Wednesday, February 04, 2009

हजार पच्यासीवें का बाप [बस्तर में जारी नक्सलवाद के समर्थकों के खिलाफ] - राजीव रंजन प्रसाद

दिल्ली में बैठा हूँ और सुबह सुबह एक प्रतिष्ठित अखबार भौंक गया है, बस्तर के जंगलों में क्रांति हो रही है। लेखिका पोथी पढ पढ कर पंडित हैं, कलकत्ता से बस्तर देखती हैं। दिख भी सकता है, गिद्ध की दृष्टि प्रसिद्ध है, कुछ भी देख लेते हैं। वैसे लाशों और गिद्धों का एक संबंध है और कुछ लेखक इस विषय पर शौकिया लिखते हैं। 

दुनियाँ वैसे भी छोटी हो गयी है, रुदालियाँ किराये पर चुटकियों में उपलब्ध हैं। कुछ एक रुदालियाँ अपने बाँध-फोबिया के कारण जगत प्रसिद्ध हैं, जा कर उनके कान में मंतर भर फूँकना है कि फलाँ जगह बाँध बनना है पूरे दलबल के साथ रोने के लिये हाजिर। रोती भी इतनी चिंघाड चिंघाड कर हैं कि दिल्ली में बाकी काम बाद में निबटाये जाते हैं पहले इनके मुख में निप्पल डालने का इंतजाम जरूरी हो जाता है। एक आध रुदालियाँ तो लिपस्टिक पाउडर लगा कर कुछ भी बोलने के लिये खडी हैं, कैमरे में कुब्बत होनी चाहिये इन्हे बर्दाश्त कर पाने की। हाल ही में बक गयी कि कश्मीर को आजाद कर दो, जैसे इनकी बनायी चपाती है कश्मीर। डेमोक्रेसी है यानी जो जी में आया बको, न बक सको तो लिखो, न लिख सको तो किराये के पोस्टर उठाओ और शुरु हो जाओ ‘दाहिने’ ‘बायें’ थम। 

वह बुदरू का बाप था। “हजार पच्च्यासीवे का बाप” लिखूँगा तो थोडा फैशनेबल लगेगा। हो सकता है कोई बिचारे पर तरस खा कर पिच्चर-विच्चर भी बना दे। मौत तो कई गुना ज्यादा हुई हैं और कहीं अधिक बरबर, फिर भी आँकडे रखने अच्छे होते हैं। आँकडे मुआवजों से जुडते हैं, आँकडे हों तो मानव अधिकार की बाते ए.सी कॉंफ्रेस हॉल में आराम से बैठ कर न्यूयॉर्क में की जा सकती हैं। हजार पच्च्यासीवें का बाप सरकारी रिकार्ड में इसी नम्बर की लाश का बाप था। वह इस देश में चल रही क्रांति के मसीहाओं के हाँथों मारा गया एक आदिम भर तो था। उसके मरने पर कौन कम्बख्त बैठ कर उपन्यास लिखेगा? 

उपन्यास लिखने के लिये बुदरू को कम से कम मिडिल क्लास का होना चाहिये, वैसे यह आवश्यक शर्त नहीं है। आवश्यक शर्त है उसका चक्कर वक्कर चलना चाहिये। रेस्टॉरेंट में बैठ कर पिज्जा गटकते हुए उसे लकडी, हथौडा, पत्थर, मजदूर, यूनियन, मार्क्स और लेनिन पर सिगरेट के छल्ले उडाते हुए डिस्कशन करना आना चाहिये। ‘केरेक्टर’ के पास होनी चाहिये एक माँ, जमाने की सतायी हुई। आधी विक्षिप्त टाईप, जिसके चश्मे का नम्बर एसा होना चाहिये कि चींटी देखो तो हाँथी दिखायी पडे। उसकी माँ का एक हस्बैंड होना चाहिये, एकदम मॉडर्न। हस्बैंड का कैरेक्टरलैस होना सबसे जरूरी शर्त है। उसकी बहन वहन हो तो उसका प्री-मैरिटल या आफ्टर मैरिटल अफैयर होना आवश्यक है। उपन्यास इससे रीयलिस्टिक लगता है।.....। एसे घरों के बच्चे सनकी या रिबेल नहीं होगें क्या? यह सवाल उपन्यासकार/कारा से नहीं पूछा जाना चाहिये चूंकि कई “लेखक यूनियनों” द्वारा श्री श्री पुरस्कृत हैं इसलिये जो लिख जायें वह ‘क्लास’। अर्थात एसे महान घरों से क्रांतिकारी जन्म लेते हैं। अपने बाप के खिलाफ बोलते जिनकी पतलून गीली होती रही वे इस देश को बदलेंगे। अच्छा है, हममें तो इतना गूदा नहीं कि एसे प्लॉट्स को बकवास कह सकें। इस लिये बिचारा हजार पच्च्यासीवे का बाप किसी उपन्यास का विषय नही बन सकता यह तो तय हो गया। लेकिन यह तो किसी नें नहीं कहा कि बाप पत्थर दिल होते हैं, फिर बुदरू का मुडी हुई टाँगों वाला, केवल एक गमछे में अपने वदन को ढके हुए इस तरह पत्थर बना क्यों खडा है?

