नक्सलवाद बस्तर का मैलिग्नेण्ट कैंसर है – डॉ. कौशलेन्द्र
“आमचो बस्तर” को प्रकाशित हुए दूसरा वर्ष हो गया है। इस बीच हार्ड बाउंड तथा
पेपरबैक दोनो संस्करण बाजार में आ गये हैं। प्रसन्नता इस बात की अधिक है कि मुझे
अब भी प्रतिक्रियायें निरंतर प्राप्त हो रही हैं। नवीनतम समालोचनात्मक प्रतिक्रिया
दी है कांकेर (बस्तर) के डॉ. कौशलेन्द्र नें। इस समालोचना को उन्होंने अपने ब्ळोग “बस्तर
की अभिव्यक्ति” पर भी प्रकाशित किया है। यह समालोचना मैं अपने मित्रों के
लिये उपलब्ध करवा रहा हूँ: -
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राजीव रंजन प्रसाद का हालिया लिखा उपन्यास “आमचो बस्तर” अपनी ही धरती पर बेगानों के साथ मिलकर अपनों द्वारा क्रूरता से छिछियाये हुये
पीड़ित संसार का इतिहास है, अतीत की गुफाओं में दफ़न किये
जा चुके बस्तर के देशभक्त महानायकों की गौरवपूर्ण समाधि बनाने और उन पर श्रृद्धासुमन
अर्पित कर बस्तर के इतिहास को पुनर्जीवित करने का सार्थक और स्तुत्य प्रयास है, शोषण की अजस्र प्रवाहित विषधारा के प्रति व्यापक चिंता है, छोटी-छोटी समस्याओं के विराट ज्वालामुखी हैं, विदूप हो ठठाते
विकास की कड़्वी सच्चायी है, पत्रकारिता की निष्ठा पर अविश्वास
है, गोलियों से बहे निर्दोष ख़ून और मासूम चीखों से अपने
अहं को तुष्ट करती सत्ता की कहानी है, दुनिया के द्वारा ख़ारिज़ किये
जा चुके आयातित विचारों की पोटली में छिपे बम हैं....और हैं ढेरों प्रश्न जो किसी
भी निष्पक्ष पाठक को झकझोरने, अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर
खोजने और एक नई क्रांति के लिये पृष्ठभूमि की आवश्यकता पर चिंतन करने को विवश करते
हैं।
उपन्यास के भीतर से एक आह उठती है – “मेरे बस्तर! क्या तुम इसी
प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी लोकतंत्र
का हिस्सा हो? क्या बस्तर भारत का ही हिस्सा है?” देश को आज़ाद हुये आधी सदी से भी अधिक
समय बीत जाने के बाद इस तरह के आह भरे प्रश्न आज़ादी के स्वरूप और औचित्य के लिये
चुनौती हैं।
कई बार मैं यह सोचने के लिये विवश हुआ हूँ कि नैसर्गिक सौन्दर्य और प्राकृतिक
सम्पदाओं से भरपूर बस्तर कहीं इस आर्यावर्त की अभिषप्त भूमि तो नहीं? त्रेतायुग में रावण का
उपनिवेश रहा दण्डकवन, कलियुग में दुनिया के लिये
अबूझ हो गया बस्तर, बीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश, भोसले और अरब आततायियों से आतंकित बस्तर, स्वतंत्र भारत में
स्वाधीनसत्ता की गोलियों से भूने जाते निर्दोष गिरिवासियों-वनवासियों के शवों पर
सिसकता बस्तर और वर्तमान में लाल-सबेरा के लाल-रक्त से प्रतिदिन स्नान करता बस्तर
कब तक शोषित होता रहेगा और क्यों?
