माओवादी नेता
सब्यसांची पाँडा का एक साक्षात्कार ‘दैनिक भास्कर’ में कुछ दिनो पहले पढने को
मिला। इससे कुछ देर पहले मैं बस्तर के एक नाग वंशीय शासक मधुरांतक देव के विषय में
पढ रहा था। ये दोनो ही विषय पता नहीं क्यों मेरी विचार श्रंखला में गुत्थमगुत्था
होने लगे। वर्तमान पर बात करने से पहले मधुरांतक से आपको परिचित करा दूं। यह एक
कुख्यात नागवंशीय शासक था जिसनें प्राचीन बस्तर अर्थात चक्रकोट पर 1062 से 1069 ई.
के मध्य शासन किया। उल्लेखनीय है कि नाग राजाओं का शासन प्रबन्ध उनके राज्य को कई
केन्द्रीय शासन द्वारा संचालित स्वायत्त मण्डलों में विभाजित करता था, इन्ही में
से एक था मधुर मण्डल जिसमें छिन्दक नागराजाओं की ही एक कनिष्ठ शाखा के मधुरांतक
देव का आधिपत्य था। माना जा सकता है कि मधुरांतक देव के पूर्वजों को माण्डलिक चोल
राजाओं नें बनवाया होगा चूंकि राजेन्द्र चोल (1012 – 1044 ई.) के मधुर मण्डल पर
विजय का उल्लेख अतीत में प्राप्त होता है। कहानी यह है कि चक्रकोट के राजा धारवर्ष
जगदेक भूषण (1050 – 1062 ई.) के निधन के पश्चात चक्रकोटय में उत्तराधिकार को ले कर
संघर्ष हुआ और राजनीतिक अस्थिरता हो गयी। इस परिस्थिति का लाभ उठा कर ‘मधुर-मण्डल’
के माण्डलिक मधुरांतक देव ने चक्रकोटय पर अपनी “एरावत के पृष्ठ भाग पर कमल-कदली
अंकित” राज-पताका फहरा दी।
कहते हैं कि
नितांत बरबर और निर्दयी था वह। उसे कुचल देना ही आता था। ड़र के साम्राज्य ने शासक
और शासित के बीच स्वाभाविक दूरी उत्पन्न कर दी। उस पर अति यह कि अपनी
कुल-अधिष्ठात्री माणिकेश्वरी देवी के सम्मुख नरबलि की प्रथा को नीयमित रखने के
लिये उसने राजपुर गाँव को ही अर्पित कर दिया था। यह गाँव वर्तमान जगदलपुर शहर के
उत्तर-पश्चिम में स्थित है। वहाँ से जिसे चाहे उठा लो और देवी के सम्मुख धड़ से सिर
को अलग कर दो। जिन खम्बों पर साम्राज्यों की छतें खड़ी होती है वे शनै: शनै: कुचले हुए लोगों की आँहों भर से खोखले हो उठते
हैं। मधुरांतकदेव नें अपने राजपुर ताम्रपत्र में नरबलि के लिये राजपुर गाँव को दिये
जाने का कारण जनकल्याण बताया है। जनता की लाशें बिछा कर कैसा और किस प्रकार का
जनकल्याण संभव हो सकता था? लेकिन उसके पास अपने विचार का नशा था जो उसके द्वारा की
जाने वाली हर हत्या को जायज ठहराने का कारण बन जाता था।
गंभीरता
पूर्वक कई इतिहासकारों के मंतव्यों और ताम्रपत्रों-शिलालेखों के अनुवाद पढने के
पश्चात मेरी यह राय बनी है कि यदि किसी कृत्य को गरिमा प्रदान की जाये तो वह प्रथा
बन जाती है। नरबलि को मधुरांतक नें त्यौहार बना दिया था अत: यह उसकी मौत के बाद भी
प्रथा समाप्त नहीं हुई अपितु किसी न किसी रूप में चलती रही। मधुरांतक के बाद नरबलि
के लिये किसी शासक द्वारा गाँव समर्पित करने का उल्लेख तो नहीं मिलता लेकिन मेरिया
अर्थात वध्य को पकड़ने के लिये तरह तरह के
हथकंडे अपनाये जाने लगे। कालांतर अपराधी अथवा कभी कभी कोई अनजान यात्री अथवा पडोसी
राज्य से किसी व्यक्ति को पकड कर बलि दी जाने लगी। नर बलि के कारण बडे ही
जनकल्याणकारी बताये जाते थे उदाहरण के लिये कर्नल मैकफर्सन का प्रतिवेदन (1852)
उल्लेखनीय है जिसमें वर्णित है कि “भूमिदेवी की पूजा के निमित्त नरबलि दी जाती है।
अकाल मौत से बचने के लिये, शिशु जन्म के अवसर पर, वन्य पशुओं के आतंक से गावों को
बचाने के लिये, फसल को खराब होने से रोकने के लिये, गाँव पर, राज्य पर, मुखिया पर
