंने अजेर (हल्बी बोली में अजेर का अर्थ है उजाला) नाम का पत्र निकाला जो हिन्दी भाषा तथा आदिवासी बोलियों में संयुक्त रूप से प्रकाशित होता था। लाला जगदलपुरी नें भी बाद में इस बात की अहमियत को समझते हुए हिन्दी भाषा व जनजाति बोलियों में संयुक्त रूप से प्रकाशित होने वाला पत्र बस्तरियाप्रारंभ किया था जिनमें वे देश के ख्यातिनाम साहित्यकारों की रचनाओं का जनजातीय बोलियों में अनुवाद प्रस्तुत कर एक पुल बनाने का कार्य कर रहे थे। शायद यही सर्वश्रेष्ठ तरीका है समन्वय का क्योंकि जब आप बस्तर के जनजातीय क्षेत्रों की बात करते हैं तो केवल गोंडी कह कर स्पष्ट विभाजन नहीं किया जा सकता लेकिन इस सवाल पर उनका आईसोलेशन अवश्य किया जा सकता है चूंकि भाषा-बोली के सौहार्द वाले इस जनजाति क्षेत्र में तीस से अधिक बोलियाँ अवस्थित हैं। हलबी बोली नें सभी जनजातियों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य नागयुगीन बस्तर से ही आरंभ कर दिया था यही कारण है कि यहाँ दो गोंड जनजातियाँ आपस में बात करते हुए अपनी अपनी बोली में जब गूंगी हो जाती हैं तो हल्बी उनकी ज़ुबान बनती रही है।

आलेख के उपसंहार में इस विषय पर पुन: लौटेंगे पहले नागयुगीन जनजातिगत जटिलताओं पर दृष्टिपात करते हैं। इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल बहुत बारीकी से जनजातियों की संरचना का वर्गीकरण करते हैं। उन्होंने दो स्पष्ट विभेद किये हैं। हलबा प्रजाति (यूरोपाईट) जिनका उद्भव आर्य जातियों से हुआ वे नाग युग में पुरोहित, व्यवसायी एवं कृषक तीनों वर्गों का प्रतिनिधित्व करते थे। जब कि नाग प्रजाति (वेद्दोआउड) का स्पष्ट विभाजन उनकी कनिष्ठ शाखा (प्रतिनिधि शासक मधुरांतक देव) के आधार पर धुरवा जनजाति (धुरवा, परजा) तथा वरिष्ठ शाखा (प्रतिनिधि शासक सोमेश्वर देव) के आधार पर गोंड जनजाति (दोर्ला, माड़िया) आदि में हुआ है। नाग प्रजाति प्रशासन से जुड़ कर योद्धा बन गयी जबकि हलबा - हलवाहक।