बस्तर की माटी में पले-बढ़े, अपने सर्वेक्षण और चिंतन को
कलम के माध्यम से अभिव्यक्त करते राजीव रंजन प्रसाद के उपन्यास “आमचो बस्तर” के पात्र भी इन्हीं प्रश्नों से जूझते नज़र आते हैं।
बस्तर के प्राच्य इतिहास को अपने में समेटे इस ऐतिहासिक उपन्यास की प्रथम यवनिका
उठते ही एक गोला सा दगता है- “आख़िर सुबह क्यों नहीं होती?” प्रश्न स्वगत उत्तर के रूप में अपने को और भी स्पष्ट करता है- “रोज-रोज माओवादी हमलों में मारे जा रहे आदिवासियों से वैसे भी दुनिया का क्या
उजड़ता है?”
प्रकृति ने तो बस्तर को बड़ी उदारता से सब कुछ बाँटा पर मनुष्य ने बस्तर को
छलने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत की स्वतंत्रता के 12 वर्षों बाद बस्तर के
वनवासियों के साथ भारत सरकार द्वारा एक क्रूर परिहास किया गया; उन्हें बताया गया कि “भारत सरकार के द्वारा विजय
चन्द्र भंज देव को बस्तर का महाराजा घोषित किया गया है, अब वे ही आप सबके महाराजा हैं।”
प्रवीर चन्द्र भंज देव को अपना महाराजा ...अपना अन्नदाता ...अपना भगवान मानने
वाले बस्तर के भोले-भाले लोगों को नहीं पता कब किसकी हुक़ूमत आयी और कब किसकी ख़त्म
हो गयी। उन्हें दिल्ली नहीं मालुम, उन्हें भारत सरकार नहीं
मालुम। उन्हें बदला हुआ सत्य न बताकर उनकी आस्था भंग की गयी। बस्तर राज्य को
भारतसंघ में स्वेच्छा से सम्मिलित कर चुके महाराजा प्रवीर को भारत सरकार ने बस ‘नाम भर’ का पूर्व राजा
मानने से इंकार करते हुये उनके छोटे भाई को ‘नाम भर’ का राजा घोषित कर दिया, एक ऐसा राजा घोषित कर दिया
जिसका कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं था। किंतु ...इस घोषणा में जिस बात का अस्तित्व
था वह था झूठी शान की दिलासा में दो भाइयों को एक-दूसरे का शत्रु बनाकर सत्ता में
बैठे लोगों की अहं की तुष्टि। इस तुष्टि का परिणाम हुआ 31 मार्च 1961 को बस्तर के
लोहण्डीगुड़ा में आदिवासियों पर पुलिस की बर्बर फ़ायरिंग। और फिर बस्तर राजमहल में
निहत्थे प्रवीरचन्द्र भंज देव की पुलिस द्वारा बर्बर हत्या। क्या स्वतंत्र भारत की
यही तस्वीर है?
उपन्यासकार राजीव रंजन की एक बड़ी पीड़ा यह भी है कि देश के लोग बस्तर को अन्धों
के हाथी की तरह देखते रहे हैं ...वह भी अपनी पूरी ज़िद के साथ। दूर दिल्ली में
बस्तर के प्रति एक आम धारणा देश की संचार एवं सूचना व्यवस्था का परिहास करती है – “ ... अरे बस्तर से आये हो, लेकिन तुमने तो कपड़े
पहन रखे हैं।”
लोगों की दृष्टि में बस्तर कैसा है, लेखक ने इसका बख़ूबी वर्णन किया है –“बस्तर में ख़ूबसूरती तलाशने के लिये दिल्ली से एक बड़ी पत्रिका के पत्रकार और
प्रेस फ़ोटोग्राफ़र आये थे। जंगल-जंगल घूमे। उन्हे यहाँ की हरियाली में ख़ूबसूरती नज़र
नहीं आयी। चित्रकोट और तीरथगढ़ जैसे जलप्रपात उन्हें सुन्दर नहीं लगे, न ही कुटुमसर जैसी गुफ़ाओं के रहस्य ने उन्हें रोमांचित किया। जिस ख़ूबसूरती की
तलाश थी वह थी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी निर्वस्त्र आदिवासी युवती।”