यह हजार पच्च्यासीवी लाश अदना पुलिस के सिपाही की है। पुलिस का सिपाही यानी कि सिस्टम का हिस्सा। जंगल में दुबके ‘क्रांतिकारियों’ का फिर तो हक बनता है कि इसकी लाश एसी बना दें कि बुदरू की धड में सुकारू का हाथ मिले और सोमारू की गर्दन। खोज खोज कर भी तीन चौथाई ही बटोरा जा सका था वह। पर इस बात के लिये सहानुभूति क्यों? बुदरू का बाप अपने बेटे की लाश पहचाने से इनकार नहीं करता, शर्मिन्दा नहीं होता केवल खोज रहा है उसे पसरी हुई बोटियों में। बुदरु बिचारे की तो कोई तस्वीर भी नहीं और इस हजार पच्च्यासीवें के बाप के पास एसी कोई पक्की दीवाल भी नहीं थी जिस पर तस्वीर जैसी कोई चीज लगती। बुदरु पर लिखने के लिये कोई अखबार तैयार भी नहीं और कोई अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का हराम का पैसा उसकी शोक शभा आयोजित करने में लगा भी नहीं है। वह कोई खुजेली दाढी वाला नहीं कि गिरफ्तार भी होता तो अमरीका से श्वेतपत्र जारी होता, चीन आँसू बहाता, कलकता में राईटर्स लिखते और दिल्ली में कठपुललियाँ नाचतीं। उस पर आंन्दोलित होने वाली कोई रुदाली भी नहीं, वे निर्जज्ज कफन खसोंट हैं, व्यापारी हैं, आतंकवाद समर्थक हैं और बददिमाग भी। हजार पच्च्यासी तो कहिये ज्ञात आँकडा हुआ, लेकिन अनगिनत मौते, लाशे जिनका कोई हिसाब नहीं उनके लिये किसका स्वर बुलंद हुआ है इस एक अरब की आबादी वाले देश में? कहाँ से होगा बुलंद, दुनिया जानती है कि आज आवाज उठाने वाले “पेड” हैं, तनखा पाते हैं इस बात की, जोंक हैं.....काहे की लडाई, कौन सा आंदोलन, कैसी क्रांति? कौन सा व्यवस्था परिवर्तन? बस्तर के आदिमों की लाश पर दिल्ली की सरकार बदल जायेगी, हास्यास्पद। और यह कोई बताये कि दिल्ली, कलकता, चेन्नई, मुम्बई में क्या समाजवाद है, वहाँ शायद एसी लडाईयों की आवश्यकता ही नहीं? वहाँ कोई शोषण नहीं, कोई वर्गविभेद नहीं कोई सामाजिक असमानता नहीं राम राज्य है (साम्प्रदायिक स्टेटमेंट न माना जाये)। लडो भाई, क्रांति करो, भगत सिंह नें कब बस्तर के जंगल में बम फोडा? चंद्रशेखर आज़ाद कब दंडकारण्य में छिप कर लडते रहे? सुभाष नें कब दंतेवाडा चलो का नारा दिया? बटुकेश्वर दत्त को कब आई.एस.आई या कि लिट्टे से हथियार मिले? इनके समर्थन में तो को डाक्टर भी अपनी पोटली ले कर नहीं उतरा न ही रुदालियों नें सिर पीटा, इन महान क्रांतिकारियों पर तो लिखने वालों के कलेजे ही दूसरी मिट्टी के बने थे। खैर तब लेखक यूनियनों में किसी पार्टी-वार्टी के कब्जे भी नहीं होते होंगे कि कुछ भी लिखो पीठ खुजाया जाना तय है। लाल-पीले छंडे की विचारधारा पोषित करते रहो, किताबों के अंबार लगवाओ, रायलटी की बोटी चूसो। इस फिक्सड रैकेट में लेखन कहाँ है? 

