मन का अपक्षय
आहिस्ता आहिस्ता
मुझको अनगिनत करता जाता है
नदी मेरे अस्तित्व से नाखुश है
और मुझे महज इतना ही अचरज है
इतना तप्त मैं
टूटता हूं पुनः पुनः
मोम नहीं होता लेकिन..
निर्निमेष आत्मविष्लेषण
एकाकी पन
एकाकी मन
और तम गहन..गहनतम
अपने ही आत्म में हाथ पाँव मारती आत्मा
दूरूह करती जाती है प्रश्न पर प्रश्न
और उत्तर तलाशता मन
क्या निचोड कर रख दे खुद को
फिर भी महज व्योम ही हासिल हो तब..
मन मुझे गीता सुनाता है
सांत्वना देता है कम्बख्त.."नैनम छिंदन्ति शस्त्राणि"
और जाने कौन अट्टहास करता है भीतर
और मन में हो चुके सैंकडो-सैंकडो छेद
पीडा से बिफर पडते हैं
दर्द और दर्द और वही सस्वर "नैनम दहति पावकः"
क्या जला है
क्या जल पायेगा?
और टुकडे टुकडे मेरे अस्तित्व के
अनुत्तरित बिखरते जाते हैं,बिखरते जाते हैं ,बिखरते जाते हैं..
*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.०६.१९९५
2 comments:
It was outstanding rajiv jee
kya baat hai Rajiv ji...
Bahut hi pyari rachna likh di hai aapne
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