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Saturday, December 07, 2013

“बस्तर से विलुप्त होती उसकी पहचान – तूम्बा”


यह प्रश्न अब प्रासंगिक है कि क्या तूम्बा बस्तर में अप्रासंगिक होता जा रहा है? तूम्बा और बस्तरिया आदिवासी बहुत लम्बे समय से एक दूसरे की पहचान सदृश्य हैं। एक समय लगभग हर आदिवासी कंधे की शान हुआ करता था तूम्बा। संदर्भ पर विस्तार से बात की जाये इससे पहले यह बताना आवश्यक है कि तूम्बा है क्या और यह किस तरह निर्मित होता है?

लौकी के फल से तूम्बे का निर्माण किया जाता है। प्राय: लौकी के पुराने अथवा बुढ़ा गये फल ही तूम्बा निर्माण के लिये चुने जाते हैं। आवश्यकतानुसार समुचित आकार और प्रकार का फल तोड़ कर सर्वप्रथम उसका शीर्ष भाग काट कर निकाल लिया जाता है। अब इसी काटे गये हिस्से की ओर से बहुत सावधानी पूर्वक लौकी के भीतरी अंश को किसी नुकीली वस्तु से धीरे धीरे निकाल कर खोखला बनाया जाता है। खोखला हो जाने के पश्चात भीतर पानी भर कर इस खोल अथवा ढांचा मात्र रह गये लौकी के फल को किसी कोने में यूं ही छोड दिया जाता है। स्वाभाविक है कि अगले आठ दस दिनों मे भीतरी भाग पूरी तरह सड़ जायेगा जिससे भीतर जो कुछ भी अंश है उसे आसानी से बाहर निकाला जा सकेगा। अब सड़े हुए अंश को सावधानी पूर्वक निकालने के पश्चात लौकी के फल का केवल एक आवरण भर रह जाता है जिसे भली भांति सुखा कर ठोस बना लिया जाता है। ठोस हो जाने के पश्चात तूम्बा अपने आप में एक मजबूत संरचना होती है जो किसी बर्तन, घट अथवा पात्र का विकल्प बन सकती है। इस तरह तैयार होता है एक तूम्बा जो वस्तुत: आदिवासियों का वाटरबोटल, सल्फीहोल्डर, पेज कैरियर आदि आदि का काम बखूबी करता है। तरह तरह की वस्तुवों को संरक्षित रखने योग्य भांति भांति के आकार वाले पात्र यहाँ तक कि छिंदरस या शराब परोसने के लिये ओरकी (चम्मच) बनाना भी तूम्बे से किया जाता है। अब पेड़ से सल्फी, छींद या ताड़ का रस उतारना हो तो भी तूम्बा ही आदिवासी समाज का प्रमुख सहयोगी है।

किसी वस्तु की समाज में उपादेयता जानने का पैमाना है कि क्या मिथक कथाओं और लोकगीतों में भी उसका उल्लेख मिलता है? तूम्बा आपको हर कहीं मिलेगा यहाँ तक कि मुहावरों और पहेलियों में भी। एक गोंडी मिथक कथा तो तूम्बे को संसार की उत्पत्ति के साथ जोड़ती है क्योंकि एसा मानना है कि जब कुछ भी कहीं नहीं था तब भी तूम्बा था। बस्तर का पालनार गाँव ही वह स्थल है जहाँ से धरती के उत्पन्न होने की आदिवासी संकल्पना जुडती है। गोंडी मिथक कथा मानती है कि सर्वत्र पानी ही पानी था बस एक तूम्बा पानी के उपर तैर रहा था। इस तूम्बे में गोंडों का आदिपुरुष, डड्डे बुरका कवासी, अपनी पत्नी के साथ बैठा हुआ था। तभी कहीं से भीमादेव अर्थात कृषि का देवता प्रकट हुआ और हल चलाने लगा। जहाँ जहाँ वह नागर (हल) चलाता धरती प्रकट होने लगती। जब दुनिया की आवश्यकता जितनी धरती बन गयी तब भीमादेव ने हल चलाना बंद कर दिया। अब उसने पहली बार धरती पर अनाज, पेड-पौधे, लता-फूल, जड़ी -बूटियाँ, घास-फूस उगा दिये। जहाँ जहाँ मिट्टी हल चलाने से खूब उपर उठ गयी थी, वहाँ पहाड़ बन गये। इसके बाद डड्डे बुरका कवासी ने धरती पर अपनी गृहस्थी चलाई। उसको दस लड़के और दस लडकियाँ हुईं। आपस में उनकी शादियाँ कर दी गयी। इस तरह दस गोत्र – मडकामी, मिडियामी, माडवी, मुचाकी, कवासी, कुंजामी, कच्चिन, चिच्चोंड, लेकामी और पुन्नेम बन गये। इन्ही गोत्रों में किसी के पेट से बकरा तो किसी के उल्लू तो किसी के साँप आदि पैदा हुए। इसी तरह पूरी सृष्टि बन गयी। ‘डड्डे बुरका कवासी’ ने अपने बेटों को आदेशित कर दिया कि एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है।“ यह कथा वस्तुत: आज आदिवासी समाज के विस्तार को समझने का बहुत ही उपयुक्त माध्यम है किन्तु यह समझना भी आवश्यक है कि तूम्बा इस सृष्टि उत्पत्ति कथा के केन्द्र में है। यही कारण है कि आदिवासी समाज बहुत आदर और सम्मान के साथ तूम्बे को अपने साथ रखता है। एक भतरी कहावत है कि ‘तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी’ अर्थात तूम्बा का फूटना एक अपशकुन है।“