हजार पच्च्यासीवीं लाश को गठरी में संभालता वह बाप जानता था कि वह अकेला है, अकेला ही रोयेगा और अकेला ही रह जायेगा। उसके बेटे के कोई मानवाधिकार नहीं, उसका बेटा मानव था भी नहीं, या कभी समझा नहीं गया। उसका बेटा खबर बनने लायक भी नहीं था चूंकि अखबार लिखता है “जंगल में बारूदी सुरंग फटी- आठ मरे”। यह हजार पच्च्यासीवी लाश उन्हीं आठ अभागों में से एक की थी, जिन्हे कुत्तों की तरह मारे जाते देख कर भी रायपुर में सम्मेलन होते हैं फलां सेन को रिहा करो, फलां फलां जगह सरकारी दमन है, फलाँ फलाँ शिविरों में घपले हैं...यहाँ एक विश्वप्रसिद्ध रुदाली की बात करनी आवश्यक है। माननीया को “बाँध-फोबिया” की प्रसिद्ध बीमारी है। पार्ट टाईम में किसी भी पंडाल में लेक्चराती नजर आती हैं, समस्या उन्हे समझ आये तब भी, न समझ आये तब भी, वे खुद वहाँ समस्या हों तब भी। कोई विकास कार्य हो रिहेबिलिटेशन और रिसेटिलमेंट (पुनर्स्थापन और पुनर्वास) पर इनकी थ्योरियाँ सुनी जा सकती हैं। पिछले कई सालों, विशेषकर पिछले पाँच सालों में ही नक्सली हिंसा (महोदया द्वारा मानकीकृत क्रांति) में हजारो हजार आदिवासी अपने घर, जमीन, संस्कृति और शांति खो कर सरकारी रहम पर जी रहे हैं। माननीया आपकी दृष्टि इनपर पडती भी कैसे? इनके बारे में सोच कर किसी फंड का जुगाड शायद नहीं था? खैर आपकी विवशता समझी जा सकती है, आप जगतप्रसिद्ध विकास विरोधी ठहरीं, यहाँ आपके मन का ही तो काम जारी है। इन महान क्रांतिकारियों के फलस्वरूप सडकें नहीं बनती, बिजली बंद है, स्कूलों में ताले हैं बस्तियाँ खाली हैं....जय हो, आपका मोटिव तो सॉल्व है। रही आर एण्ड आर की बात तो जंगल से बेहतर आपके क्रांतिकारी कहाँ सुरक्षित थे तो आदिवासियों के सबकुछ लूटे जाने का सार्वजनिक समर्थन कीजिये। वैसे भी बस्तर आपकी समझ आने से रहा, आपकी कुछ भी समझ आने से रहा। यह विक्षिप्ति की दशा में बहुदा होता है.... 

