नागयुगीन
बस्तर वह सबसे महत्वपूर्ण कडी है जिसके अध्ययन द्वारा आधुनिक बस्तर के जनजातीय
समाज में विद्यामन अनेक प्रथाओं, उनके सामाजिक ताने बाने को तथा जटिलताओं को समझने
का यत्न किया जा सकता है। एक स्पष्ट विभागन रेखा है नागयुगीन समाज तथा उसके बाद के
युगों में अत: अध्येताओं को इसी स्थल पर गहरे पानी उतरना चाहिये।
नाग राजाओं
नें बस्तर तथा उसके आसपास एक विस्तृत भूभाग पर लगभग चार सौ वर्षों तक अपनी
स्वतंत्र सत्ता बनाये रखी थी। नाग शासन पूरी तरह से राजतंत्रात्मक था तथा युद्ध,
न्याय तथा शांति हर अवसर पर किये जाने वाले प्रत्येक निर्णय पर राजा का कथन ही
अंतिम माना जाता था। नाग युग में शासक प्रमुखता से राजा, राजाधिराज, महाराजा अथवा
महाराजाधिराज जैसी उपाधियाँ धारण करते थे। राजा को दैवीशक्तियों से युक्त माना
जाता था। नागयुगीन अभिलेखों में राजा के लिये परमेश्वर, प्रतिगण्डभैरव, परममाहेश्वर,
विश्वम्भरेश्वर एवं महामाहेश्वर आदि सम्बोधन भी प्राप्त होते हैं। नागों का शासन
क्षेत्र अर्थात तत्कालीन प्राचीन बस्तर चक्रकोटराष्ट्र कहलाता था। राष्ट्र का
विभाजन महामण्डल (राज्य) में होता था (1324 ई. के एक अभिलेख में सैरहराजराज्य का
उल्लेख मिलता है), जिसके प्रशासक महामाण्डलिक/महामण्डलेश्वर कहलाते थे। अगला
विभाजन थे - मण्डल अर्थात नाडु (बारसूर अभिलेख में गोवर्धनाडु का उल्लेख आता है।),
जिन्हें प्रशासकीय दृष्टि के वर्तमान संभागों के समतुल्य कहा जा सकता है; माण्डलिक
‘मण्डलाधिपति’ कहलाते थे। प्रत्येक नाडु अनेक ‘वाडि’ (विषय) मे बिभाजित थे, इन्हें
वर्तमान प्रशासनिक ईकाइयों में जिलों के समतुल्य रखा जा सकता है; वडि के प्रशासक
विषयपति कहलाते थे। यह प्रतीत होता है कि वाडि नागरिकों के कार्यों अथवा
व्यावसायवार भी बँटे हुए थे। सोमेश्वरदेव के एक अभिलेख में जिन वाडियों की चर्चा
है वे हैं – कुम्हारवाड, मोचिवाड, कंसारवाड, कल्लालवड, तेलिवाड, परियटवाड, चमारवाड
तथा छिपवाड। यह जान कर सु:खद संतोष होता है कि नागयुग में शूद्र असम्मानित नहीं थे
अपितु नाग नरेशों व महारानियों के दान अभिलेखों में मोची से ले कर ब्राम्हण तक के
नाम उल्लेखित हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि समाज में वर्ग स्थापित होने के बाद भी
विभेद व्यापक नहीं तथा तथा यह अंतर्सम्बंधो वाला समाज था। कार्य के आधार पर
वाडियों के नाम रखे जाने को भी श्रम को प्राप्त सम्मान के रूप में विवेचना करना ही
उचित जान पडता है। वाडि के अगले विभाजन नगर, पुर तथा ग्राम (नाडु) थे। ‘ग्राम’,
‘वाडा’ तथा ‘नार’ तीनों ही के तद्युगीन प्रयोग को आज भी देखा जा सकता है उदाहरण के
लिये- जिणग्राम, दंतेवाडा, नकुलनार आदि। गामनायक गाँव के प्रशासक के लिये प्रयुक्त
होता था, जो निर्वाचित नहीं अपितु राजाज्ञा से नियोक्त प्रतिनिधि होता था। आजीविका
के लिये ग्रामनायक को गाँव का कोई भूखण्ड प्रदान कर दिया जाता था। छिंदक नागयुगीन
अभिलेखों के अनुसार उस युग में द्वादश पात्रों द्वारा शासन व्यवस्था संचालित होती
थी। ये हैं – सामंत, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी, सेनापति, श्रीकरण,
धर्माध्यक्षमहापात्र, अंत:पुरीय, राष्ट्रकूट, प्रमुखन तथा दौरावारिक। राज्य की
प्रमुख समस्याओं को सुनने तथा फैसले करने के लिये जो पंच प्रधान नियुक्त किये गये