अथवा राजा पर कोई विपत्ति आने की स्थिति में भी नर बलि दी जाती है”।
मधुरांतक देव
का क्या हुआ यह जानने से पहले चर्चा सव्यसाँची पाँडा की अखबारी समाचार के आलोक में
करते हैं। अखबार लिखता है “शोषितों,
वंचितों की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले नक्सिलयों में आजकल
अंदरूनी घमासान मचा है। हाल में पार्टी से निकाले गए
माओवादी कमांडर सब्यसाची पांडा ने काफी बगावती तेवर दिखाए थे। वह अब बिल्कुल अकेला है। ओडिशा में नक्सल आंदोलन के 'पोस्टर
ब्वॉय' के तौर पर मशहूर 43 साल का
पांडा अब खुद को 'ओल्ड डॉग' की तरह
मानता है जिसका उसकी पार्टी नामोनिशान मिटा देनी चाहती है। ओडिशा का सबसे अहम
नक्सली नेता माने जाने वाले पांडा को 'शे गुवेरा' कहलाता था। पांडा ने एक खत लिख कर कई सवाल उठाए थे। उसने नक्सलियों के
प्राइवेट पार्ट्स 'क्लीन शेव' करने के
चलन पर जोर देने की परंपरा को भी गलत ठहराया है। उसका कहना है कि यह तेलुगु कैडरों
में आम बात है और महिला काडरों को अक्सर ऐसा करने की सलाह दी जाती है। उसने लिखा
है, 'महिला काडरों को बिना कपड़े के स्नान करने को भी कहा
जाता है। मुझे समझ नहीं आता कि क्रांति का ऐसे बकवास सिद्धांतों से क्या ताल्लुक
है?”
इसे पढने के
बाद मेरा दिमाग सन्नाटे में आ गया था। पिछले तीस सालों से बस्तर के जंगलों में
तेलगु कैडर नें ही खास तौर पर ‘नरबलियों’ से सन्नाटा पसराया हुआ है। क्या इस तरह
की जा रही है क्रांति जिसमें व्यक्ति की इतनी निजता पर भी दिशानिर्देश जारी किये
गये हैं? उपरी तौर पर तो अभिव्यक्ति और अन्य तमाम प्रकार की आजादी के लिये लडी
जाने वाली इस तथाकथित क्रांति का स्वरूप इतना घृणास्पद होगा मेरी सोच में भी नहीं
था। बडी बात यह है कि यह उजागर करने वाला व्यक्ति स्वयं कुख्यात माओवादी रहा है।
निजी अंगों से विचार और विचारधारा का क्या अंतर्सम्बन्ध है? अथवा क्या निजी अंगो
से ही संबंध है तथा विचारधारायें कम्बल का कार्य करने लगी हैं? उफ़.....।
इस यौनविकार
भरी लिजलिजी विचार प्रक्रिया से बाहर निकलते हैं और पाँडा की मन:स्थिति को समझने
का यत्न करते हैं। ओपन' मैगजीन
ने पांडा के खत अपने पास होने का दावा किया है। मैगजीन ने कहा है कि दुखी मन से
लिखे गए इस खत में पांडा ने सीपीआई (माओवादी) के आलाकमान की गतिविधियों पर गंभीर
सवाल खड़े किए हैं। खत में पांडा ने ऐसे सनसनीखेज खुलासे किए हैं जिनसे माओवादी
नेतृत्व में फूट पड़ सकती है। पांडा ने कहा है कि माओवादी नेता खुद को मालिक समझ
बैठे हैं और कैडर उनकी गलतियों का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।
पांडा ने नक्सल नेतृत्व पर अकारण हिंसा फैलाने का आरोप लगाया है। पांडा ने लिखा है,
हम कम्यूनिस्ट पार्टी में किसी गलती के लिए पार्टी के सदस्य को
सस्पेंड कर सकते हैं और जरूरत पड़ी तो उसकी हत्या भी की जा सकती है। पांडा ने
सवालिया लहजे में कहा, क्या किसी क्रांतिकारी का काम केवल
पुलिसवालों की हत्या करना ही रह गया है?” यह सवाल महत्वपूर्ण है, एकपूर्व माओवादी
नेता द्वारा उठाये जाने के कारण इस सवाल को विषद चर्चा का विषय बनना चाहिये। यह
सवाल उन सभी युवाओं के सामने पडना चाहिये जिनके सामने रात दिन क्रांति का ढोल पीटा
जा रहा है और बंदूख उठाने के लिये कई उत्प्रेरक सामने रखे गये हैं। यह सवाल
क्रांति के नाम पर किसी भी हथियार उठाने वाले को स्वयं से करना ही चाहिये कि क्या
वे जाने अनजाने मधुरांतक देव तो नहीं बन रहे?