हजार पच्च्यासीवे का बाप सब कुछ लुटा चुका है। बेटा पढ लिख गया, शायद इसी लिये “रुदाली-कम्युनिटी” को खटक गया। उसे व्यवस्था का हिस्सा मान लिया गया। आदिम तो जानवर ठहरे इन कलमघसीटों की निगाहों में? बस्तर बहुतों को मानव संग्रहालय बना ही ठीक लगता है, इन आदिवासी युवकों को कोई अधिकार नहीं कि मुख्य धारा में आयें। किन परिस्थितियों से निकल कर बुदरू मुख्यधारा में जुडा कोई नहीं जानता। बीमारी उसकी माँ को लील गयी चूंकि गाँव में अस्पताल नहीं (अब बनेंगे भी नहीं, यहाँ क्या डाक्टर मरने को आयेंगे? सुना है क्रांतिकारियों को अवश्य कुछ प्राईवेट डाक्टरों की सेवायें मानव अधिकार सेवा के तहत प्राप्त हैं/थीं/होंगी)। उसके पिता को अब जंगल निषेध है, अपनी जमीन, अपने ही घर गया तो पुलिस का मुखबिर घोषित कर मारा जायेगा, क्रांतिकारियों का इंसाफ है भाई। महान लेखिकायें कहती हैं कि क्रांतिकारी बहुत इंसाफ पसंद होते हैं, अपनी अदालतें लगवाते हैं, खुद ही जज और जनाब खुद ही वकील और सजा भी क्रांतिकारी। तालिबान शरमा जाये, एसी सजायें....। मारो, इस हजार पच्यासीवी लाश के बाप को भी मारो।...। मर तो यह तब ही गया था जब इसकी बेटी महान क्रांतिकारियों के हवस का शिकार हुई, फिर अपहृत भी, अब एसा समझा जाता है कि अब किसी समूह में क्रांतिकारियों के जिस्म की आग को अपनी आहूति देती है। क्रांतिकारियों के जिस्म नहीं होते क्या? उनकी भी तो भूख है, प्यास है फिर इसमें गलत क्या है? ये कोई भगत सिंह तो नहीं कि शादी इस लिये नहीं की कि जीवन देश को कुर्बान। अब जमाना बदल गया है, अब भगत सिंह बन कर तो नहीं रहा जा सकता न? जंगल में पुलिस का डर नहीं और डर के मारे आधे पेट खाने वाले ग्रामीण भी इनके लिये अपने मुर्गे, बकरे खून के आँसू पी पी कर काट रहे है, एक क्रांति के लिये सारी खुराक उपलब्ध है भीतर। और क्या चाहिये?

हजार पच्यासीवे का बाप मीडिया की नजरों में नहीं आयेगा। बिक नहीं सकेगा। वह सनसनी खेज कहानी नहीं बन सकता। वह केवल एक लाश का बाप भर तो है और इस प्रकार की मौत कोई बडी घटना नहीं होती। बडी घटना होती है किसी नक्सली के पकडे जाने पर उससे पूछताछ, एसा करने पर मानवाधिकार का हनन होता है और विश्व बाईनाकुलर लगा कर जंगल में झांकने लगता है। मर भाई बुदरू, तेरा और तेरे जैसों का क्या? तू तो सिस्टम है, तुझे ही तो मिटाना है, तभी क्रांति की पुखता जमीन तैयार होगी। न रहेंगे आदिम जंगल में, न रहेंगे मुखबिर, न होगी एश में खलल। तुम्हारा तो एसा “लाल सलाम” कर दिया कि कोई और बुदरू वर्दी पहने तो रूह काँप उठे।...। जलाओ इस हजार पच्चीसवी लाश की गठरी को और एक और कहानी का खामोश अंत हो जाने दो। 

हजार पच्च्यासीवी लाश के इस बाप का एपेंडिक्स नहीं फटेगा। कहानी का एसा अंत उसके नसीब में नहीं। उसकी किसमत में सलीब है।...। वह तो जानता भी नहीं कि व्यवस्था का हिस्सा उसका बेटा समाज और इंसानियत का इतना बडा दुश्मन था कि उसके खिलाफ बडे बडे बुद्धिजीवी और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी लामबंद है। काश वह देख पाता यह सब कुछ, काश वह जान पाता, काश वह सोच पाता, काश वह लड पाता...।....। एक लडाई आरंभ तो हुई थी। सलवा जुडुम एक आन्दोलन बन कर खडा भी हुआ था लेकिन इस अभियान के पैर भी एक साजिश के तहत तोड दिये गये। बस्तर को औकात में रह कर जीना सीखना ही होगा, वह कोई होटल ताज नहीं कि उसके जख्म देश भर को दिखाई पडें और फिर यहाँ तो कातिल नहीं होते, आतंकवादी नहीं, यहाँ खालिस क्रंतिकारी पाये जाते हैं। जोंक, कम्बख्त.....
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21 comments:

vijay kumar sappatti said...

rajeev ji , kya jabardasht likha hai .. mujhe is lekh men bhilai ke krantikaari ki jhalak dikh rahi hai [ i am forgetiing his name , he was killed ]
yaar , ise "sahitya shilpi ' publish karo .. this article needs wide attention.. and its is really thought provoking article..

bahut umda lekhan ..
badhai ..
[ise newspaper men bhi bhejiyenga ]

Anil Pusadkar said...

