Wednesday, July 10, 2013

लालबुझक्कड बूझगे और न बूझे कोय!!


[बस्तर की दरभा घाटी की लाल-आतंकवादी घटना पर एक और दृष्टिकोण] 
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 28 मई 2013 की सुबह; सड़क एकदम सूनसान थी। बचेली से बारसूर की तरफ बढ़ते हुए बार बार ध्यान सड़क के दोनो ओर गिराये गये पेड़ों की तरफ जा रहा था। 25 मई को बस्तर की दरभा घाटी में हुई लाल-आतंकवादी घटना समय ही सुकमा से बचेली और गीदम पहुचने वाले दोनो ओर के मार्गों पर बड़े बड़े पेड़ काट कर गिराये गये थे। सरसरी निगाह से देखने पर ही यह समझा जा सकता है कि दरभा घाटी में हुआ मौत का भयानक ताण्डव अगर वहाँ नहीं होता तो भी टलता नहीं। कॉग्रेस की परिवर्तन यात्रा के जाने के प्रत्येक मार्ग अवरुद्ध किये गये थे और पेडों को महेन्द्र कर्मा के गृहनगर ‘फरसपाल पहुँच मार्ग’ से कहीं आगे तक काट काट कर गिराया गया था जिससे कि वारदात के समय गाडियों के चक्के जाम रहें। जैसे ही हम कुछ और आगे बढे एक पेड पर चिपाकाया गया पोस्टर नज़र आया। पोस्टर में महेन्द्र कर्मा की नृशंस हत्या के बाद अब सलवा जुडुम के नेताओं को जान से मारने की धमकी दी गयी थी साथ ही ऑपरेशन ग्रीन हंट के लिये मुर्दाबाद था। ऑपरेशन लाल हंट वालों को हर तरफ से अपने ही हंट की चिंता है यह बात इस पोस्टर की विवेचना से स्पष्ट है। सलवा जुडुम भले ही अब समाप्त हो गया हो लेकिन उसके नेताओं से बदला लिया जाना है जिससे कि आदिवासी कभी भी माओवादियों के खिलाफ सिर न उठा सकें और दूसरी बात कि उनके खिलाफ चलाया जा रहा तथाकथित अभियान बंद हो जिससे कि वे निष्कंटक अपना आधार इलाका बढा सकें और समूचे बस्तर को सुरसा मुख में निमग्न कर उसका लाल-सलाम कर दें। हमारे यहाँ दिल्ली से नौटंकीबाज समाजसेवियों की खूब सुनी जाती है तो चलिये उनकी ही जनपक्षधरता के नारों का ग्राउंड जीरो में खोखलापन देखें। दंतेवाड़ा को बचेली से जोड़ने वाला शंखिनी नदी पर अवस्थित एक पुल दोनो ओर से चार स्थानों से लगभग काट दिया गया था जिससे कि आवागमन पूरी तरह बाधित हो जाये। वाम डिक्शनरी से अर्थ निकाल कर इस बात को सामान्य करार देते हैं चूंकि सड़क तो केवल पूंजीपति और मध्यमवर्तीय लोगों की थाती है आम आदिवासी तो सड़क का उपयोग ही नहीं करता होगा? हो सकता है दिल्ली से एसा ही दिखता हो तो परे कीजिये इस बात को और यहाँ से कुछ सौ मीटर और आगे बढते हैं जहाँ माओवादियों के घटना के एन दिन एक वनोपज जांच नाका गिरा दिया था। दिल्ली सही चीखती है कि वन अधिकारी शोषक हैं इस लिये माओवादियों ने न्याय किया होगा। लेकिन सड़क के दूसरी ओर जहाँ बरसात-धूप से बचने के लिये यात्री शेड बना हुआ था उसे क्यों ध्वस्त किया गया? कोई नवीन जिन्दल उसके नीचे नहीं रुकता, कोई मध्यमवर्गीय व्यापारी, सेठ या किसी शरीर में आत्मा घुसा कर कोई जमींदार भी पुनर्जीवित हो यहाँ नहीं ठहरता। यह तो बस्तर की दो अलग अलग घाटियों को जोडने वाला स्थान था और यहाँ आगे जाने वाले यात्री वाहन की प्रतीक्षा करने के लिये आदिवासी ही विपरीत मौसमों में ठहरते थे। इस क्षेत्र में जो भी इमारते थी, संकेत चिन्ह थे, तथा होल्डिंग्स लगे थे सभी को जैसे चूर चूर कर दिया गया है। किसी बात की खीझ निकाली जा रही हो या गुस्सा प्रदर्शित किया जा रहा हो संभवत: एसा ही कुछ वहाँ देखा जा सकता था। 

