Tuesday, February 23, 2010

माओवादियों का “सीजफायर” और दिनकर की “शक्ति और क्षमा”

रात जब संचार माध्यमों नें चीखना आरंभ किया कि माओवादियों नें बहत्तर दिनों के सीजफायर का एलान किया है तो जिज्ञासा इस बात की थी कि उनकी शर्ते क्या हैं? हम महान देश के वासी हैं, हमसे आतंकवादी भी अपनी शर्तों पर बात करते हैं। शर्त स्पष्ट है – ऑपरेशन ग्रीन हंट बंद होना चाहिये। लाल-आतंक के लम्बरदार किशन नें जब यह शर्त सार्वजनिक की तो तुरंत ही मेरा ध्यान दिनकर की प्रसिद्ध कविता “शक्ति और क्षमा” की ओर गया। कविता की एक एक पंक्ति इस घटना से भी जुडती है आईये प्रसंग और संदर्भ के साथ इसकी व्याख्या करें।

अनेकों बारूदी सुरंग विस्फ़ोट हुए, हजारों करोड की सरकारी संपत्ति स्वाहा कर दी गयी, अनेकों अपहरण, फिरौतियाँ और कत्लेआम भी जारी रहे किंतु गणतंत्र की साठवी वर्षगांठ बनाने वाले हम खामोश ही रहे। हमें पाकिस्तान की चिंता थी चूंकि उनके घर की आग में हाथ सेकते हमे मजा आ रहा था। हम रस ले कर सुनते रहे कि कैसे तालिबानी निर्ममता से हत्यायें करते हैं, कैसे बम-बंदूखों के तकिये पर सोते हैं। ठीक इसी वक्त लाल-आतंक तालिबानियों की ही रणनीति पर देश के जंगलों की आड में पनपा। उनकी हर गुस्ताखी पर हमनें कंधे झटके और अपने साहसी सैनिकों की शहादत पर कुछ घडियाली आँसुवों को बहाने के सिवा कुछ भी नहीं किया। दिनकर नें चेताया भी था कि -

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे, कहो, कहाँ कब हारा ?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष, तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही।

सहनशीलता एक सीमा से अधिक दुर्गुण है। लाल आतंक के डैने फैलते रहे और हम उन तथाकथित बुद्धिजीवियों के दिखाये सब्ज बाग की हरी भरी सब्जियाँ खाते रहे कि एक दिन क्रांति हो जायेगी और व्यवस्था बदलेगी। सवाल यह कि जिन्हे व्यवस्था से शिकायत है वो सडक पर आयें अपने ठोस सिद्धांतों और वाद-विचार के साथ जनता के बीच जायें, उन्हे जागृत करें तथा मुख्यधारा ही उन्हे एसे बदलाव का रास्ता देती है जहाँ आपके साथ अगर जनता हो तो परिवर्तन अवश्यंभावी है। बंदूख ले कर मासूम आदिवासियों और नीरीह ग्रामीणों की हत्याओं से हिंसा फैला कर क्रांति की आशा भी बेमानी है और वास्तविकता में यह लुटेरापना है।

हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों की दुकानें “लाल” माध्यमों से चलती हैं। इस वाद के कर्ता-धर्ता इकट्ठा होने में बेहद यकीन रखते हैं। एक जैसी बात बोलेंगे, एक जैसा लिखेंगे, एक दूसरे की पीठ खुजायेंगे और केवल एक दूसरे को ही पढेंगे। यकीन नहीं होता तो आज किसी भी स्कूल में किसी भी कक्षा में जा कर समकालीन कवियों/लेखकों का नाम ले कर पूछिये उन्हें जानने वालों में किसी के हाथ शायद ही कभी उठते हैं लेकिन साहित्य के ठेकेदारों के पास जाईये तब पता चलता है कि भईया आज कल फलां-फलां समकालीन हैं। खैर फिर वही बात कि जिनकी लेखनी में इतना गूदा भी नहीं कि जन-जागृति करा सकें वे बंदूख से क्रांति के लिये अखबारों के कॉलम और टीवी के फीचर रचते हैं। देखिये हमारी सहनशीलता कि हम इन्हे बर्दाश्त भी करते हैं और नपुंसकों की तरह इनकी न समझ में आने वाली कविताओं/रचनाओं पर तालियाँ भी पीटते हैं। लाल आतंक इसी तरह की बुद्धिजीविता की आड में पनपा और हम इन्हे धिक्कारने की बजाये खामोश और सहनशील रहे। दिनकर कहते हैं -

अत्याचार सहन करने का, कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज, कोमल होकर खोता है।

मैं बस्तर की बात करूंगा। जब आदिवासी आंदोलित हुए और नक्सलवादियों के खिलाफ हथियार उठा लिया तब एक बडी क्रांति हुई। लाल-आतंक और उनके प्रचारक लेखकों को पहले तो यह समझ ही नहीं आया कि आखिर आम आदमी इस तरह अपने मामूली तीर धनुष और नंगा-चौडा सीना लिये नक्सलियों की इम्पोर्टेड बंदूखों के आगे कैसे खडा हो गया। बाद में लाल-प्रचारकों नें आम आदिमों की इस दिलेरी को सरकार-प्रायोजित बता दिया और मीडिया/पुस्तके/अखबार रंग दिये। नक्सलियों के मानव अधिकार पर ए.सी कमरों में कॉकटेल पार्टियाँ हुईं तथा लोगों को गुमराह करने का अभियान जारी रहा। इनकी फंतासी का खैर जवाब भी नहीं लेकिन यह देश इन्हे हर बार क्षमा ही करता रहा....आखिर कब तक। दिनकर कहते हैं -

