Thursday, August 23, 2012

बस्तर, प्राचीन स्त्रीराज्य की विरासत है – संदर्भ: महाभारत काल

सान्ध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में दिनांक 23.08.2012 को प्रकाशित 

स्त्री नें हमेशा बराबरी और सम्मान की लडाई लडी है। भारत भर में एसे उदाहरण कम ही देखने को मिले हैं जहाँ उसने यह अधिकार पाया है। इस आधी आबादी के पास अगर कोई उदाहरण है तो वह पाषाणकालीन अतीत की ओर इशारा करता है जब मातृसत्तात्मक जीवन शैलियों का चलन था। प्राचीन बस्तर क्षेत्र जिसे रामायण काल में “दण्डकारण्य”, महाभारत काल में “कांतार” तथा गुप्त काल में “महाकांतार” कहा गया एक एसे इतिहास की ओर इशारा करता है जहाँ लगभग तेरहवी शताब्दी के पूर्वार्ध (1335 ई.) तक स्त्रीसत्ता का ही प्रमुखता से उल्लेख प्राप्त होता है। महाभारतकालीन वीरांगना प्रमिला से आरंभ हो कर यही विशिष्ठता नागकालीन राजकुमारी मासक देवी तक पहुँचती है; यद्यपि कालांतर में भी “रानी चो रिस (1878-1882 ई.)” जिसमें कि तत्कालीन रानी जुगराज कुँअर नें अपने ही पति राजा भैरमदेव के विरुद्ध सशस्त्र आन्दोलन का संचालन किया था; राजमाता सुबरन कुँअर जो कि 1910 के महान भूमकाल के सूत्रधारों में थीं तथा महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी (1921-1936 ई.) जिन्होंने बैलाडिला की खदानों को निजाम के हाँथो जाने से बचाने के लिये प्राणों की आहूति दे दी जैसे उदाहरण मिलते हैं। क्या एक लम्बे समय तक युद्ध में उलझ जाने और उसके पश्चात शांतिकाल में प्राचीन दण्डकारण्य एक स्त्री-शासित प्रदेश बन गया था? इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन बस्तर में रामायणकाल को दो संस्कृतियों के संघर्ष, मैत्री तथा सम्मिश्रण का समय माना जायेगा। इसके बाद का समय अपेक्षाकृत स्थायित्व दर्शाता है; बडी सभ्यताओं नें अपनी अपनी सुविधा के क्षेत्रों पर अब तक कब्जा हासिल कर लिया है तथा प्राचीन बस्तर अंचल पुन: अपने आप में सिमटता जाता प्रतीत होता है। 

इस काल खण्ड तथा इसकी विशेषताओं पर चर्चा करने से पूर्व उन तथ्यों पर बात करते हैं जो मूल महाभारत कथा के साथ “कांतार” अर्थात प्राचीन बस्तर का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। उत्तरापथ में आर्यों का समुचित विस्तार हो गया था अत: महाभारत की मूल कथा वहीं से अपना अधिक सम्बन्ध रखती है तथापि पाण्डवों के वनवास के कुछ प्रसंग कांतार की भूमि में घटित हुए प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि वर्तमान बस्तर के कई गाँवों के नाम महाभारत में वर्णित पात्रों पर आधारित हैं, उदाहरण के लिये गीदम के समीप नकुलनार, नलनार; भोपालपट्टनम के समीप अर्जुन नली, पुजारी; कांकेर के पास धर्मराज गुडी; दंतेवाड़ा में पाण्डव गुडी नामक स्थलों प्रमुख हैं। कई आदिवासी देवता भी इस कालखण्ड का पुरातत्व अपने नामों में छुपाये हुए हैं जिनमें प्रमुख हैं -  भीमुलदेव, पाण्डुरों, पाण्डुराजा आदि। बस्तर की परजा (घुरवा) जनजाति अपनी उत्पत्ति का सम्बन्ध पाण्डवों से जोड़ती है। बस्तर भूषण (1908) में पं केदारनाथ ठाकुर नें उसूर के पास किसी पहाड़ का उल्लेख किया है जिसमें एक सुरंग पायी गयी है। माना जाता है कि वनवास काल में पाण्डवों का यहाँ कुछ समय तक निवास रहा है। इस पहाड के उपर पाण्डवों के मंदिर हैं तथा धनुष-वाण आदि हथियार रखे हुए हैं जिनका पूजन किया जाता है। महाभारत के आदिपर्व में उल्लेख है कि बकासुर नाम का नरभक्षी राक्षस एकचक्रा नगरी से दो कोस की दूरी पर मंदाकिनी के किनारे वेत्रवन नामक घने जंगल की सँकरी गुफा में रहता था। वेत्रवन आज भी बकावण्ड क्षेत्र में मिलते हैं तथा यह नाम बकासुर से साम्यता दर्शाता भी प्रतीत होता है; अत: यही प्राचीन एकचक्रा नगरी अनुमानित की जा सकती है। बकासुर भीम युद्ध की कथा अत्यधिक चर्चित है जिसके अनुसार एकचक्रा नगर के लोगों नें बकासुर के प्रकोप से बचने के लिये नगर से प्रतिदिन एक व्यक्ति तथा भोजन देना निश्चित किया। जिस दिन उस गृहस्वामी की बारी आई जिनके घर पर पाण्डव वेश बदल कर माता कुंती के साथ छिपे हुए थे तब भीम नें स्वयं बकासुर का भोजन बनना स्वीकार किया। भीम-बकासुर का संग्राम हुआ अंतत: भीम नें उसे मार डाला। महाभारत में वर्णित सहदेव की दक्षिण यात्रा भी प्राचीन बस्तर से जुडती है। दो तथ्य रुचिकर लग सकते हैं पहला कि भीम शब्द का सम्बन्ध बस्तर क्षेत्र के अनेक देवताओं से जुडना सिद्ध होने के बाद भी विष्णु पुराण में यह उल्लेख मिलता है कि कांतार निवासी, कौरवों की ओर से महाभारत महा-समर में सम्मिलित हुए थे। द्रौपदी के लिये सम्मान का भी जनजातियों में अभाव दिखता है विशेषरूप से दण्डामि माडिया ‘बोली’ में ‘पांचाली’ एक अपशब्द है।

