बस्तर में माओवादी हिंसा और
सलवाजुडुम दोनो के ही अपने पक्ष-विपक्ष हैं। माओवादी हिंसा तो अभी जारी है लेकिन
सलवाजुडुम अभियान की अब कमर टूट चुकी है। बस्तर की राजनीति में महेन्द्र कर्मा एक
जाना पहचाना नाम हैं तथा भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के कार्यकर्ता से अपने राजनीतिक
जीवन की शुरुआत करने के बाद इन दिनो वे कांग्रेस के बडे आदिवासी नेताओं में गिने
जाते हैं। उनका एक परिचय यह भी है कि सलवा जुडुम अभियान का उन्होंने अग्रिम पंक्ति
में खड़े हो कर नेतृत्व किया था। महेन्द्र कर्मा प्रखर वक्ता भी हैं तथा बस्तर पर अपने
विचार वे दृढता और आत्मविश्वास के साथ रखते हैं। बस्तर पर किये जा रहे अपने अध्ययन
के दौरान महेन्द्र कर्मा से मेरी मुलाकात दंतेवाड़ा में हुई थी। मैने उनका साक्षात्कार
रिकॉर्ड किया था जिसमें बिना अपना मत-मंतव्य जोडे शब्दश: प्रस्तुत कर रहा हूँ -
राजीव रंजन: कर्मा जी, महाराजा प्रवीर का समय और आज का
बस्तर; दोनों समयों मे आप कैसा परिवर्तन महसूस करते है?
महेन्द्र कर्मा: देखिए प्रवीर का पूरा समय राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच फसा हुआ समय था। प्रवीर राजतंत्र की अन्तिम कड़ी होने के साथ-साथ
बहुत अच्छे विधायक थे। उन्होंन राजतंत्र के मानकों को उभारा जिसके परिणाम में 1966 का गोलीकाण्ड हुआ। प्रवीर बस्तरवासियों के बीच
में बहुत ही लोकप्रिय थे तथा अपने समय के डेमोक्रेटिक सेटअप में एक अच्छे लीडर हो
सकते थे। उन्होंने लीडर बनने की बजाय एक राजा होने की भूमिका ज्यादा निभाई।.....मैं
समझता हूँ कि बस्तर ही नहीं पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में खासकर, परिवर्तन और विकास की आहट बहुत कम
सुनाई दी है। जो भी डेवलेप्टमेन्ट; जो भी चेंजेज़ आए हैं वे बहुत ही स्लो हैं, धीमी प्रोसेज में आये हैं।
बस्तर की जहाँ तक बात है, अचानक 1967 - 68 के उपरान्त जैसे ही यहाँ बैलाडिला प्रोजेक्ट
आया तो वह यहाँ के शान्त माहौल में हलचल की तरह आया या
कहिये एक शान्त झील में कोई
बड़ा सा पत्थर फेंकने के बाद उठी लहरों का अहसास यहां के लोगों ने किया है।
बैलाडिला के लिए भी यहाँ के लोग तैयार नहीं थें। अगर सरकार थोड़ा भी यहाँ के लोगों
को इस बड़े और प्रभावित करने वाले अध्याय से जोड़ती, यहाँ के लोगों को इससे सीधे जोड
पाती, यहाँ के शिक्षित लोगों के लिये यह एक अवसर की तरह आता तो मैं समझता हूँ कि
इसका स्वागत भी होता और इसके दूरगामी परिणाम कुछ और बेहतर हो सकते थे, जो
नही हुआ।
राजीव रंजन: बैलाडिला
तो आ गया लेकिन उस बीच में बस्तर में बोधघाट परियोजना बन्द
हो गई या नगरनार प्रोजेक्ट बन्द हो गया। जिन्हें हम विकास परियोजनाएं कहते हैं वे बस्तर अंचल से एक-एक
करके खत्म होती चली गई....?