तारीफ़ के लिए शब्द नही है मेरे पास राजीव्।बस इतना कह सकता हूं की इस तरह मैं भी लिख सकूं तो अच्छा रहेगा।लिख तो सकता हूं मगर शायद तुम्हारे जितनी हिम्मत नही है।बहुत-बहुत बधाई।

रंजना said...

विजय जी की बात से पूर्ण सहमत हूँ........इस लेख को व्यापक पाठक वर्ग तक पहुँचाना चाहिए......

बहुत बहुत जबरदस्त लिखा है आपने.....आपका कोटिशः धन्यवाद...इन मसलों पर कितने लोग हैं सोचने वाले ?
यदि यह सोच व्यापक विस्तार पाए,तो आशा की जा सकती है कि भविष्य में इसपर किसी तरह का लगाम लग सकता है.

सौ फीसदी सच लिखा आपने....क्रांति के नाम पर विभिन्न झंडो तले, आज क्या हो रहा है,तथाकथित क्रांति और क्रांतिकारियों का सच सबके सामने आना ही चाहिए.........और मिडिया की क्या कही जाय..जैसे राजनेताओं से किसी अच्छे सोच या कार्य की उम्मीद नही रखी जा सकती वैसे ही इससे भी कोई उम्मीद रखना मूर्खता है.

Unknown said...

एक लडाई आरंभ तो हुई थी। सलवा जुडुम एक आन्दोलन बन कर खडा भी हुआ था लेकिन इस अभियान के पैर भी एक साजिश के तहत तोड दिये गये। बस्तर को औकात में रह कर जीना सीखना ही होगा, वह कोई होटल ताज नहीं कि उसके जख्म देश भर को दिखाई पडें और फिर यहाँ तो कातिल नहीं होते, आतंकवादी नहीं, यहाँ खालिस क्रंतिकारी पाये जाते हैं। जोंक, कम्बख्त.....

आवाक हूँ।

Anonymous said...

वाह राजीव जी...क्या प्रतिक्रिया दिया जाए आपके आलेख पर ??? अब अपन उन 22 कथित नोबेल विजेताओं की तरह तो हूँ नहीं जिसको सारी की सारी बस्तरिया खबर अपने अपने दरबे मे बैठ कर ही पता चल जाती....वास्तव मे समझने का प्रयास कर रहा हूँ आपकी भावनाओं को,बातो को....शानदार अभिव्यक्ति.

महावीर said...

आपका लिखने का ढंग वास्तव में बहुत ही प्रभावशाली है। विजय जी ठीक कह रहे हैं कि इसे 'साहित्य शिल्पी' में प्रकाशित करना चाहिए।

निशाचर said...

राजीव जी आपकी की लेखनी की धार अत्यंत पैनी है वह सहृदयों के दिल पर तो अपने निशान छोड़ जाएगी परन्तु क्या उन पिशाचों को भी कुरेद सकेगी??? उनके लिए तलवार की आवश्यकता है जो उनके सीने को चाक कर सके, परन्तु देश का आरामपसंद और बेजान मध्यमवर्ग गहरी नींद में है. वह तभी जागेगा जब उसके ऐन नीचे धमाका होगा. तब तक आप कलम रगड़ते रहिये.

Ashok Kumar pandey said...

घटिया भाषा और पूर्वाग्रह की चरम अभिव्यक्ति।
लैपटापी शहरी मध्यवर्ग के सुविधाभोगी लेखकों (?) से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। लिप्स्टिक वाला फ्रेज़ शायद सीधे उधार लिया गया है नक़वी साहब से। आपके ब्लाग पर प्रेम पचीसी लिखने वाली कवियत्रिया(?)शायद फटे पुराने वष्त्रो मे रहती है।
भगत सिंह का नाम लिया है आपने…नौजवानो के नाम अपने अन्तिम पत्र मे उन्होने साफ़ लिखा है कि उन्हे गावों ,खेतों और फैक्ट्रियों मे जा कर क्रान्ति की अलख जगानी चाहिये। लेकिन आप उन्हे क्यो पढेगे वे विदेश मे बसे बुद्धिजीवी तो है नही।
कुछ घटनायें हो सकती है पर पूरे वाम्पन्थ को बदनाम करने के लिये इसके प्रयोग ने आपका असली मन्तव्य साफ़ कर दिया है।
हाँ इसे रमन सिह जी और सलवा जूडूम वाले महेन्द्र कर्मा जी को ज़रूर पढवाईये। अगला पुरस्कार पक्का।

Akanksha Yadav said...
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Akanksha Yadav said...