थे वे हैं – महाप्रधान (अमात्य), पाडिवाल (दौरावारिक), चामरकुमार (युवराज),
सर्ववादी (पुरोहित) तथा सेनापति।
चोल अभिलेख से
ज्ञात होता है कि बस्तर के जनजातीय योद्धा वीर और लड़ाकू थे। आदिवासी धनुर्धारी
अपने अचूक लक्ष्यभेदन व कठोर धनुष धारण करने के लिये प्रसिद्ध थे। तद्युगीन
नाग-दुर्गों पर उँची पताकायें लहराया करती थीं। आज भी बस्तर के वनवासी अपनी
धनुर्विद्या के लिये विख्यात हैं। धनुर्धर तथा पदाति के अलाव नागों के पास अपनी
अश्वों व गजों से सज्जित सेना थी। थोडी थोडी दूरी पर दुर्गम किले थे जो खाईयों से
घिरे होते थे। किले की की प्राचीर का निर्माण मिट्टी, ईंट तथा प्रस्तर खण्डों से
होता था। बारसूर, भैरमगढ, चक्रकोट, गढबोदरा, छिन्दगढ, तीरथगढ, बडे-डोंगर, राजपुर
आदि अनेक दुर्ग नाग राजाओं की सुरक्षा के लिये निर्मित किये गये। धनुषवाण के
अतिरिक्त तलवार, कृपाण, कटार, भाला, त्रिशूल, गदा, फरसा, आदि शस्त्रों का प्रयोग
युद्ध में किया जाता था। पट्ट, सूर्य खोत्तर, शंख, घंटा, आदि युद्ध के वाद्य यंत्र
थे। युद्ध व समारोहों के अवसर पर पताकायें ले कर चलने का प्रचलन था।
कृषकों को
भूमि का स्वमित्व प्राप्त था। यदि राजा अथवा माण्डलिक को किसी कृषक से भूमि चाहिये
होती थी तो वह भी सम्बद्ध भूमि को खरीदता था। दंतेवाडा अभिलेख इसकी तस्दीक करता है
जहाँ उल्लेख है कि राजा नें एक कृषक से बोरिगाम खरीद कर भैरम के मंदिर हेतु दान कर
दिया था। राजा द्वारा प्रदत्त भूमि अनुदान एवं पदवियाँ पुश्तैनी नहीं थे अत:
सामंतों का बहुत हस्तक्षेप किसानों पर नहीं हो सका था। शोषण के यद्यपि दूसरे
स्त्रोत खुले हुए थे और बहुतायत किसान कामगार कृषि ऋण के बोझ से दबे हुए थे। कर
उगाहने की प्रथा जटिल थी एवं यह कार्य ठेके पर दिया जाता था। ठेकेदार की संविदा
द्वारा सशर्त नियुक्ति होती थी। यह समझा जा सकता था कि इस प्रकार के ठेकेदार किस
तरह ग्रामीण जनता को चूसते रहे होंगे। एक ओर खास वर्ग तो करो से छूट के अधिकारी
बनते जा रहे थे जबकि नये नये कर व राजनीय अवसरों के आयोजनों हेतु बेसमय करों की
उगाही से आदिवासी जनता पिस गयी थी। नाग युगीन मंदिर किसानो से जो कर वसूलते थे
उसमें धन, खाद्यपदार्थ के अलावा दूध, तेल, घी, फूल, हार, वस्त्र तथा अन्य वओपज भी
सम्मिलित थे। कर-वसूली सम्बन्धित अनीयमितताओं की विवेचना पंच-प्रधान करते थे तथा किसानों
की भी राय ली जाती थी; एसा प्रतीत होता है कि उस युग में सभी क्षेत्रों के किसानों
नें संयुक्त रूप से एक किसान महासभा का गठन किया था। उपरोक्त व्यवस्थाओं के बाद भी
शिकायतों के अम्बार थे और किसानों में बार बार तथा अनेक प्रकार के करों की उगाही
के कारण असंतोष व्याप्त था।
चक्रकोटयराष्ट्र
के समस्त खनिज क्षेत्र पर राजा का ही अधिकार था। खनिकर्म के अलावा इस युग में
वाणिज्य-व्यापार में अभूतपूर्व प्रगति हुई। सूती कपडा बुनने की कला व व्यापार नें
खूब प्रगति की। सर्वाधिक मूर्तियाँ व मंदिर बस्तर को नाग युग की ही देन हैं अत:
कहा जा सकता है कि स्थापत्य तथा मूर्तिकला का विकास हुआ। राजाओं द्वारा तडाग, कूप
वापि तथा उद्यान आदि के निर्माण द्वारा जनकल्याण कारी कार्यों के प्रमाण भी मिलते
हैं। समाज में अलगाव भले ही न आया हो तथापि कार्यों का जातिवार स्पष्ट विभाजन
नागयुग तक आते आते हो गया था। ब्राम्हण वर्ग नें अन्य व्यवसायों से हाँथ खींच कर
