Saturday, January 19, 2013

रहस्यमयी नागलोक तथा बस्तर में नाग शासन (760 – 1324 ई.)


हमारी कल्पनाशीलता नें नागों को अत्यधिक कलात्मकता और रहस्यमयता प्रदान की है। नाग सदियों से कविताओं का विषय रहे हैं। नाग आज की सिनेमा के किरदार भी हैं, जहाँ वे मनुष्य रूप में परिवर्तित हो कर प्रेम करते हैं, नृत्य करते हैं और पुन: अपने लोक में लौट जाते हैं। रोमांचित करती हैं नाग और उनके पाताल लोक से जुडी कहानियाँ। प्राचीन बस्तर में जहाँ नाग शासकों का उल्लेख मिलता है वहाँ एक अध्येता के रूप में मेरे मन में भी एसी ही रोमांचित कर देने वाली कहानियाँ प्रश्न खड़े करने लगीं। पहला प्रश्न तो यही कि नाग कौन थे? इसका उत्तर जटिल नहीं है चूंकि इतिहासकार मानते हैं कि पर्वतो (नग) में निवास करने वाली जनजातियाँ ही नाग कहलाने लगीं। दक्षिणापथ से नागों का सम्बन्ध प्राचीनकाल से जोडा भी जाता रहा है। वाल्मीकी रामायण (5.12.12) में नाग कन्याओं के अप्रतिम सौन्दर्य का उल्लेख है। रावण नें बलपूर्वक कई नागकन्याओं का हरण किया था – “प्रमथ्य राक्षसेन्देण नागकन्या: बलाद्धृता:”। नाग पाताल लोक में रहते थे जिसकी राजधानी भोगावती थी। पाताल लोक के सप्तगोदावरी क्षेत्र में होने की पुष्टि वामनपुराण के इस श्लोक से होती है – “पर्जन्यं तत्र चामंत्रय प्रेषयित्वा महाश्रमे। सप्तगोदावरे तीर्थे पातालम गमत कपि:”। अर्थात पाताल लोक और गोंडवाना पर्यायवाची शब्द कहे जा सकते हैं। इसके साथ ही भोगावती की भौगोलिक स्थिति की जानकारी रामायण के अरण्य काण्ड (32:13-14) से प्राप्त होती है जिसके अनुसार महर्षि अगस्त्य के आश्रम के निकट नागों की यह राजधानी अवस्थित थी। भोगावती का उल्लेख यदाकदा एक नदी के रूप में भी होता है जिसके विवरणों के विश्लेषन से इसे इन्द्रावती नदी माना जा सकता है। महाभारत के अनुसार भी भोगावती दक्षिणापथा में ही स्थित है जिसके शासक वासुकि, तक्षक तथा एरावत थे। दक्षिणापथ में महाभारत युग तक आर्यों की घुसपैठ बढ गयी थी जिसकारण नाग-आर्यों के बीच कई संघर्ष भी हुए। महाभारत में एसी कई कथाये उपलब्ध हैं। बौद्धग्रंथों में भोगावती का उल्लेख हिरण्यमयी नगरी के रूप में किया गया है। प्राचीन बस्तर के नाग शासक सोमेश्वरदेव प्रथम (1069-1111 ई.) के लिये भी भोगावती स्वामी का उल्लेख कई उपलब्ध एतिहासिक साक्ष्यों में हुआ है। प्राचीन बस्तर में शासन करने वाले सभी नाग राजा भोगावतीपुरवरेश्वर की उपाधि भी धारण करते थे।    

प्रश्न यह भी उठता है कि क्या नाग और गोंड भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? संभवत: महाभारत की एक कथा इसका कोई उत्तर दे सके जिसके अनुसार दुर्योधन के एक भाई कर्ण नें मध्यप्रदेश की पचमढी के निकट किसी नागकन्या के प्रति आसक्त हो कर उससे विवाह कर लिया। नागकन्या के पिता इस बेमेल विवाह से अप्रसन्न व असंतुष्ट थे अत: उन्होंने यह आदेश दिया कि उत्पन्न बालक का पिता के वंश से कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा एवं यह नागवंशी कहलायेगा। इस संतति के वंशज गोंड कहलायेंगे (वार्ड; 1868)। इस कहानी से साम्यता रखते हुए भी बस्तर के गढधनोरा में उपलब्ध एक कहानी गोंडों को कुरुवंश से नहीं जोडती अपितु उनके अनुसार कर्ण एक दानी गोंड राजा था जिसने अपने ही पुत्र की बलि दे दी थी। रसेल तथा हीरालाल (1916) के अनुसार छोटानागपुर के नागवंशी राजा मानते थे कि उनके पूर्वपुरुष नागदेवता और ब्राम्हण कन्या की युति से उत्पन्न हुए थे। 1908 में लाल-कालेन्द्रसिंह रचित बस्तर राज वंशावली (अप्रकाशित) के अनुसार “बस्तर के माडिया क्षेत्रों में नागों के 33 अभिलेख एवं 800 स्वर्ण मुद्रायें मिली हैं। अभिलेख के सभी नृपति स्वयं को पौराणिक नागों से सम्बद्ध करते हैं। बस्तर के बारसूर ग्राम के नेगी आज भी स्वयं को नागवंशी राजाओं के वंशज मानते हैं; तथा ये आदिवासी हैं”। इन मिथक कथाओं से गोंड उत्पत्ति के सूत्र भ्रामक लगते हों तथापि इतना अवश्य सिद्ध होता है कि गोण्डवाना ही वह रहस्यमयी नागलोक है जिसकी चर्चा उपरोक्त संदर्भों में की गयी है।

