Wednesday, May 23, 2007

तरक्की


सभ्यता व्यंग्य से मुस्कुराती है
जंगल के आदिम जब "मांदर" की थाप पर
लय में थिरकते हैं
जूडे में जंगल की बेला महकती है
हँसते हैं, गुच्छे में चिडिया चहकती है
देवी है, देवा है
पंडा है, ओझा है
रोग है, शोक है, मौत है
भूख है, अकाल है, मौत है..
फिर भी यह उपवन है
हँसमुख है, जीवन है

करवट बदलता हूँ अपनी तलाशों में
होटल में, डिस्को में, बाजों में, ताशों में
बिजली के झटके से जल जाती लाशों में
भागा ही भागा हूँ
पीछा हूँ, आगा हूँ
जगमग चमकती जो
दुनियाँ महकती जो
उसके उस मौन को
मैं हूँ "क्या" "कौन्" को
उस पल तब जाना था
जबकि कुछ हाँथों नें मस्जिद गिराई थी
राम अब तक घुटता है भीतर मेरे
फिर कुछ हाँथों नें मंदिर जलाया था
रहीम के चेहरे में अब भी फफोले हैं

देखो तो आईना हँसता है मुझपर
सभ्यता के लेबल पर, मेरी तरक्की पर
हम्माम में ही आदमी का सच नज़र आता है
दंगा एसा ही गुसलखाना है मेरे दोस्त
अपनी कमीज पर पडे खून के छींटे संभाल कर रखना
कि दंगा तो होली है,
हर बार नयी कमीज क्यों कर खराब करनी?

तरक्की का दौर है, आदमी बढा है
देखो तो कैसा ये चेहरा गढा है
उपर तो आदम सा लगता है अब भी
मुखडा हटा तो कोई रक्तबीज है
नया दौर है, सचमुच तरक्की भी क्या चीज है...

*** राजीव रंजन प्रसाद
२८.०१.२००७

2 comments:

Mohinder56 said...

रंजन जी,
सत्य के चेहरे से नकाब उठा दी है आप ने इस कविता के माध्यम से

तरक्की का दौर है, आदमी बढा है
देखो तो कैसा ये चेहरा गढा है
उपर तो आदम सा लगता है अब भी
मुखडा हटा तो कोई रक्तबीज है
नया दौर है, सचमुच तरक्की भी क्या चीज है...

यही सत्य है कि आदमी अपने स्वार्थ के लिये किस हद तक गिर सकता है..इसका को परिमाण नही है

श्रवण सिंह said...

???? ???? ?? ??? ??? ?? ????? ????? ?? ????
?? ???? ?? ???? ??,
?? ??? ??? ???? ????? ?? ???? ?????
....... !
???? ?? ??? ??
??? ??? "????" "????" ??......!

i m speechless n mesmerised...

'ek adim bharat ki naye india ke sath juxtaposition...' ,ya shayad 'hum aur main ke virodhabhaso se joojhte hum...

kya kewal sabhyata ka vikas hi jimmeawr hai?... hamari soch hi dushit hai... existentialism ko hum poojte hain( sadhna) aur individualism (swarth) ko denounce karte hain... dogle ho gaye hain hum.... aur raqtbeez sabhyata me doondhne ki jaroorat ka to pata nahi... par 'we' feeling ke sanharak hum hi hain.. and u better know apna population kaisi teji se badhte ja raha hai...

hamne apne hum ko chhod diya,
hum me phir hum nahi raha...
hamara hum dhuan ho raha tha,
mera main bhi wahi kho gaya..!

jabardust thoughts hain dost.

regards
shrawan