बहुत सुन्दर लिखा आपने, बधाई.
कभी मेरे ब्लॉग शब्द-शिखर पर भी आयें !

विश्व दीपक said...

राजीव जी,
बहुत सही लिखा है आपने। भाषा कैसी है, इस पर विवाद होना हीं नहीं चाहिए, क्योंकि अगर कोई गोली चलाए तो आप सुसंस्कृत भाषा में उसका विरोध नहीं कर सकते। और हर किसी को अपने क्षेत्र के बारे में सोचने, विचार व्यक्त करने और कुछ कदम उठाने का हक़ है, जिसे कोई भी "पंथ" नहीं छीन सकता।

बस्तर में जो हो रहा है, राजीव जी ने बस उसकी झलक दिखाई है, सच्चाई इससे कई गुणा घिनौनी हो सकती है और बस्तर हीं क्यों और भी कई ऎसे जगह हैं, जहाँ के उग्रवादियों(कुछ लोगों को इस नाम से बुरा लग सकता है) को क्रांतिकारियों की संज्ञा देने वाले लोगों की कमी नहीं है। रही बात "भगत सिंह" की तो भगत सिंह ने कोई भी कथन "नक्सलियों" को संबोधित कर तो नहीं हीं कहा था, उन्होंने तब कहा था जब देश गुलाम था और देश को आज़ाद कराने के लिए हर किसी को उठने की जरूरत थी ताकि क्रांति की अलख जग सके। अब तो ऎसी हालत हो गई है कि किसी को भी मार गिराओ,आवाज़ उठाने और अलख जगाने का दम भरो और तब भी खुश न हो सको तो भगत सिंह, आज़ाद को बीच में घसीट लो। क्रांति और विकृति में कोई फर्क तो रखो भाई!!

-विश्व दीपक

किरण said...

यदि देश की आज़ादी के बाद गोरे अन्ग्रेज़ो की जगह काले अन्ग्रेज़ सत्ता मे आ गये तो युवाओ को फ़िर से क्रान्ति की शुरुआत करनी पडेगी।
भगत सिन्ह

आप लोग अगर उनके लेख पढ ले तो शायद ज़्यदा बेहतर बात कर सकेन्गे।

तस्वीर के दोनो पहलू देखिये। नक्सलवादी आसमान से नही टपके। व्यवस्था के अन्याय ने उन्हे इस रास्ते पर ढकेल दिया। आज पुलिस किसी को भी उठा कर नक्सलवादी बना देती है। डा विनायक सेन का क़िस्सा लीजिये। पर उस पर आप क्यूँ लिखने लगे। हिम्मत चाहिये होती है।

देश के आज़ाद होने का मतलब यह नही कि अन्याय खत्म हो गया। हिन्सक विरोधो की मै समर्थक नही।पर विवेचना होनी चाहिये।
यह लोक्तन्त्र ही है कि एक अदना सा ब्लागर महाश्वेता जी जैसी उम्रद्राज और सम्मनित लेखिका पर इतनी गन्दी भाषा मे कीचड उछाल रहा है। भोंकना शब्द का प्रयोग आपको शोभा देता है क्या?
याद दिला दूँ कि वही महाश्वेता देवी नन्दीग्राम पर वाममोर्चा सरकार का विरोध सडक पर आकर करती है।
वरिष्ठ लेखको की आलोचना भी एक सन्यत तरीके से करनी चाहिये। इतना अभिमान सिर्फ अज्ञान से उपजता है। बच सके तो बेहतर है।

नंदन said...