उल्लेखनीय है कि आधुनिक द्रविडों के पूर्वज कभी सिन्धु घाटी क्षेत्र के आस-पास निवासरत रहे होंगे जिसकी तस्दीक पाकिस्तान के बलुचिस्तान क्षेत्र में बोली जाने वाली द्रविड़ परिवार की ब्राहुई भाषा से होती है जो अब भी लगभग चार लाख लोगों द्वारा बोली जाती है। द्रविड ईसापूर्व तीसरी-चौथी सहस्त्राब्दि में भारत की ओर बढे तथा वर्तमान मध्यप्रदेश उनका प्रमुख ठिकाना बना एवं पद्मावती नागों की राजधानी बनायी गयी। यहाँ से वे अनेक धाराओं-शाखाओं मे विभाजित हो कर विभिन्न दिशाओं में चले गये। बस्तर के नाग शासकों का सम्बन्ध छिन्दक शाखा से जुडा पाया गया है। के पी जायसवाल नें अपनी किताब अंधकारयुगीन भारत (1955) में उल्लेख किया है कि गुप्तराजाओं से पराजय के फलस्वरूप पद्मावती के नाग दक्षिण की ओर चले गये तथा कुछ काल तक उनका शासन होशंगाबाद और जबलपुर जिलों में रहा। यहीं से वे बस्तर की ओर कूच कर गये।

इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल के अनुसार सिन्धु तट से मध्यप्रदेश आ कर बसे नागों नें यहाँ से पलायन करने के पश्चात कर्नाटक में शरण ली; यहाँ उनकी तीन उपशाखाओं का उल्लेख मिलता है – सेन्द्रक शाखा (मैसूर तथा लगभग सम्पूर्ण कर्नाटक में विस्तार), सेनावार शाखा (कर्नाटक के कडूर तथा सिमोगा में शासन) तथा सिन्द शाखा (छ: उपशाखायें जिनमें बस्तर भी सम्मिलित था)। जिन छ: सिन्द क्षेत्रों का उल्लेख है वे हैं – बागलकोट (बगदगे), एरमबिगगे (येलबुर्गा), बेलगवट्टि, हलावूर/बेल्लारी, चक्रकोट तथा भ्रमरकोट। अंतिम दो स्थल अर्थात चक्रकोट एवं भ्रमरकोट वर्तमान बस्तर का हिस्सा हैं। यहाँ शासन करने वाले नाग राजाओं को छिन्दक कहा गया है जिसकी उत्पत्ति सेन्द्रक से ही हुई है। बस्तर के छिन्दक नागों के भी दो घरानों का उल्लेख मिलता है – वरिष्ठ शाखा के मुकुट पर “सवत्सव्याघ्र” प्रतीक अंकित था तथा उनका ध्वज “फणिध्वज” रहा है। नाग की कनिष्ठ शाखा जिसके एक मात्र शासक मधुरांतक देव का ही प्रमुखता से उल्लेख मिलता है; वे “धनुषव्याघ्रलांछन” युक्त मुकुट चिन्ह एवं “कमल के पुष्प एवं कदलीपत्र” के ध्वज का प्रयोग करते थे।     