बस्तर में ख़ूबसूरती तलाशने आये एक फ़्रांसीसी जोड़े को भी किसी नग्न आदिवासी
युवती की तलाश थी। घुटनों से ऊपर स्कर्ट और टीशर्ट पहनने वाली रीवा को देखकर
स्थानीय युवक के मन प्रश्न उठता है कि “आख़िर इतने ख़ुलेपन और
न्यूनतम वस्त्रभूषा के बाद भी इन्हें बस्तर में निर्वस्त्र आदिम जीवन को ही देखने
की उत्कंठा क्यों है?” आगे लेखक ने चुटकी लेते हुये
लिखा है- “ ....वह पिछड़ों के नंगेपन और विकसितों के नंगेपन के बीच
के अंतर का विश्लेषण कर रहा था।”
लेखक बस्तर की इस कृत्रिम छवि से व्यथित है इसलिये उसे ऐतिहासिक हवाला देते
हुये बस्तर राज्य के पूर्व मंत्री की हैसियत वाले एक पात्र के माध्यम से यह स्पष्ट
करना पड़ा कि, “राजा अन्नमदेव से पहले नाग राजाओं की शासन पद्धति
गणतंत्रात्मक थी। वैदिक युग से नागों के युग तक बस्तर की जनता का भौतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में विकास हुआ था।” आगे, लेखक ने बस्तर की त्रासदी को रेखांकित करते हुये एक
स्थान पर लिखा - “जब एक समाज बाहर और भीतर के
द्वार बन्द करले तो समझिये उस समाज ने पीछे की ओर दौड़ लगाना आरम्भ कर दिया है।
राजा अन्नमदेव गणतांत्रिक व्यवस्था को कायम नहीं रख सके ... ”
बस्तर की पृष्ठभूमि पर यह उपन्यास जंगल से दूर किसी महानगर के भव्य भवन के
वातानुकूलित कक्ष में सुने-सुनाये मिथकों और कल्पना के सहारे नहीं लिखा गया बल्कि
बस्तर के जंगल के भीतर बैठकर लिखा गया। इसीलिये उपन्यास एक ऐतिहासिक अभिलेख बन पड़ा
है जिसके अतीत में खोये पात्र अत्याचार के विरुद्ध जूझते हुये और शोषण को अपनी
नियति स्वीकार कर चुके आधुनिक पात्र विकास की आशा में बड़ी उत्सुकता से बस्तर से
बाहर की ओर झाँकते नज़र आते हैं। गहन वन के अंधेरों को बेचकर ख़ुद के लिये रोशनी का
ज़ख़ीरा जमा करते लोग बस्तर के अंधेरों को बनाये रखने के हिमायती हैं। अंधेरों के
ख़िलाफ़ लड़ने की कसम खाते हुये कुछ तत्वों ने रूस और चीन से आयातित विचारों के सहारे
एक समानांतर सत्ता कायम कर ली है जो अब ख़ुद भी अंधेरे बेचने लगी है। सत्ता के
गलियारों में नक्सलवाद और माओवाद एक अज़ूबा फ़ैशन बनता जा रहा है जिसे समझने और
समझाने की कोशिश में लेखक ने आदिवासी समाज की एनाटॉमी, प्रशासन की फ़िज़ियोलोजी और सत्ता की पैथो-फ़िज़ियोलॉजी का पूरी ईमानदारी के साथ
विश्लेषण किया है। इस विश्लेषण के प्रयास में एक कुशल जुलाहे की भूमिका निभाते
हुये लेखक को अपनी बीविंग मशीन में आगे-पीछे के कई तानों-बानों को आपस में पिरोना
पड़ा है जिसके कारण यह उपन्यास अतीत और वर्तमान की कई कहानियों को अपने में समेट कर
चल सकने में समर्थ हो सका।
जल संसाधन की दृष्टि से बस्तर सम्पन्न है परन्तु बस्तर से होकर बहने वाली
इन्द्रावती का लाभ पड़ोसी आन्ध्रप्रदेश के हिस्से में जाता है, लेखक ने इस जनसरोकार पर बहस छेड़ते हुये मुआवज़े के हक़ की बात अपने पाठकों के
समक्ष रखी है।
आज़ादी के बाद विकास की गंगा बहाये जाने का दावा करने वाली राज्यों की देशी