किरण नामधारी नो प्रोफाईल जी। ताकत चाहिये सच लिखने के लिये। अदना सा ब्लॉगर क्या होता है? और कीचड आपमें देखने की ताकत नहीं। कभी बस्तर गये नहीं होंगे आप। मेरी पाँच साल बस्तर में पोस्टिंग रही है और जिस अदने से ब्ळोगर की बात आप कर रही हैं बस्तर उनकी मातृभूमि है। लेखक हो जाना भगवान हो जाना नहीं होता। मेरा संदेह है कि छद्म नाम से आप अशोक ही हैं न भी हों तो फर्क नहीं पडता। आदिवासी के दर्द की बात किसी नें की तो बर्दाश्त नहीं हुई? नहीं होगी आपको। जिस मार्क्सवाद का झूठा लेबल लगा कर साहित्य का कूडा किया गया है वही समाज का कचरा भी कर दे तो आश्चर्य नहीं होगा। सेन के बहुत से किस्से छतीसगढ के अखबारों में पढें हैं। जिसे आप अभिमान कह रहे हैं वह दर्द है जिसे वही समझ सकता है जिसमें संदर्भ को समझने की अक्ल हो। बस्तर में आदिवासियों की अपनी पीडा है जिसे आवाज देने वाले दो एक ही हैं और राजीव बहुत समय से एसा कर रहे हैं। उनके इस संदर्भ के तमाम प्रकाशित (विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में) आलेख और प्रपत्र पढें। नक्सल आकाश से नहीं टपके होंगे लेकिन बस्तर को उनकी आवश्यकता नहीं है यह बात अभी उतनी ही सच है। भगत सिंह के आलेख को बार बार गलत संदर्भ में क्यों लाते हैं आप (?) बस्तर के आदिवासी अंग्रेज नहीं हैं और ध्यान से पढें यह लेख उनके दर्द को प्रस्तुत करता है और आदिवासियों के दर्द क्प प्रदर्शनी बनाने वालो की खिलाफत करता है। राजीव जी लिखते रहें...लाल कौम का काम यही है जो ये कर रहे हैं। आपने लिखा है अखबार भौंक गया है और समझ के कहने क्या। यह आलेख महाश्वेता से संबद्ध भी नहीं है बल्कि नक्सल की पृष्टभूमि में लिखे एक उपन्यास की आद ले कर यह कहना चाहता है कि आदिवासी का दर्द और उसकी कहानी उन आतंकवादियों से अधिक दर्द भरी है इसपर भी किसी 'महान' लेखक की निगाह जाये।

योगेन्द्र मौदगिल said...

बेशक...... नंदन जी से सहमत हूं....... और राजीव जी, मैं उस दिन न आ पाया. लगता है आप नाराज़ हो गये..... खैर..

किरण said...

प्रोफ़ाईल ना होना तकनीकी मज़बूरी भी हो सकती है।
मेल आई डी लीजिये
Pkiran34@gmail.com

बस्तर जन्मभूमि होने से अदना सा ब्लागर महाश्वेता जी से बडा नही हो जाता। एक ही अनुभव भूमि से अलग अलग लोग पैदा होते हैं - अलाहाबाद से हर आदमी निराला नही होता। एक ही घर मे एक व्यक्ति लेखक बन जाता है तो दूसरा अनपढ रह जाता है। सवाल है कि अनुभव को व्याख्यायित कैसे किया जाता है। एक उदाहरण देती हूँ आप अक्लवाले है पढा ही होगा। मार्ग्रेट मिशेल का उपन्यास है - गान विथ द विन्ड्। अमेरिका मे उत्तर और दक्षिण के लोगो के सन्घर्ष पर लिखा। बेस्ट सेलर रहा अपने ज़माने मे। पिच्चर उच्चर भी बनी है। इसमे गोरे लोगो और कू क्लक्स क्लैन की पक्षधरता है। उस लडाई को उन्होने भी देखा था और जार्ज वाशिन्गटन ने भी। जिसकी जैसी समझ! जाकी रही भावना जैसी'''

बस्तर के आदिवासी अन्ग्रेज़ नही हैं पर वहाँ का प्रशासन ज़रूर अन्ग्रेज़ो की ही हर परम्परा का है। अगर इतना आधार है नक्सलवाद विरोध का तो सलवा जुडूम के नायक चुनाव क्यों हार जाते हैं ? और एक बात बहुत साफ़ है अगर जनता के बीच कोई आधार ना हो तो कोई सन्गठन केवल आयातित लोगो के भरोसे लम्बे समय तक कही नहीं रह सकता। नक्सलवाद ने जैसे हिन्सा को ही अन्तिम प्राप्य बना लिया है, निश्चित रूप से उसने अपने लिये गढ्ढा ही खोदा है पर यह भी सच है कि इसके लिये आधार इस जनविरोधी व्यवस्था से ही मिला है