नल-गंग युगीन महाकांतार अथवा चक्रकोट्य़ में अनेकों स्वतंत्र तथा अर्ध-स्वतंत्र राज्य निर्मित हो गये थे, जिन्हें मण्डल कहा जाता था। आक्रांताओं के लिये यह भूमि सुलभ से सुलभतर होती गयी। नौवी शताब्दी में पूर्वी-चालुक्यों के चक्रकूट पर आक्रमण और विजय की जानकारी प्राप्त होती है। यह प्रतीत होता है कि इसी काल में किसी नागवंशी सामंत को माण्डलिक बनाया गया होगा। वल्लभराज (925-980 ई.) प्रथम ज्ञात नालवंशीय राजा है जिसकी पुष्टि एर्राकोट से प्राप्त एक तेलुगु अभिलेख से होती है। यह प्रस्तराभिलेख बारसूर के निकट उपेत नामक स्थान से प्राप्त हुआ है जिसमें कर उगाही करने वाले संविदाकारों के लिये राजा वल्लभराज की शर्तों का वर्णन है। अगले शासक शंखपाल (980-1012 ई.) के सम्बन्ध में अधिकतम जानकारी साहित्यिक प्रमाणों से उपलब्ध होती है। मालवा के सिन्धुराजा के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल नें महाकाव्य “नवसाहसांकचरित” की 1005 ई. के लगभग रचना की थी जिसमें नागवंशी राजा शंखपाल का उल्लेख है जिसने सिन्धुराज की युद्ध में सहायता की थी। यह भी उल्लेख है कि राजा शंखपाल की पुत्री शशिप्रभा का विवाह सिन्धुराज से किया जाता है। संदर्भों के आधार पर यह संभावना बनती है कि बंगाल के किसी पाल राजा के 1012 ई. में हुए आक्रमण तथा उसी युद्ध में शंखपाल की मृत्यु हो गयी जिसके परिणाम स्वरूप राजा नृपति भूषण (1012-1050 ई.) चक्रकोटय क्षेत्र के राजा हुए। इन्हीं समयों में चोल राजा राजेन्द्र (1011-1022 ई.) के चक्रकोटय पर आक्रमण कर अधिकार करने का भी उल्लेख मिलता है। संभवत: नृपतिभूषण से पुन: स्वयं को स्वाधीन कर लिया होगा। नृपति भूषण के निधन के पश्चात जगदेकभूषण धारवर्ष (1050-1062 ई.) चक्रकोटय के राजा हुए। 1062 ई में उनके निधन के बाद चक्रकोटय में उत्तराधिकार को ले कर संघर्ष हुआ और राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी। इस परिस्थिति का लाभ उठा कर ‘मधुर-मण्डल’ के मधुरांतक देव (1062- 1069 ई.) ने चक्रकोटय पर अपनी “एरावत के पृष्ठ भाग पर कमल-कदली अंकित” राज-पताका फहरा दी। मधुरांतक देव को अपनी क्रूरता तथा निरंकुशता के लिये भी जाना जाता है। कहा जाता है कि उसने जगदलपुर से 22 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित राजपुर नाम के गाँव को नरबलि के लिये एक मंदिर को दान में दे दिया था। मधुरांतक बहुत समय तक शासन नहीं कर सका, जगदेक भूषण धारावर्ष के पुत्र सोमेश्वर प्रथम (1069-1111 ई.) नें युद्ध में उसका वध कर दिया तथा वे चक्रकोटक के निष्कंटक शासक बन गये। सोमेश्वर प्रथम की दो पत्नियाँ थीं सासन महादेवी तथा धारण महादेवी। धारण महादेवी अभिलेखों की दानदात्री भी रही हैं। ग्यारहवी शताब्दी के दंतेवाड़ा से प्राप्त एक शिलालेख में राजा सोमेश्वरदेव प्रथम की बहन मासकदेवी का उल्लेख मिलता है जो किसानों के द्वारा जबरन तथा बार बार लगान वसूली से चिंतित प्रतीत होती हैं। मासक देवी किसानों के बीच जाती हैं उनकी समस्यायें सुनती हैं तथा शासन से अलग इकाई होने के बाद भी समस्या के निदान की सक्रिय पहल करती हैं। वे पाँच महासभाओं के प्रमुखों तथा किसान प्रतिनिधियों के साथ बैठक करती हैं। लिये गये निर्णय को राजाज्ञा की तरह जारी करती हैं कि भविष्य में अनीयमित लगान वसूली किसी शासकीय अधिकारी द्वारा नहीं की जायेगी। एसा करने वाले को विद्रोही तथा राज्य का शत्रु समझा जायेगा। सोमेश्वर देव की माता गुण्ड महादेवी भगवान विष्णु की भक्त थी। उन्होंने नारायणपाल में भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था तथा यह गाँव मंदिर को दान में दे दिया था। नारायणपाल का विष्णु मंदिर आज भी संरक्षित अवस्था में उपलब्ध है। सोमेश्वर प्रथम के शासनकाल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभिलेख कुरुसपाल से प्राप्त हुआ है जिसमें उनकी समस्त युद्ध विजयों की गाथा अंकित है। ज्ञात होता है कि उन्होंने वेंगी पर आक्रमण कर उसे जला दिया था; भद्रपट्टन तथा वज्र के साथ साथ दक्षिण कोसल के बडे क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। उनके उत्तराधिकारी थे कन्हारदेव प्रथम (1111-1153 ई.)