यह आम आदमी की
बलि ही तो है; पांडा आगे लिखते कहते हैं पांडा ने बेवजह किसी खास वर्ग के विध्वंस
के खिलाफ भी जमकर अपनी भड़ास निकाली है। उसने लिखा है, किसी पर मुखबिर होने का ठप्पा लगाकर
उसे मारना-पीटना और जला देना ही समस्या का हल नहीं है। पांडा ने संबलपुर के
पांच-छह गाँववालों, जिन्हें 2004 में
मुखबिर होने के शक में मार डाला गया था, का उदाहरण देते हुए
कहा, “केवल मैंने इसका विरोध किया था”। इस परिप्रेक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि यह उस व्यक्ति के द्वारा
कही गयी बाते हैं जो अब तक आउटलुक, तहलका या बीबीसी जैसे खबरदात्री स्थलों में चंद
दिन या महीने रहे घूमंतू पत्रकारों अथवा किसी राजनीतिक-विचारधाराबद्ध लेखकों की
कही-सुनी-गढी-बढी-चढी बातों से बिलकुल अलग प्रतीत होती हैं। वह व्यक्ति जिसने
वर्तमान की इस तथाकथित क्रांति को खाया-पीया-ओढा-बिछाया है उस पर बुद्धिजीवी केवल
खखार कर नहीं रह सकते (यद्यपि मौन ही रहने वाला है)। अखबार सब्यसांची पाण्डा का
परिचय देते हुए एवं माओवादी संगठनों की आंतरिक गुटबाजी पर जोर दे कर लिखता है कि “सब्यसाची
पांडा भाकपा (माओवादी) राज्य (ओडिशा) संगठन का सचिव था। मार्च महीने में दो इतालवी
नागरिकों के अपहरण के पीछे इसी का हाथ था। अपहृतों की रिहाई के बदले पांडा ने अपनी
पत्नी मिली को जेल से छोड़े जाने की मांग की थी। उसे बाद में जमानत पर छोड़ दिया
गया था। सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक पांडा नक्सली संगठन में आंध्र प्रदेश कैडर
के नक्सलियों के दबदबे से परेशान था और ओडिशा में पांडा की बढ़ती ताकत से आंध्र के
नक्सली नेता खुश नहीं थे। यही कारण है कि पांडा को अब तक सेंट्रल कमेटी या पोलित
ब्यूरो में जगह नहीं दी गई थी”।
क्रांति नरबलियों से नहीं आ सकती, प्राईवेट अंगों को शेव करने से भी नहीं आयेगी, महिला कैडरों को निर्वस्त्र नहाते ताकने वाले.....नहीं ला सकते क्रांति। इनसे क्रांति के मायनों की तलाश छोड कर हश्र की बात करते हैं और यहाँ मधुरांतक देव की चर्चा पुन: आवश्यक हो जाती है। इस शासक को एक जनक्रांति नें सत्ता से बेदखल किया था। हाँ, मैं यहाँ उसी बस्तर की बात कर रहा हूँ जिसे क्रांति सिखाने वाले देश भर में पिले पडे हैं। इस क्रांति का नेतृत्व किया था सोमेश्वरदेव (1069 – 1111 ई.) नें। वे दिवंगत नाग राजा धारवर्ष जगदेक भूषण के पुत्र थे। मधुरांतक द्वारा पराजित और निर्वासित किये जाने के बाद वे चक्रकोटय के निकट ही किसी गुप्त स्थान पर रहते हुए जन-शक्ति संचय में लगे थे। उनका कार्य कठिन नहीं था। हाहाकार करती प्रजा को एक योग्य नेता ही चाहिये था। राज्य में विद्रोह अवश्यंभावी था। सोमेश्वर देव ने जनभावना का लाभ उठाते हुए उनके क्रोध को युद्ध में झोंक दिया। आक्रमण हुआ तो किले के भीतर रह रहे नागरिकों में हर्ष का संचार हो गया। मधुरांतक ऐसी सेना को साथ लिये कितनी देर लड़ सकता था जिनकी सहानुभूति और भरोसा उसने खो दिया था? युद्ध समाप्त हुआ। मधुरांतक जंजीरों में जकड़ कर राजा सोमेश्वर के सम्मुख प्रस्तुत किया गया। राजाज्ञा से जब आततायी मधुरांतक के सिर पर हाथी ने अपना पैर रखा तो यह दृश्य देखने के लिये नगर का एक-एक व्यक्ति उपस्थित था। किसी भी आँख में कोई सहानुभूति नहीं थी। क्या आधुनिक मधुरांतकों के पास यह घटना उदाहरण के तौर पर मौजूद है?......या जलक्रीडायें और रेजर की दुकाने ही क्रांति को आगे ठेलती रहेंगी?
2 comments:
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