महेन्द्र कर्मा: बस्तर में इस सम्बन्ध में दो प्रकार की
विचारधारा हैं। एक विचारधारा वो, जो ऑर्थोडॉक्स है; वो लोग यहां के समाज, संस्कृति,
धर्म जैसे बातों का भय दिखा कर बस्तर
के विकास को रोक रहे हैं। दूसरी विचारधारा है जो यहाँ के संसाधनों पर आधारित हैं,
यहाँ के लोगों के लिये विकास की पहल कर रही हैं। इसमें हम लोग भी हैं।....बस्तर
में काम पैदा होना चाहिये, जितना सही तरह से संभव हो उद्योग धंधे भी लगने चाहिए,
इस बात के हम लोग शुरू से सर्मथक रहे हैं। हमारा कहना है कि यहाँ के संसाधन सिर्फ
ग्लोबल नहीं होने चाहिए, उन पर कहीं न कही इस जमीन का पहले हक है। पर वेल्यूऐटेड डेवलपमेंट होना चाहिए।
वेल्युएडिशन की स्थिति में यहा एम्प्लॉयमेंट बढ जायेगा। आज जो बस्तर का आदमी है वह
भी बदल गया है। उसके लिये अब बिलकुल एक नया युग हैं। उसकी सोच ही अलग हैं। वह बदलती
दुनिया के साथ अपने आप को एडजेस्ट करना चाहता हैं। अभी इस तरह की तमाम चीजों पर बाते
एक ब्लास्टिंग मोड में हैं....नए अवसर खुल सकते हैं। हम जो उनको नही दे पा रहे, इसका
कोई तुक नहीं है। मेरा मानना है कि डिसाईजिव स्थिति में रहने के बाद भी, साधन
सम्पन्नता के बाद भी हम यहाँ के लोगों के लिये विकास से सही अवसर खोल पाने में अब
तक असफल ही रहे हैं।
राजीव रंजन: कर्मा जी, अपने बहुत खुलकर एक बात की है। इसी
से जुड़ा हुआ एक प्रश्न करना चाहता हूँ कि जिन दिनों ब्रह्मदेव शर्मा बस्तर में रहें, दो
महत्वपूर्ण काम हुए। पहला तो प्रशासक के तौर पर उनके
प्रयासों द्वारा अबूझमाड़ क्षेत्र को आम
दुनिया से काट दिया गया और उसे एक आईसोलेटेड क्षेत्र बना दिया गया। दूसरा एक
एक्टिविस्ट के तौर पर उन्होंने मावलीभाटा के पास बनने वाले स्टील प्लांट का विरोध
किया; हालाकि बाद में उसका विरोध भी ब्रम्हदेव शर्मा को झेलना पड़ा था, दूसरे
तरीके से। इन उदाहरणों से जुडा मेरा प्रश्न है कि क्या आप भी आदिवासी आईसोलेशन की
प्रक्रिया को सही मानते हैं?
महेन्द्र कर्मा: दुनिया में जो भी विकास हुआ हैं, कुछ एक उदाहरणों को
छोड दें तो आजादी के पहले से अब तक का जो पूरा
हिन्दुस्तानी इतिहास हैं, वो सब संपर्कों पर आधारित इतिहास रहा हैं।...कितने सारे आक्रमणों का दौर आया, मुगलो
का युग आया और फिर अंग्रेज....अंग्रेज हमे कोई एज्युकेट करने नहीं आए थे। वो लोग तो
भारत में अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए आये थे। वह तो जो भी लोग उनके सम्पर्को
में आये, उन लोगों ने सम्पर्को का फायदा उठाया। संपर्क तो एक कैरियर है, एक वाहक
है। दूसरी बात जिसका उदाहरण आपने स्वयं दिया- ब्रम्हदेव शर्मा; जो कि एक
ऑर्थोडॉक्स आईडियोलॉजी का प्रतीक है। ये तमाम बस्तर की परियोजनाओं के विरोध करने
वाले लोग कहीं न कही इसी आईडियोलॉजी के फॉलोअर लोग हैं। आदिवासी आईसोलेशन सही नहीं
है।
राजीव रंजन: कर्मा जी, क्या आदिवासी आईसोलेशन की प्रक्रिया
भी बस्तर में नक्सलिज्म का एक कारण हो सकता है?
महेन्द्र कर्मा: जी हाँ बिलकुल। आजादी के बाद, जैसे
मैंने कहा कि यहाँ संपर्कों का अभाव बना दिया गया जिससे इस आदिवासी क्षेत्र में
समस्यायें पैदा हुई। हमारा डेवलपमेंट कॉंसेप्ट बहुत ज्यादा त्रुटिपूर्ण है। हम
शहरों से गाँवो की ओर धीरे-धीरे चले; हमको गांवों से शहरों की और चलना चाहिए। यह जो
नक्सलवाद जिसे आप कह रहे हैं इसी का खामियाजा है। नक्सलवादियों नें भी तो उन्हीं
क्षेत्रों को को आईसोलेटेड थे, जहाँ प्रशासन की पहुँच नहीं थी, जहाँ विकास की
रोशनी नहीं पहुँचाई गयी; उसी क्षेत्र को अपना आधार इलाका बनाया है। और अब ये सभी
क्षेत्र और अधिक आईसोलेट और विचलित हो गये हैं। आईसोलेशन तो सीधे सीधे कूपमण्डूकता
हैं, समझ गए आइसोलेशन मतलब?.....अगर आज के दौर में हम
किसी भी समाज को या एक समूह विशेष को पृथक रखने का, या आईसोलेट करने का कोई भी काम
करते है तो हम एक बार फिर उन्हे अभिशप्त जिन्दगी जीने को प्रेरित और बाध्य दोनो ही कर
रहे हैं।
राजीव रंजन: कर्मा जी इतिहास पलट कर देखा जाये तो हम पाते
हैं कि बस्तर के आदिवासी हमेशा से जुझारू रहे है तथा अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम रहे
हैं। क्या
कारण रहा की उनकी लड़ाई लड़ने के लिए बाहर से लोगों को आना पड़ा जिनका दावा हैं कि वे
बस्तर के आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे हैं; मेरा इशारा नक्सलियों की तरफ हैं?