और सहब आपकी समझ और नज़र के क्या कहने जिसे यह लेख महाश्वेता जी से असम्बद्ध लगता है। इस अक्ल पर कौन ना बलिहारी जाये हूज़ूर्। हज़ार चौरासिवे की मा से इस लेख के शीर्षक का क्या लेना देना--है ना? जब आख पर परदा हो तो अक्लवाले कुछ भी देख सकते हैं ।

अखबार भोन्क गया है मैने नही आपके आदर्श लेखक ने लिखा है। और उस अखबार मे भोन्कना किसे कहा गया है? एक लेख को। लेख किसने लिखा है?लेखिका जो कोलकाता से बस्तर देखती है? यानि…ऽक्ल के पत्थर हटाइये लेखिका को पहचान जायेन्गे। इसमे गिद्ध और जोड दीजिये तो वो पत्थर अपनी सम्वेदना पर ज़्ज़रूर महसूस कर पायेन्गे।

आप कहाँ कहाँ गये हैं आपके नाम से ज़ाहिर नही होता…मेरे नाम से भी नही। अन्दाज़ा लगाने के लिये शुक्रिया।

वैसे कहिये तो यह भी बताउ की रूदाली कौन है? तब मालवा के किसानो और आदिवासियो को लेकर कोई दर्द नही जागा इस ब्लागर को?

और गम्भीर बातो का ठेका सिर्फ़ पुरुषो का नही है। मै महिला हू।

नंदन said...

किरण जी ब्ळोगर बस्तर का है और अपना घर अच्छी तरह जानता है। महाश्वेता जी महान हैं महान रहें इससे किसको मतलब है या यहाँ इसपर चर्चा है। वहाँ केवल सलवाजुडुम के नायक ही नहीं हारते कम्युनिष्ट कुंजाम भी हार जाते हैं। बुदरू के बाप की संवेदना के खिलाफ और बस्तर में रोज मारे जा रहे हजारों हजार बुदरुओं के समर्थन मे खडे लोग भर्तसना के पात्र हैं और लेखक नें अपना धर्म निभाया है। मालवा का लेखक मालवा का दर्द इतना ही सुन्दर लिख सकता है जितना राजीव भाई नें बस्तर के आदिवासियों का दर्द लिखा है।

डॉ महेश सिन्हा said...

Bastar ko to Raipur mein baith kar nahi samjha jaa sakta dilli to bahut door hai.

Ye jaanana is desh ke liye bahut jarrori hai ki kaun hai iske peeche jinki pahuch america aur noble prize winner tak hai.Saath hi inhe waam dalon ka bhi saath hai.

Kiranji se jaanana chahunga doctor vinayak sen ka sach, kya jaankari hai unhe is baare mein.

cg4bhadas.com said...

bahut aakarshk hai bahut bahiya

Gaurav M said...

Bastar aadivaasiyon' ka dard abhivyakt karne kii bharpoor koshish.. It reminds me of the days when you were used to go to the jungle to meet the aadivaasii ppl.

:)

mukesh said...

"शिद्दते गम को तबस्सुम से छिपाने वाले
दिल का हर राज नजरे वया करती है."
वेशक राजीव जी,
आपके ब्लाँग पर आपके शब्दो से रू-ब-रू होते ही मेरा हौसला काफी बढ गया. ईश्वर आपको वर्ष2010 मे और नये तेवर,और एक नये इरादे प्रदान करे.फिलहाल,नव वर्ष की ढेर सारी मंगलकारी शुभकामनाओ सहित
आपका
मुकेश कुमार किन्नर

mukesh said...

"शिद्दते गम को तबस्सुम से छिपाने वाले
दिल का हर राज नजरे वया करती है."
वेशक राजीव जी,
आपके ब्लाँग पर आपके शब्दो से रू-ब-रू होते ही मेरा हौसला काफी बढ गया. ईश्वर आपको वर्ष2010 मे और नये तेवर,और एक नये इरादे प्रदान करे.फिलहाल,नव वर्ष की ढेर सारी मंगलकारी शुभकामनाओ सहित
आपका
मुकेश कुमार किन्नर