सरकारों के पक्षपातपूर्ण सत्य को उजागर करने में, जहाँ भी अवसर मिला
लेखक पीछे नहीं हटता –“बचपन का अर्थ होता है तितली
हो जाना, खिलखिलाना, कूदना, सपने बुनना और जगमग आँखों से आकाश के सारे तारे लूट लेना ...लेकिन ऐसा बचपन? शैलेष ने एक बार फिर भरी निगाह
से देखा ...नहीं, उसमें बचपन था ही कहाँ? वह लड़की आठ वर्ष की अधेड़ थी।”
आदिवासी समाज की समस्याओं का निर्धारण वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नहीं किया
जा सकता। किंतु किया यही जाता है इसलिये बस्तर को विकास की धारा में शामिल करने का
प्रयास एक पाखण्ड से अधिक और कुछ नहीं हो पाता। स्वतंत्र भारत की शिक्षानीति पर
प्रहार करते हुये लेखक ने कई प्रश्न उठाये हैं- “सोमली नहीं समझ पाती
कि पढ़ायी क्यों ख़रीदी जानी चाहिये। .... पेट्रोल और डीजल को सब्सिडी देने वाली
सरकारें शिक्षा के लिये भी ऐसा ही क्यों नहीं करतीं? एक जैसी स्कूल ड्रेस
कर देने से एक जैसी शिक्षा तो नहीं हो जाती? ....क्या यह ख़तरनाक नहीं है कि विद्यार्थियों में उन
संस्थानों का गर्व हो जाये जहाँ सुविधा-सम्पन्नता अधिक है? ...ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि जैसे स्कूल की ड्रेस एक जैसी होती है वैसे ही सबके
स्कूल भी एक जैसे ही हों? उसी स्कूल में कलेक्टर का
लड़का भी पढ़े तो वहीं झाड़ूराम की लड़की भी?”
देश में लागू की गयी व्यवस्था जब अपने नागरिकों में भेद करने लगे तो प्रश्न
उठने स्वाभाविक हैं – “ये तरक्की शालिनियों के ही
हिस्से में क्यों है? यह कैसी व्यवस्था है जिसमें पिसने
वाला अंततः मिट जाता है। व्यवस्था ऐसा सेतु क्यों नहीं बनती जिसका एक सिरा शालिनी
हो और दूसरा सोमली?”
सरकारी तंत्र ने वर्ग भेद समाप्त करने के नाम पर वर्ग भेद को समाज में इस कदर
व्याप्त कर दिया है कि जंगल से शहर तक इसकी कटु अनुभूति पीछा नहीं छोड़ती –“कितनी अजीब बात है शालिनी, जगदलपुर में
आदिवासी-ग़ैरआदिवासी वाली गालियाँ सुनते रहे; अब पिछड़ों और
ग़ैर-पिछड़ों वाली गालियाँ सुनो।”
नक्सलवाद बस्तर का मैलिग्नेण्ट कैंसर है। नक्सलवाद के प्रति आदिवासियों के
स्वाभाविक झुकाव का दावा करने वाले नक्सली दावों की पोल खोलते हुये लेखक ने हक़ीक़त
का बयान करते हुये स्पष्ट कर दिया है कि अपनी मोटियारिन के दैहिक शोषण से उफ़नाये
ठुरलू ने फावड़े से मुंशी की हत्या कर दी और जंगल में भागकर नक्सलियों की शरण में
चला गया। ठुरलू के नक्सली बन जाने की घटना की व्याख्या लेखक ने अपने एक पात्र मरकाम
के द्वारा कुछ इस तरह की- “ठुरलू का नक्सलवादी हो जाना
परिस्थिति का परिणाम है, किसी विचारधारा का नहीं।”
सन् 1857 की क्रांति से तुलना करते हुये लेखक ने आधुनिक नक्सलियों की
विचारधारा का विरोध कुछ इस तरह से किया- “जैसे चिंगारी से आग
लग जाती है वैसे ही क्रांति भी स्वतः स्फूर्त होती है। क्रांति आयातित नहीं होती, क्रांति के लिये बड़ी-बड़ी विचारधाराओं की किताबें नहीं चाटी जातीं, ...”