महेन्द्र कर्मा: असल में तो नक्सली अपनी आईडियोलॉजी यहाँ के
लोगों पर थोप रहे हैं इसके बाद भी वे यही सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि ये मूवमेंट
उनका नहीं, आदिवासियों का हैं। जबकि
नक्सलवाद से आदिवासियों का कोई सम्बन्ध नही है,
वो इसीलिए नही भी नहीं हैं, क्योंकि
आदिवासियों नें आजतक अपनी समस्याओं का निदान संविधान
के दायरे से बाहर जा कर नहीं खोजा। वो संविधान के दायरे मे ही रहकर लोकतांत्रिक
तरीके से, शांतिपूर्ण तरीके से, अपनी बात कहता रहा है। इसके साथ ही यह भी कहना
चाहिये कि वो गूंगा भी नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति के तथा अपनी बात को कहने के तरीके
अलग हैं; इस तरह की हिंसा का उसका चहरा या तरीका नहीं है।
राजीव रंजन: इसी बात को आगे बढाते हुए मैं आपसे सलवा जुडुम
की भी बात करना चाहूंगा। कर्मा जी मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि सलवा जुडुम का
इतिहास क्या है तथा इसके आरंभ होने की क्या परिस्थिति थी?
महेन्द्र कर्मा: आपको याद होगा कि सलवा जुडुम से पहले एक जन
जागरण अभियान भी चला था 89 से 91 लगभग दो सालों तक; बिल्कुल
वैसे ही, ये भी चला था। घटना यह हुई कि एक गांव में...गाँव
का नाम नहीं ले रहा हूँ नहीं तो उस गांव के लोगों को नक्सली मार देंगे। तो एक गाँव
में नक्सलियों की बैठक चल रही थी; बिल्कुल रोड़ किनारे यह सब चल रहा था। फोर्स का
राशन जा रहा था, ड्राइवर नक्सलियों से मिला हुआ था; अचानक वो
रोड छोड़ कर गाँव की
ओर मुड़ गया। बिल्कुल बगल मे ही नक्सली लोग मीटिंग कर रहे थे तो फोर्स वाले जो दो
जो ऊपर बैठे थे वो भाग के आ गए और राशन को उनके हैण्डओवर कर दिया। नक्सली वो राशन को
लूट लाट कर ले गए। दूसरे दिन फोर्स जाकर गांव के कुछ लोगों को उठा कर थाना ले आई।
थाने में बैठे लोगों नें विचार किया कि एक गलत आदमी की वजह से गांव के सियाने
लोगों को पुलिस क्यों बिठाएगी? तो उन लोगों नें पुलिस से कहा कि एक आदमी की
वजह से गाँव के सभी बडे सियाने क्यों परेशान हों। वो लोग गाँव गये और दोषी को
पकडकर ले आये और पुलिस के हवाले कर दिया। पकड के तो ले आये लेकिन फिर गाँव वालों
में डर भी जगा कि अब अगर हमने लोगों को हमारे साथ नही जोड़ा तो नक्सली आकार हमारे
गांव को तो भून देंगे। इस प्रकार
से वहाँ के नक्सलियों के खिलाफ डर से शुरु हो कर सलवाजुडुम एक प्रतिष्ठा की लड़ाई, स्वाभिमान
की लड़ाई, आन-बान की लड़ाई बनता गया। यह घटना तो
बस शुरूआत थी। वहाँ के लोगों ने तब दस गाँव के लोंगों कों बुलाया। कहते है, बड़े
आन्दोलन की शुरूआत या एक बड़े विद्रोह की शुरूआत छोटे कारणों से होती रही हैं।
इतिहास इस बात का गवाह है।....अपने समय के समकालीन लोग किसी ईवेंट को कैसे देखते
हैं; किसी घटना को किस तरह लेते हैं; हम लोगों नें इसे वैसे ही देखा हैं। ये मई की
घटना थी, 18-19 जून को मैं दिल्ली में था। वहाँ मै पेपर पढ कर इस घटना को देख-समझ रहा था, फिर
मुझे लगा, वहाँ तुरंत जाना चाहिए, ऐसी
जगह पर जहाँ लोग तो अपने आप आन्दोलन करने के लिये इकट्ठा हो रहे हैं लेकिन उनके
लिये लीडरशीप का पता नही हैं। मेरे वहाँ पहुँचते-पहुँचते 26
तारीख लग गई। वहाँ पहुँचने के बाद मैने इसे सिस्टमेटिक ढंग
से चलाने की कोशिश की है। सलवा जुडुम के उपर जो हत्या बलात्कार के आरोप जगाये गये
हैं वो दुष्प्रचार है; जो भी नक्सलियों के खिलाफ कोई आन्दोलन खडा करने की कोशिश
करेगा उसको इसी प्रकार से दबाने का षडयंत्र किया जाता है। सच यह है कि हम लोग न तो
अपने ही लोगों को मार सकते हैं न उनका बलात्कार कर सकते हैं।
राजीव रंजन: सलवा जुडुम को क्या आप एक सशस्त्र आंदोलन के
खिलाफ एक दूसरा सशस्त्र आंदोलन मानते हैं?