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो ।

नक्सलियों को हाथी के दाँत दिखा कर काबू में नहीं किया जा सकता था। आतंकवाद से लडने के लिये शास्त्रार्थ से काम चलेगा भी नहीं वर्ना तो बहुत सी महान समाजसेविका टाईप लेखिकायें/लेखक हैं जो इसके लिये विदेशी पैसे से बडे बडे प्रेस कॉंफ्रेंस करती है, भूख हडताल-वडताल करती/करते और करवाती/करवाते हैं। उनसे मीडिया अपने हर कार्यक्रम में बैठा कर संवाद अदायगी करवाता रहता है। खैर मीडिया के काम में बोलने वाले हम कौन? लोकतंत्र का पाँचवा खंबा है जो कि सबसे अधिक पॉलिश्ड है, यहाँ तक कि उसे भीतर लगी दीमक दिखती नहीं है।

सरकारी तंत्र हाँथ जोडे नक्सलियों के आगे पीछे दशकों से घूमता रहा कि “मान जाओ भईया-दादा” लेकिन हाल वैसा ही जैसे सागर नहीं माना था और राम तीन दिवस तक रास्ता ही माँगते रहे। रास्ता तब बताया गया जब राम नें धनुष को अपने कंधे से उतार कर संधान किया -

तीन दिवस तक पंथ मांगते, रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द, अनुनय के प्यारे-प्यारे ।
उत्तर में जब एक नाद भी, उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की, आग राम के शर से ।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि, करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की, बँधा मूढ़ बन्धन में।

ऑपरेशन ग्रीन हंट का नक्सलवाद समर्थक बुद्धिजीवियों/पत्रकारों/मीडिया कर्मियों और लालबुझक्कडों नें खुल कर विरोध किया, लेकिन देखिये राम नें धनुष में अभी प्रत्यंचा ही तो चढाई है, वार्ता की टेबल माओवादियों ने सजा ली है। वे जानते हैं कि जब लिट्टे नहीं रहा जब तालिबान नप गये तो इनकी भी वो सुबह आ ही जायेगी। वार्ता की पेशकश वस्तुस्थिति में ऑपरेशन ग्रीन हंट की सफलता पर मुहर है। नक्सलवाद से निर्णायक मुक्ति का समय आ गया है। वार्ता माओवादियों की शर्तों पर नहीं सरकार की शर्तों पर होनी चाहिये साथ ही नक्सल समर्थी बुद्धिजीवी सारी परिस्थिति पर पानी फेर देंगे इस लिये सीधे माओवादी और सरकार ही सीधे बात करे तब शायद किसी दिशा पर पहुँचा जा सकेगा। यहाँ भी यह सजगता आवश्यक है कि इस सीजफायर की नौटंकी का माओवादी कहीं अपनी ताकत बढानें में इस्तेमाल न करें। दिनकर नें रास्ता बताया है –

सच पूछो , तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की ।
सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है।

4 comments:

nitesh said...

दिनकर जी की कविता खरी उतरती है आज की कसौटी पर। माओवादियो से बात होनी ही नहीं चाहिये।

somendra said...

राजीव जी आपकी लेखनी में ओज है. भगवान् राम का तो स्मरण मात्र होने से अंग प्रत्यंग में स्फुरण होने लगता है. हाँ बहुत हुआ अनुनय विनय, यदि अर्जुन ने दुष्ट स्वजनों के पाश से धर्मं को छुड़ाने के लिए अस्त्र उठाने में संकोच न किया तो इन दुर्जन नक्सलों पर प्रहार करने में संकोचक्यों.

vedvyathit said...

desh rksha ke liye bhi hmare shashtron me niti nirdesh diye huye hain mnu smriti me likha hai ki raja ka krtvy hai ki vh aatataai ko kisi bhi prkar se mar de
fir vhan aatataai ki pribhasha bhi dee hui hai ki jo kisi istri ka hrn krta hai doosre ka dhn hrn krta hai adeshdroh krta hai kisi ko vish deta yani jivn hrn krta hai
mao vadi bhi ye kr rhe hain at: raja yani srkar ka yh krtvy hai ki us ka vdh kiya jaye aur jnta ko in ke atya char se mukti dilai jaye
prntu jb srkar in ke sath shanubhooti rkhegi ti vh jnta ko in se kaise mukti dila skti hai
snklphin srkar kuchh nhi kre skti hai jise hm pakistan ke mamle me dekh chuke hain mngai bhrshtachar aur angint mudde hain jin me srkar asfl hai kyon ki vh apne swarth phle dekhti hai
bhai rajeev ne is bhut sundr dhng se prstutkiya hai sadhuvad
dr.ved vyathit

Satish Saxena said...

बहुत बढ़िया सामयिक लेख , आपके विचारों से काफी हद तक सहमत हूँ ! मगर समस्याओं की जड़ उखाड़नी भी बहुत आवश्यक है !