नक्सलियों द्वारा बारूदी सुरंगों के ज़रिये की जाने वाली हत्याओं की दैनिक
परम्परा में शासकीय कर्मचारी की मौत पर लेखक का आक्रोश बहुत ही सधे शब्दों में
व्यक्त होता है –“देवांगन आम आदमी थे या नहीं
इस पर बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों में मतभिन्नता हो सकती है। देवांगन तथाकथित
क्रांतिकारियों के मापक में कितने डिग्री के आम आदमी कहलायेंगे इस पर समाजसेवियों
तथा प्रबुद्ध लेखकों में महीनों का विचारमंथन अवश्यम्भावी है।”
नक्सलियों द्वारा बलात् स्थापित आदिवासी क्रांति के हश्र की एक निहायत भोली और
विवश अनुभूति लेखक की कलम से कुछ इस तरह व्यक्त होती है – “ .....अपने घर से उठाये जाने के बाद बोदी को महीनों शारीरिक और
मानसिक यातनाओं के दौर से गुज़रना पड़ा। अब उसे याद नहीं कि वह कितने शरीरों के लिये
मोम की गुड़िया बनी। क्या क्रांतिकारियों के शरीर नहीं होते?”
नक्सलियों के सच को प्रतिबिम्बित करती एक अभिव्यक्ति देखिये – “झोपड़ी के दरवाजे पर एक कागज़ चिपकाया गया जिस पर लाल स्याही से कुछ लिखा हुआ
था। लिखे हुये अक्षर कोई नहीं समझता किंतु लाल रंग के आतंक से अब कौन परिचित नहीं? सुबह अंधेरा और फैला ....गाँव खाली हो गया।”
नक्सलियों की तथाकथित जनक्रांति पर लेखक की चिंता पाठक को झकझोरती है – “यह कैसी क्रांति होने जा रही है जिसमें मरने और मारने वाला तो आदिवासी होगा
लेकिन इस खेल के सूत्रधार शतरंज खेलेंगे।”
कुख्यात ताड़मेटला काण्ड, जिसमें केन्द्रीय रिजर्व
पुलिस बल के 76 जवानों को नक्सलियों द्वारा उड़ा दिया गया था, पर चर्चा करते हुये लेखक ने कहा है – “वे क्रांति कर रहे
थे। उन्हें इतना लहू चुआना था कि एक-एक दिल में दहशत घर कर जाये। वे उन सभी के
घरों में घना अंधेरा करने की नीयत से ही आये थे जो क्रांति की राह में रोड़ा बन गये
हैं। ..... वो औरंगज़ेब के ज़माने थे जब व्यवस्थायें तलवार की नोक पर बदला करती
होंगी। माओ के नाम पर ख़ून-ख़राबों ने कई दशक देख लिये, क्या बदल गया? कहाँ आयी वह लाल सुबह? क्या आवाज़ उठाने का तरीका हथियार ही है? क्या लहू बहेगा तो ही बदलाव की कालीन बनेगा?”