महेन्द्र कर्मा: बिल्कुल नहीं, बिल्कुल नही। ऐसा था ही नहीं। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी समस्या का समाधान मास-मूमेंट
होता है और यह हमारा मास-मूमेंट था। वह सशस्त्र था ही नहीं। हम हजारो लोग जब विलेज टू विलेज मूव कर रहे तो
हमारी सुरक्षा में एक फोर्स था। फोर्स को अपनी भूमिका निभानी होती है; आज कोई भी
जंगल जाएगा कोई जाँच कमीटी भी जाएगी तो उसके लिए भी फार्स लगायी जायेगी; हम तो फिर
भी नक्सलियों के खिलाफ में लड़ रहे थे। यह बिल्कुल सशस्त्र मूवमेन्ट नहीं था....बहुत
ज्यादा हुआ तो हमने अपने परम्परागत हथियार को जिनमे टंगिया, कुल्हाडी, तीर-धनुष को
अपने साथ रखा। सभी जानते हैं कि यह हमारे परम्परागत हथियार हैं; कुछ लोंगों ने इसे ही फोर्स अटैक बताया;
जैसे हम सशस्त्र लड़ाई लड़ रहे हैं।
राजीव रंजन: सलवाजुडुम के समाप्त होने में आप किसकी भूमिका
मानते हैं?
महेन्द्र कर्मा: नक्सलियों के खिलाफ जब भी कोई बात या मूमेंट या
बहस फ्लोर पर होती है तो उसे बहुत योजनाबद्ध तरीके से डिफ्यूज किया जाता है; और
एसा करने वाले बहुत अच्छी तरह इसे करने में अब तक सफल रहे है... समझ गए। इन दिनो एक
रूझान सा देखने को मिल रहा हैं...एंटी सिस्टम बाते करना आम हो गया हैं। मुझे लगता
है इस मामले को हम लोग सही तरह से उठा नहीं पाये; हम अपना सही प्रेजेंटेशन नहीं दे
पाये; सही पूछिये तो हमने उसकी जरूरत भी नहीं समझी। जमीन पर तो हम अपना पक्ष रोज
रख रहे थे, लेकिन दिल्ली, भोपाल तक हम लोग अपना प्रजेन्टेशन नहीं
दे पाये...... हम इस बात की जरूरत नहीं समझ रहे थे। जब हम जंगल में जमीनी लड़ाई लड़
रहे हैं तो हमे क्या जरूरत है कि दिल्ली और भोपाल में जाकर अपना पक्ष रखें। जो
हमारी खिलाफत करने वाले लोग है वो प्रेजेंटेशन दिल्ली भोपाल में लगातार देते रहे।....इसी
से हम हार गये। बहुत जबरदस्त धक्का लगा हमारे मूमेंट को। इतने बडे पब्लिक मूमेंट
में ठहराव आ गया है, आन्दोलन खत्म हो गया है....यही चाह रहे थे नक्सली और वे सफल
रहे; हम लोग हार गए।
राजीव रंजन: तो आपको अफसोस है?
महेन्द्र कर्मा: बहुत ज्यादा, और वो अफसोस तब तक रहेगा जब तक नक्सलवादी
रहेगें। ये अफसोस बना रहेगा जब तक हमें फिर नई शुरूआत कोई नयी लड़ाई नहीं मिल जाती।
राजीव रंजन: कर्मा जी तो अब प्रश्न उठता है कि इस समस्या
से कैसे निपटा जा सकता है?