कर्मकाण्ड-पूजनपाठ व राजपरामर्शकर्ता तक अपनी भूमिका सीमित कर ली थी। हस्तशिल्प का
विकास हो गया था अत: कारीगर वर्ग था, लेखन कार्य के लिये कायस्थ वर्ग था व्यापार
के लिये बनिक वर्ग तथा स्पष्ट रूप में दास प्रथा विद्यमान न होते हुए भी
दमित-श्रमिक-बेगारी वर्ग उपस्थित था। कुछ तद्युगीन कार्मिक – माली, मोची, कोसटा
(कोसे से वस्त्र बनाने वाला), छिप (दर्जी), परियट (लोहार), तेलि (तेल का व्यवसाय
करने वाले), साव (बिचौलिये), महाजन (उधार का व्यवसाय करने वाले), कोरी (बुनकर),
राउत (गोपालक), भोई (धातुकर्मी), श्रेष्ठि (व्यापारी), छुरिकार (आयुध निर्माता)
आदि थे।
संचार के
साधनों का व अनेक यात्रा-मार्गों का इस युग में विकास हो गया था जिसका श्रेय
प्राचीन मंदिरो विशेषकर नारायणपाल के विष्णु मंदिर को दिया जा सकता है। यह मंदिर
एक तीर्थ बन चुका था जहाँ प्रार्थना-दर्शन हेतु दूर दूर से यात्री आया करते थे।
नागपुर, चाँदा, कवर्धा, खैरागढ, दमोह, जबलपुर, अमरकण्टक, चित्तोड से यात्रियों के
पोटागढ व नारायणपाल आने सम्बन्धी अभिलेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कई
यात्रामार्ग चक्रकोट्यराष्ट्र को शेष भारत से जोडते रहे होंगे। यह कार्य व्यापार
के लिये भी आवश्यक था जिसके यहाँ सुदूर दक्षिण तक किये जाने के उल्लेख प्राप्त
होते हैं। एक ज्ञात व्याख्या के अनुसार कभी कांकेर से विशाखापट्टनम के लिये यात्री मार्ग आमपानी या सलूरघाट हो कर गुजरता
था।
ग्रामीण जन
वस्तु विनिमय आधारित अर्थव्यवस्था से संचालित थे तथापि श्रेष्ठि, महाजन जैसे
तदयुगीन धनाड्य गद्याणक (स्वर्ण मुद्रा) का परस्परव्यवहार करते थे। 1921 में
बिलासपुर के सोनसारी ग्राम से सोमेश्वरदेव प्रथम (1069 – 1111 ई.) के द्वारा जारी
लगभग 600 स्वर्ण मुद्रायें प्राप्त हुई थीं। 59 ग्रेन भार वाली इन वर्तुलाकार
स्वर्न मुद्राओं में व्याघ्रलांछन अंकित था। अब तक प्राप्त नागयुगीन
स्वर्णमुद्राओं का इतिहास दो सौ वर्ष से अधिक का हो जाता है जहाँ राजा जगदेकभूषण
धारावर्ष (1050-1060 ई.) से प्रारंभ कर लगभग 1250 ई. तक जारी मुद्रायें प्राप्त
हुई हैं। कार्य के बदले अनुदान की परम्परा नागयुग में रही उदाहरणार्थ नृत्यांगना
को अनुदान अथवा मेडिपिट (बलि के लिये वध्य पकडने वाला) को अनुदान आदि।
उपरोक्त
विवरणों से यह कहा जा सकता है कि नागराजाओं नें प्रशासनिक व्यवस्था को बहुत जटिल
बना दिया था जिस कारण जनता और राजा के बीत प्रशासकों के बहुत से वर्ग पनप गये थे।
प्रशासन एक वृत्त बना रहे तभी यह चक्र चलता रहता है किंतु इस युग में जैसे जैसे
व्यूरोक्रेसी हावी होने लगी पहली और आखिरी कडी नें अपने सहसम्बन्ध खो दिये। नागयुग
का गौरव उसकी प्रगति थी तो पतन का कारण इस विकास की धारा को बनाये न रख पाना भी
है। असंतोष अगर उत्पादक में होगा तो उपभोक्ता भी बहुत दिनों तक अपना उदर बढाये
घूमता नहीं रह सकता और यही स्थिति जब प्रबल हुई तो नाग शासन के अनेक महामण्डल अलग
अलग होने लगे। अपने शासनके अंतिम वर्षों
में तो चक्रकोटय अनेक राष्ट्रों का समूह बन गया था जिसमें कई नाग शासक विद्यमान
थे। उनके मध्य अनेकता व जनता में व्याप्त असंतोष नें ही अगके आक्रांता को यहा अपने
पैर पसारने की सहूलियत दी थी।
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