नागयुग में पितृसत्तात्मक परिवारों का उदय होने लगा। संयुक्त परिवार चलन में थे एवं ग्राम संरचना इस तरह थी कि दूर के सम्बन्धी भी एक पक्ति में बने मकानों में रहा करते थे। स्त्री को अब तक प्राप्त अधिकार सीमित होने लगे थे; तथापि धनाड्य परिवारों में स्त्रियाँ बराबरी का हक रखती थी तथा पर्दा प्रथा विद्यमान नहीं थी। नवसाहसांकचरित ग्रंथ में उल्लेख मिलता है कि स्त्रियाँ पुरुषों से हाँथ मिलाती थीं – “रुक्मागतं करग्राहसौहाद्रे पात्रतां नयततथा पुरुषों के साथ मदिरापान भी करती थीं – “मधु कापि पाटलकपोतलरलकलधौतकुण्डला। लोलनिजमुखतुषारकरबिम्बगर्भमधिकार्पिते। जगदलपुर के निकट चपका ग्राम से प्राप्त टेमरा सती अभिलेख तद्युगीन व्याप्त सतिप्रथा की ओर भी इशारा करता है। इस अभिलेख के अनुसार माणिक्यदेवी अपने पति नागराजा हरिश्चंददेव की चिता पर सति हो गयी थी। अब तक प्राप्त किसी भी अभिलेख व साहित्य से जनजातियों की वेषभूषा पर जानकारी नहीं मिलती किंतु उस युग में एलीट क्लास के पुरुष उत्तरीय व अंकुश पहनते थे, गले में हार, मणिकुण्डल तथा यज्ञोपवीत भी धारण करते थे। स्त्रियो के श्रंगारप्रिय होने की जानकारी मिलती है तथा वे अनेक प्रकार की केश-सज्जायें के साथ कण्ठ मे हार, कानो में रक्तकुण्डल व कर्णपुर, हाँथों में मणिकंकण,केयुर, नूपुर, मेखला और रत्नजटित पादुकाओं को धारण करती थीं। श्रंगार प्रसाधन के रूप में आखों में अंजन, होठों में लाली, शरीर में चन्दनलेप तथा पैरों में आलता लगाने के अनेक विवरण नवसाहसांकचरित ग्रंथ से प्राप्त होते हैं। विवाह को ले कर जनजातियों के बीच नीयम जटिल नहीं थे और तब पाँच प्रकार के विवाह प्रचलित थे आर्ष विवाह (वर से शुल्क लिया जाता था), आसुर विवाह (वर कन्या के माता पिता को धन दे कर कन्या को खरीदता है), राक्षस विवाह (वधू का अपहरण किया जाता है), पैशाच विवाह (बलात पतित्व का अधिकार पाया जाता है) तथा गान्धर्व विवाह (माता पिता की अनुमति से प्रेम विवाह)। एक ही गोत्र में विवाह करना निषिद्ध था। उपरोक्त में से बहुतायत विवाह प्रकार बदले हुए स्वरूपों में आज भी चलन में हैं।

नागयुग तक जैन धर्म-बौद्ध धर्म की पैठ चक्रकोट्य (बस्तर) में बनी हुई थी। यही वह समय है जब हिन्दू मान्यताओं और पूजा-परम्पराओं नें जनजातिगत मान्यतों के भीतर भी जगह बनाना आरंभ किया। शिव एक प्रमुख आराध्य देवता के रूप में उभरने लगे तथा तंत्रमंत्र के माहौल में शाक्त देवियों व सप्तमातृकाओं की भी आराधना व्यापक रूप से की जाने लगी। नागराजाओं की कुलदेवी माणिकेश्वरी थीं। नागयुगीन मंदिरों नें नृत्य-संगीत को समुचित प्राश्रय दिया तथा राजा सोमेश्वर देव के गढिया अभिलेख के अनुसार नृत्यांगनाओं को समुचित दान की वयवस्था शासन की ओर से थी।

नागयुग के शिल्पकार स्तुत्य हैं जिन्होंने एसी अनुपम धरोहरें बस्तर को सौंप दी हैं जो अलगी कई शताब्दियों तक इतिहास को जीवित रखेंगी। नारायणपाल का विष्णु मंदिर, बस्तर का शिव मंदिर, कुरुषपाल, भैरमगढ, चित्रकोट, गढधनोरा, केसरपाल, चपका, मटनार, छोटे-डोंगर, दंतेवाड़ा, कोईलीबेड़ा, कटगाव आदि में अवस्थित मंदिर तथा भग्नावशेष नागयुगीन वास्तुकला की आज भी गवाही देते हैं। बारसूर का बत्तीस स्तम्भों वाला मंदिर तो अनुपम है। अंग्रेज प्रशासक दि ब्रेत (1909) नें उल्लेख किया है कि एक ज़माने में बारसूर के मंदिर अपनी मिथुन मूर्तियों के कारण खजुराहो के मंदिरों से भी भव्य थे। किंतु अज्ञानता के कारण राजा महिपाल देव नें उन्नीसवीं सदी में इन्हें नष्ट करवा दिया था। आज भी मूर्तियों का बारीक अन्वेषण उनमें छिपे आदिम अभिव्यक्ति के छिपे कई दृश्य सामने लाता है जिसमें कहीं आदिवासी जीवन की पीडा है तो कहीं प्रेम भी है।