महेन्द्र कर्मा: अब तो ऐसा है कि यह बात सिर्फ बस्तर की ही नहीं
रह गयी है; अब तो यह पूरे देश की बात है। इसका समाधान पब्लिक के पास हैं; सरकार के
पास है; फोर्सेज के पास है और कहीं न कहीं इन सभी को कलेक्टिवली सामने आना ही
पडे़गा। एक बड़े सपोर्ट के साथ में; एक बड़े वॉल्यूम के साथ में। आज हम लोग कहां हैं?...और वो लोग कितना जबरदस्त दबाव बनाते
हैं, गाँव के मुखिया से ले कर, एक
सरपंच से लेकर परम्परिक जो हमारे रूरल ट्रैडिशनल सिस्टम हैं इन सभी को क्रश कर के
रख दिया है। न गायता हैं, न पुजारी, न कोतवाल है, न पटेल है,
न सरपंच है। गांव में अब कोई भी नहीं है।
जो भी है वो उनका आदमी है; वो हमारे ट्रेडिशन सेटअप को रिलीजियस सिस्टम को टारगेट
करता हैं....देखिये कि जो ट्राइबल है वह नेचर के साथ रहने वाला आदमी है; प्रकृति
का एक अभिन्न हिस्सा है और उसका अपना एक डैली रूटीन भी है। वो अपने कस्टम-सिस्टम के
साथ जीने वाला आदमी हैं। लेकिन नक्सलवादी ये चाहता है कि ट्राइबल उसका अपना जो कुछ
है उसको छोड दे; अपने जीने का तरीका बदल दे; कस्टम-सिस्टम छोड दे। उसी बात को वह
अब कहीं बोल नही सकता, कहीं सही तरह से अभिव्यक्त नही कर पाता। इसी
लिये उसके अन्दर एक गुस्सा है; इसी बात से वह लड़नें के लिए ललायित है; यही एक फैक्टर
है जो उसको टैम्पर कर रहा हैं.......... वो अपनी बेसिक पहचान खो रहा हैं। समाधान
इस लिये नहीं हो रहा है कि बडी पॉलिटिकल विल चाहिये। जब तक किसी सरकार में कुर्बानी देने के माद्दा नहीं आयेगा तब तक....। हमने
पंजाब में देखा है, हमने नार्थईस्ट में देखा है कि सरकारों को
आतंकवाद नें निगला है। अगर एसा ही रहा तो मुझे लगता है बहुत जल्दी इस देश मे वभी नेपाल
की स्थिति बन सकती हैं क्योंकि इस आतंकवाद को कोई रोक ही नही रहा हैं।
राजीव रंजन: आदिवासी नेता छत्तीसगढ़ की राजनीती में कहाँ है?
महेन्द्र कर्मा: अब करवट ले रहा हैं। आदिवासी नेतृत्व आगे आ रहा है। उसे अब आप
रोक भी नहीं सकते। इतने बर्निंग प्वाईंट पर आदमी यहाँ पर स्ट्रगल कर रहा है, ऐसे
आदमी की आवाज को ज्यादा रोका नहीं जा सकता है।
राजीव रंजन: आपसे
बहुत सी बाते हुईं; बहुत-बहुत धन्यवाद आपका!!!
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म एडम्स KEVIN, Aiico बीमा plc को एक प्रतिनिधि, हामी भरोसा र एक ऋण बाहिर दिन मा व्यक्तिगत मतभेद आदर। हामी ऋण चासो दर को 2% प्रदान गर्नेछ। तपाईं यस व्यवसाय मा चासो हो भने अब आफ्नो ऋण कागजातहरू ठीक जारी हस्तांतरण ई-मेल (adams.credi@gmail.com) गरेर हामीलाई सम्पर्क। Plc.you पनि इमेल गरेर हामीलाई सम्पर्क गर्न सक्नुहुन्छ तपाईं aiico बीमा गर्न धेरै स्वागत छ भने व्यापार वा स्कूल स्थापित गर्न एक ऋण आवश्यकता हो (aiicco_insuranceplc@yahoo.com) हामी सन्तुलन स्थानान्तरण अनुरोध गर्न सक्छौं पहिलो हप्ता।
व्यक्तिगत व्यवसायका लागि ऋण चाहिन्छ? तपाईं आफ्नो इमेल संपर्क भने उपरोक्त तुरुन्तै आफ्नो ऋण स्थानान्तरण प्रक्रिया गर्न
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