। कुरुसपाल अभिलेख, राजपुर ताम्रपत्र और नारायणपाल अभिलेख में कन्हारदेव प्रथम का उल्लेख आता है। यह उनके शासन काल की ही घटना है कि रतनपुर के कलचुरी सामंत जगपालदेव (1145 ई.) नें काकर्य (कांकेर) पर विजय प्राप्त की थी। कन्हार देव प्रथम के बाद चक्रकोटय के इतिहास पर पुन: लगभग पचहत्तर वर्ष का अंधकार मिलता है। बहुत सीमित जानकारी बारसूर अभिलेख से प्राप्त होती है जिसके अनुसार कन्हारदेव द्वितीय (1153-1195) का शासन काल सोमेशवर द्वितीय (1195-1218 ई.) के पहले रहा होगा। सोमेश्वर द्वितीय पहले नगवंशी शासक हैं जिन्हें चक्रवर्ती अर्थात सम्राट होने की उपाधि प्राप्त थी। संभव है विभिन्न माण्डलिक राजाओं नें उनकी आधीनता स्वीकार कर ली होगी। बारसूर अभिलेख के अनुसार उन्होंने बारसूर के ही दो शिवमंदिरों के संचालन के लिये एक गाँव दान में दे दिया था। इसके बाद के शासक थे जगदेकभूषण नरसिंहदेव (1218-1224 ई.) उन्हें मणिकेश्वरी देवी का भक्त बताया गया है। मणिकेश्वरी देवी का मंदिर वर्तमान दंतेवाडा में दंतेश्वरी मंदिर से लग कर अवस्थित है। एसी जानकारियाँ है कि उनके शासनकाल में बस्तर का शिव धर्म तांत्रिक समुदाय में परिवर्तित होने लगा था। वस्तुत: नाग राजाओं की शासन प्रणाली से सम्बन्धित कुछ जानकारी हमें जयसिंह देव (1224-1248 ई.) के समय के अभिलेखों से प्राप्त होती है। महाराजा राष्ट्र का अधिपति होता था जिसके आधीन महामण्डलेश्वर (महामण्डल के शासक) होते थे। इसके बाद माण्डलिक, विषयपति तथा ग्रामनायक आते थे। राजा की सहायता तब पाँच मंत्री किया करते थे जिन्हें पंच प्रधान कहा जाता था। पंचप्रधान के अंतर्गत मुख्यमंत्री, प्रमुख सेनानायक, प्रमुख चामरधारी, राजकुमार तथा गुप्तचर संस्था के प्रमुख सम्मिलित होते थे। नाग युग में कोट या राज्य प्रमुख प्रशासकीय क्षेत्र थे जो नाडु में विभाजित थे। नाडु को प्रशासनिक संभाग अथवा मण्डल भी माना जा सकता है। ये मण्डल जिलों में विभाजित थे जिन्हें वाडि कहा गया है। वाडि अथवा जिलों का अगला विभाजन महानगर, पुर तथा ग्राम के रूप में होता था। इसके बाद इतिहास का एक और अंघेरा समय जो पुन: लगभग पचहत्तर वर्ष का है, आता है जिसके सम्बन्ध में कोई अभिलेख अथवा साक्ष्य सामने नहीं आया है। हरिश्चंद देव (1300-1324 ई.) अगले ज्ञात राजा हैं जो चक्रकोटय में नाग शासन की अंतिम कडी कहे जा सकते हैं। काकतीय राजा अन्नमदेव के साथ उनका संघर्ष 1324 में हुआ तथा उनकी मृत्यु के साथ ही बस्तर के इतिहास का नया अध्याय प्रारंभ होता है।
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4 comments:

sharad Chandra Gaur said...

राजीव जी अच्छा आलेख बधाई .....निष्चित रूप से बस्तर में नाग वंष के शासन काल को बस्तर का स्वर्ण युग कहा जा सकता है....प्राप्त पुरातात्विक धरोहर गवाह है कि उनके शासन काल में बस्तर में षिक्षा एवं स्थापत्य कला की स्थिति अच्छी थी

sourabh sharma said...

नागों पर अच्छी रिसर्च

क्षत्रिय विक्रम नागवंशी said...

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Hum Nagvanshiyon se judi aap ke lekhoon ko apne Rajputworld pe jageh dena chahenge

Anonymous said...

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