शहरों में बैठकर जंगल के बारे में की जा रही पत्रकारिता की संदिग्ध निष्ठा
लेखक को उद्वेलित करती है। प्रकाशन का व्यापार किसी लेखक के लेखनधर्म को किस तरह
दुष्प्रभावित करता है इस पर एक व्यंग्य देखिये – “जानकारियाँ काफ़ी
नहीं होतीं।......पाठक क्या पढ़ेंगे उसकी नब्ज़ पकड़ो। फिर नक्सलवाद क्या है? यह सोशियो-इकोनॉमिक प्रॉब्लेम है। ...तुम दोनों को अभी और पढ़ने की ज़रूरत है।
मार्क्स को पढ़ो, लेनिन और माओ को जानो, चे ग्वेरा के संघर्ष को समझो तभी नक्सलवाद को गहराई से जान सकोगे। तभी तुम
बस्तर के नक्सलवाद का सही विश्लेषण कर सकोगे।”
“मैंने बस्तर पर आर्टिकल लिखा था। मुझे नारायणपुर में रहते बीस साल से अधिक हो
गये। मुझे सिखाता है कि बस्तर कैसा है और मुझे क्या लिखना चाहिये।”
पत्रकारिता के हो रहे नैतिक पतन से आहत लेखक का एक व्यंग्य देखिये –“ देवी जी प्रयोग करके देखिये। आप ग़ुलाब हैं, ग़ुलाबी ड्रेस में
ख़ूबसूरत दिखती हैं। कल हमारी रिपोर्ट ले जाइयेगा और अदब से झुककर खन्ना से
मिलियेगा।”
खन्ना के केबिन से बाहर आने के बाद निधि सीधे दीपक के पास आयी और बगल में बैठ
गयी ...
”क्या हुआ ? दीपक मुस्कराया।”
“कल मैटर लग जायेगा।”
“यह मेरी लिखी हुयी लाइन का
नहीं, तुम्हारी नेक-लाइन का कमाल है।”
पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता भी बस्तर की त्रासदियों में अपनी बहुत बड़ी भूमिका
निभाती है, लेखक की यह पीड़ा कुछ इस तरह अभिव्यक्त हुयी है – “ .....इन घटनाओं में राष्ट्रीयसमाचार बनने के तत्व क्यों नहीं हैं? दिल्ली के पास साउण्ड है, कैमरा है और एक्शन है
...नौकर ने मालिक का क़त्ल किया –राष्ट्रीय ख़बर है। बाप ने
बेटी का क़त्ल कर दिया –सी.बी.आई. जाँच करेगी।
बियर-बार में क़त्ल हुआ –समूचा राष्ट्र आन्दोलन
करेगा। मानव केवल दिल्ली या कि नगरों-महानगरों में रहते हैं जिनके अधिकार हैं?”
बस्तर के सच्चे इतिहास की सदा ही उपेक्षा की जाती रही है। लेखक ने प्रश्न किया
है – “क्यों इतिहास बाबरों-अकबरों और अंग्रेजों के ही
लिखे जाते हैं? भारत देश के इतने विशाल भूभाग के प्रति ओढ़ा गया
अन्धकार क्या नक्सलियों को प्रोत्साहन नहीं है? क्या जयचन्दों और
मीर ज़ाफरों की कहानिय़ाँ ही पाठ्यपुस्तकों में परोसी जायेंगी ? क्या गुण्डाधुर, डेबरीधुर, यादव राव, व्यंकटरव, गेंद सिंह जैसे
संकल्पी और साहसी आदिवासी इतिहास के किसी पन्ने को दस्तक देने की क्षमता रख सकते
हैं? क्या यह होगा कि अगले सौ-पचास साल बाद जब बस्तर का
इतिहास लिखा जायेगा तो इसके नायक बदल चुके होंगे? अतीत के इन आदर्शों
की स्मृतियों पर लाल खम्बे गड़ चुके होंगे?”
बस्तर की जनजातीय परम्परायें अनोखी और आकर्षक रही हैं। बस्तर एक दीर्घकाल तक
शेष विश्व के लिये अबूझ रहा। बस्तर अपने घरेलू और बाहरी शोषकों के लिये उर्वर
चारागाह रहा। बस्तर एक जीती जागती प्रयोगशाला रहा। पर्यटन की दृष्टि से विश्व स्तर
का स्थान होते हुये भी बस्तर उपेक्षित रहा। बस्तर की धरती अमीर है पर इसके निवासी
सदा ग़रीब रहे। बस्तर को दूर बैठकर करीब से देखने का एक अवसर है “आमचो बस्तर”।
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