अब पुन: भाषा से प्रारंभ हुई चर्चा पर लौटते हैं। डॉ. हीरालाल शुक्ल नें अपनी पुस्तक चक्रकोट के छिन्दक नाग में उल्लेख किया है कि उन्होंने नागयुगीन बस्तर के कुल तैतीस अभिलेखों की खोज की है जिसमें से 16 अभिलेख तेलिगु में एवं 17 अभिलेख संस्कृत में हैं। डॉ. शुक्ल का मंतव्य है कि इन्द्रावती नदी एक स्पष्ट विभाज्य देखा है जिसके उत्तर का क्षेत्र संकर संस्कृत का तथा दक्षिण का अंचल संकर तेलुगु का रहा है। नागयुगीन राजा भाषा को ले कर स्पष्ट सोच रखते थे तथा समय समय पर उन्होंने एक भाषा नीति बनायी थी। नागयुगीन बस्तर की प्रथम राजभाषा (925-1062 ई.) तेलुगु थी चूंकि तब नाग दक्षिण से बस्तर आ कर स्थापित हुए थे एवं स्वयं का विस्तार करने के लिये अपनी भाषा को माध्यम बनाना उन्हें उचित लगा होगा। मधुरांतक देव (1062-1069 ई.) नें भाषानीति को बदल कर संस्कृत को राजभाषा घोषित किया। संभवत: इसका कारण सोमवंशी, कलचुरी, ओडिशा तथा चोल शासकों से सहसम्बन्ध बढाना रहा होगा। इसके बाद तीसरी राजभाषा नीति का काल 1069-1218 के मध्य का है जहाँ तेलुगू एवं संस्कृत दोनो को ही राजभाषा का दर्जा प्राप्त था। सोमेश्वर देव (1069-1111ई.) नें कुल नौ आज्ञा पत्र जारी किये जिनमें से पाँच संस्कृत में तथा चार तेलुगु में थे। इस अवधि के विषय में डॉ. शुक्ल लिखते हैं कि भाषा-बोलियों का सम्मिश्रण जनजातियों में इसी प्रकार नागयुग में होता रहा। आन्ध्र के प्रभाव वाले क्षेत्रों में तेलुगु नें माड़िया तथा धुर्वी के साथ मिल कर द्विभाषिकता की स्थिति को निर्मित किया तथा हलबाओं के संपर्क में ओडिया भाषा आई। अबूझमाडिया कबीले तब शक्तिशाली थे तथा एकभाषीय बने रहे। कालांतर में द्विभाषी स्थिति तो यथावत बनी रही लेकिन एकलिपि (1218 -1224 ई.) का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। इस काल में संस्कृत तथा तेलुगु दोनो ही भाषाओं के अभिलेख नागरी लिपि में लिखे जाने लगे। शनै: शनै: तेलुगु भाषा की परम्परा समाप्त हो गयी तथा संकर संस्कृत (1224-1324 ई.) का विकास हुआ जिसमें स्थानीयता का तेजी से सम्मिश्रण भी होने लगा। एक एसी भाषा में संस्कृत बदलने लगी जिसके बहुत निकट आज की हलबी प्रतीत होती है। इस कारण को प्रमुखता से पहडना होगा कि क्यों हलबी सभी जनजातियों के बीच बोली जाती है जाहे वे गोंड हो या हलबा।

नागयुग में विभिन्न जनजातियों का सहसंयोजन भी हुआ तथा जिन जनजातियों की शासन में सहभागिता नहीं रही वे उपेक्षित व पिछडते भी चले गये। नाग शासन में जनजातियों के बीच आपसी संघर्ष के कोई दस्तावेज़ अथवा प्रमाण नहीं मिलते साथ ही यह सु:खद प्रतीति होती है कि बस्तर में अनेक धर्म, अनेक जातियाँ, अनेक बोली-भाषा बोध के बाद भी आधुनिक तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा विद्वेष फैलाये जाने की साजिश से पहले तक कभी भी इन सवालों पर अनेकता या अलगाववाद की स्थितियाँ निर्मित नहीं हुई हैं। अत: वही दोषी हैं जो बस्तरिया समाज को इस दृष्टि से देख रहे हैं, प्रदूषक-विचारों का विरोध अवश्य होना चाहिये।
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