कृष्ण का आगमन भी कांतार भूमि मे हुआ है। कांकेर (व धमतरी) के निकट सिहावा के सुदूर दक्षिण में मेचका (गंधमर्दन) पर्वत को मुचकुन्द ऋषि की तपस्या भूमि माना गया है। मुचकुन्द एक प्रतापी राजा माने गये हैं व उल्लेख मिलता है कि देव-असुर संग्राम में उन्होंने देवताओं की सहायता की। उन्हें समाधि निद्रा का वरदान प्राप्त हो गया अर्थात जो भी समाधि में बाधा पहुँचायेगा वह उनके नेत्रों की अग्नि से भस्म हो जायेगा। मुचकुन्द मेचका पर्वत पर एक गुफा में समाधि निन्द्रा में थे। इसी दौरान का कालयवन और कृष्ण का युद्ध चर्चित है। कृष्ण कालयवन को पीठ दिखा कर भाग खडे होते हैं जो कि उनकी योजना थी। कालयवन से बचने का स्वांग करते हुए वे उसी गुफा में प्रविष्ठ होते हैं तथा मुचकुन्द के उपर अपना पीताम्बर डाल कर छुप जाते हैं। कालयवन पीताम्बर से भ्रमित हो कर तथा कृष्ण समझ कर मुचकुन्द ऋषि के साथ धृष्टता कर बैठता है जिससे उनकी निद्राभंग हो जाती है। कालयवन भस्म हो जाता है। यही नहीं, कृष्ण के साथ बस्तर अंचल से जुडी एक अन्य प्रमुख कथा है जिसमें वे स्यमंतक मणि की तलाश में यहाँ आते हैं। ऋक्षराज से युद्ध कर वे न केवल मणि प्राप्त करते हैं अपितु उनकी पुत्री जाम्बवती से विवाह भी करते हैं।    

महाभारत में दक्षिण क्षेत्र के माल जनपद का उल्लेख मिलता है। कालिदास नें भी मेघदूत में माल क्षेत्र के भूगोल की विस्तृत व्याख्या की है जो इसे रामगिरि (ओडिशा) से  उत्तर पश्चिम का क्षेत्र (कांतार) घोषित करते हैं। महाभारत में माल क्षेत्र को शाल वन से घिरा हुआ बताया गया है। इस आधार पर माल जनपद की मालदा अथवा मालवा के पठार से की जाने वाली तुलना तर्कपूर्ण नहीं प्रतीत होती व इसे कोरापुट तक विस्तृत प्राचीन बस्तर का क्षेत्र ही माना जाना चाहिये। बस्तर का वर्तमान में बहुचर्चित क्षेत्र माड़ वस्तुत: माल जनपद के अपभ्रंश के रूप में आज भी जाना जाता है एवं यहाँ के निवासी माडिया कहे जाते है।    

एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है। युधिष्ठिर नें जब अश्वमेध यज्ञ का घोडा छोडा था, तब उस घोडे की रक्षा में स्वयं अर्जुन सेना के साथ चला था। दक्षिण की ओर चलते चलते युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का घोडा “स्त्री राज्य” में पहुँच गया। - “उवाच ताम महावीरान वयं स्त्रीमण्डले स्थिता:” (जैमिनी पुराण)। स्त्री राज्य (कांतार) की शासिका का नाम प्रमिला था। उल्लेखों से ज्ञात होता है वह बड़ी वीरांगना थी। प्रमिला देवी के आदेश से अश्वमेध यज्ञ के घोडे को बाँध कर रख लिया गया। घोडे को छुडाने के लिये अर्जुन नें रानी प्रमिला तथा उनकी सेना से घनघोर युद्ध किया; किन्तु आश्चर्य कि अर्जुन की सेना लगातार हारती चली गयी। स्त्रियाँ युद्ध कर रही थीं इसका अर्थ यह नहीं कि वे साधन सम्पन्न नहीं थी जैमिनी पुराण से ही यह उल्लेख देखिये कि किस तरह स्त्रियाँ रथों और हाँथियों पर सवार हो कर युद्धरत थीं – “रथमारुद्य नारीणाम लक्षम च पारित: स्थितम। गजकुम्भस्थितानाम हि लक्षेणापि वृता बभौ॥“; इसके बाद युद्ध का जो वर्णन है वह प्रमिला का रणकौशल बयान करता है। प्रमिला नें अपने वाणों से अर्जुन को घायल कर दिया। अब अर्जुन नें छ: वाण छोडे जिन्हें प्रमिला नें नष्ट कर दिया। विवश हो कर अर्जुन को ‘मोहनास्त्र’ का प्रयोग करना पड़ा जिसे प्रमिला नें अपने तीन सधे हुए वाणों से काट दिया। अब प्रमिला अर्जुन को ललकारते हुए बोली – “मूर्ख! तुझे इस छोटी सी लडाई में भी दिव्यास्त्रों का अपव्यय करना पड़ गया?” – [प्रमीला मोहनास्त्रं तत सगुणम सायकैस्त्रिभि:। छित्वा प्राहार्जुनं मूढ! मोहनास्त्रम न भाति ते॥]  इस उलाहने नें अर्जुन के भीतर ग्लानि भर दी। अर्जुन नें रानी प्रमिला के समक्ष विनम्रता का परिचय दिया एवं संधि कर ली। इसके बाद ही यज्ञ के घोडे को मुक्त किया गया। 

अपने आलेख का प्रारंभ मैने स्त्री अस्मिता तथा उसके प्रतिमानों के उदाहरणों के तौर पर प्राचीन बस्तर को सामने रख कर किया था। इस कथन की पुष्टि मार्कण्डेयपुराण, वात्स्यायन के कामसूत्र, वाराहमिहिर की वृहत्संहिता तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों में वर्णित उल्लेखों से भी होती है। वस्तुत: कांतार के स्त्रीराज्य होने का विवरण सर्वप्रथम महाभारत में ही मिलता है जहाँ शांति पर्व में उल्लेख है कि कलिंग के राजा की पुत्री चित्रांगदा के स्वयंवर के अवसर पर स्त्री राज्य के अधिपति सुग्गल भी आये थे -  सुग्गलश्च महाराज: स्त्री राज्याधिपतिश्च य:। यह स्त्री राज्य एक बडे विमर्श की पृष्ठभूमि बनता है। कौटिल्य नें जिस तरह से कांतार में स्त्री राज्य का उल्लेख किया है उसके अनुसार यह प्रतीत होता है कि दक्षिण से उत्तर की ओर लाये जाने वाले माणिक्यों को इस राज्य से हो कर गुजरना पडता था। साथ ही इस क्षेत्र के खनिजों की जानकारी व महत्ता का विवरण भी चाणक्य उपस्थित करते हैं। महाभारत काल से आगे बढ कर नाग युग के आगमन तथा उसके बहुत बाद भी स्त्री ही सामाजिक व्यवस्था की धुरी बनी रही है। वात्स्यायन का कामसूत्र स्त्री राज्य के अंत:पुर में पुरुषों के होने की व्यवस्था का वर्णन करता हैं – ग्रामनारीविषये स्त्रीराज्ये च युवानांअंतपुरसधर्माणा एकैकस्या: परिग्रहभूता:। वस्तुत: रामायणकाल तथा महाभारत काल के उल्लेख कालांतर में घटित हुई परिस्थितियों की भूमिका बने हैं। वर्तमान समय के स्त्री विमर्श को भी पुरा अतीत की पृष्ठभूमि में ही समझना होगा तभी हम आधुनिक सामाजिक संगठनों को समझ सकते हैं।    
   
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प्रस्तुत दीवार चित्र प्राचीन बस्तर के महाभारत काल से सम्बन्धित उस कथा से जुडा है जब कृष्ण चतुराई से कालयवन का वध करते हैं। 

1 comment:

अभिषेक सागर said...

अच्छी जानकारी...