 इस दृश्य पर ठहर कर दरभा घाटी की घटना की विवेचना करते हैं। कुछ दिनों पहले एक खबर नारायणपुर से आयी थी जिसमे बताया गया था कि माओवादियों ने ग्रामीणों पर पेड काटने के लिये जुर्माना लगाया है। यह बात कही गयी थी कि इस तरह जंगल बचेंगे। वस्तुत: हम एक घटना का दूसरी घटना से तार कभी जोडते ही नहीं। मेरी बात को सुकमा, बीजापुर और नारायणपुर तीनो ही मार्गों पर जाने वाले लोग आसानी से समझ सकते हैं। सड़क को अवरोधित करने के लिये माओवादियों द्वारा पेड़ काट कर गिराया जाना एक आम घटना है। उल्लेखित सड़कों के किनारे किनारे आपको सैंकडो काटे गये पेडों के ढूंठ नज़र आ सकते हैं। मुझे आशंका है कि मार्ग अवरुद्ध करने के लिये पेड़ काटा जाना कोई क्रांतिकारी गतिविधि नहीं अपितु आदिवासियों के संसाधनों की लूट का एक नये तरह का जरिया है। दरभा घाटी की घटना के दिन अकेले ही सौ से अधिक बडे बडे पेड काट कर मार्ग में बिछा दिये गये थे। मुझे अधिकतम पेड सागवान के लग रहे थे। अंचल के एक वरिष्ठ पत्रकार से जब मैने इसकी तस्दीक की तो ज्ञात हुआ कि चुन चुन कर सागवान के ही पेडों को काटा गया था। इतना ही नहीं दूसरे दिन किसी चमत्कार की तरह काटे गये पेडों के मुख्य हिस्से सड़क से गायब भी हो गये। मुझे किसी की आई क्यू पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना है आप चाहें तो इस सच्चाई के पीछे के खेल को नजरंदाज कर जनपक्षधरता की तकरीरे जारी रख सकते हैं। 

‘पर्यावरण और माओवादी’ बडा ही मजेदार विषय है जिसे बस्तर में होने वाली “मौतों पर जाम टकराने वाले एक विश्वविद्यालय” के विशेषज्ञों द्वारा बार बार दुहाई की तरह उठाया जाता है। मैने कई बार आदिवासियों से इस बात को जानने की कोशिश की है और अपुष्ट सूत्रों से यह बता सकता हूँ कि बस्तर के कई दुर्लभ पक्षी बाशिंदे निरंतर भूने खाये जा रहे हैं। आपको आदिवासियों के शिकार पर आपत्ति है और भीतर कई निरीह प्राणी इस महान सो-काल्ड साईंटिफिक सोच वाली लाल-सेना के कैम्प फायर की शोभा होते हैं। एक कश्मीरी पंडित लेखक ने फौरी बस्तर भ्रमण (माओवादियों से मिल कर उनसे सोने-जागने-धोने-नहाने पर किताबें लिखने वाला परिभ्रमण) के बाद लिखा कि किस तरह माओवादी कैम्प के बाहर एक सांप दिखा और उसे तुरंत मार दिया गया। मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया था कि बस्तर की कई महत्वपूर्ण खदाने जो कि कोरंडम, टिन जैसे बहुमूल्य संसाधनों की है उनपर अब लाल-आतंकवादियों का कब्जा है और मैं उन पर स्मग्लिंग का आरोप लगाउं- तौबा तौबा, आप तो यूं कहिये कि आदिवासियों के लाल-हंट के लिये बस्तर के ये संसाधन अब साधन जुटाने का काम कर रहे हैं। ये सभी वे कहानियाँ हैं जिन पर आपको कोई युनिवर्सिटी बात करती नजर नहीं आयेगी, कोई लेखक अपनी किताब में छाप कर चर्चा नहीं करेगा, कोई जनपक्षधर लाल-सलामी लेखक इन तथ्यों पर निगाह भी नहीं डालेगा। बस्तर मरता है तो मरे इससे किसको सरोकार? 

सच्चाई तो यही है कि जब 75 जवान मरे थे तब भी दिल्ली में खिलखिलाहट थी और जब 31 जनप्रतिनिधि मारे गये तब भी दिल्ली के कई बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग इसे तरह तरह से जस्टीफाई करने में लगे हैं। एक कविता कहती है कि जब नाजी कम्युनिष्टों के पीछे आये तब कोई नहीं बोला; तो बाद में सारे कम्युनिष्ट ही बंदूखें पकड कर बस्तर के जंगलों में नाजी बन गये; और खबरदार अब कोई मत बोलना? लाल-आतंकवादियों को साम्राज्यवादी कहने के पीछे मेरा तर्क वृथा भी नहीं है। यह बात तो सर्व-विदित है कि दरभा घाटी की घटना के पीछे आन्ध्र-ओडिशा-महाराष्ट्र-झारखण्ड के आतंकवादियों का हाथ था। एयरपोर्ट में मिलने वाला मंहगा पानी गटकने वाले आतंकवादी बस्तर को कैसा रखना चाहते हैं यदि इस बात को कोई प्रमाण के साथ समझना चाहता है तो आपको केवल इतना करना है कि सुकमा-कोण्टा मार्ग से हैदराबाद जाने वाली बस में बैठ जाईये। जबतक बस्तर है तब तक आपकी बस हिचकोले खाती हुई जायेगी। माओवादियों ने इस सड़क को इतनी जगह से काटा है कि अब गिनती करना मुमकिन नहीं है। लेकिन जैसे ही कोण्टा की सीमा समाप्त होती है और आन्ध्र लगता है तो चमत्कार नजर आता है। भाई यह भी तो माओवादी इलाका ही है लेकिन यहाँ की सड़क इतनी बढिया और फोर लेन? मैं जानता हूँ कि मेरी बात को कोई नहीं बूझ सकता - “लालबुझक्कड बूझगे और न बूझे कोय!!”

2 comments:

Anonymous said...

Achha laga

Kripya font ka rang Black rakhen taaki Padhne me suvidha ho.

राजन said...

Nice artcle