तूम्बा केवल दैनिक उपयोग की वस्तु नहीं है। इसे आदिवासी समाज ने अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनाया है। प्राय: मंद या सल्फी के सुरूर में थिरकने वाले कदमों के बाद भी आदिववासी अपने कंधे पर एक लकडी जिससे लटकता हुआ तूम्बा थामे मिलेंगे। ये तूम्बे किसी तैलीय पदार्थ लेपन के कारण चमकते हुए अथवा किसी भित्तिचित्र के उसपर उकेरे जाने के कारण सुन्दर दीख पडते हैं। तूम्बे पर उकेरे जाने वाले भित्तिचित्रों में आदिवासी जीवन, भांति भांति की मानवआकृतियाँ जिसमे गौर सींग माडिया और तिरहुड्डी बजाती नृत्यांगनायें, पेड-पौधे, पशु पक्षी आदि प्रमुख हैं। कई आदिवासी तो तूम्बे को सुरक्षा और सुन्दरता प्रदान करने के लिये उसे गुथी हुई रस्सी से पूरी तरह गाथ देते हैं। इतना ही नहीं अंचल के कई वाद्य हैं जैसे किंदरी, तोहेली, डुमिर, रामबाजा....इन सभी में तूम्बे का घट लगा होता है। घोटुल मुरिया तो अपने कई नृत्यों में तूम्बों से भयानक मुखौटे भी बना कर प्रयोग में लाते हैं। तूम्बे से बने मुखौटों का यदि आज भी भव्य प्रदर्शन देखना है तो माँ दंतेश्वरी के सम्मान मे दंतेवाड़ा में प्रतिवर्ष लगने वाली फागुन मड़ई में इसे देखा जा सकता है। फागुन मडई में आदिवासी गँवर, चीतल, कोड़री, खरगोश जैसे जानवरों का स्वांग रच कर नृत्य करते हैं जिसके लिये तूम्बे से बने मुखौटों का प्रयोग किया जाता है।

बदलाव अवश्यम्भावी हैं किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि किसी संस्कृति को अपनी पहचान से ही हाथ धो बैठना पड़े। यह होगा कि बाजार धीरे धीरे बस्तर को अपने आगोश में जकड़ लेगा। देखते ही देखते लकडी की पड़िया के स्थान पर प्लास्टिंक की कंघिया आ गयीं बिलकुल उसी तर्ज में मिनरल वाटर की खाली बोतलों ने तूम्बे का स्थान लेना आरंभ कर दिया है। प्रयोग करो और फेंको की बाजार प्रदत्त सुविधा ने आदिवासियों को जाने-अनजाने ही तूम्बों से दूर कर दिया है। पहले जहाँ तूम्बा हर कंधे की शोभा बढाता था अब दसियों मे से किसी एक के पास आपको नजर आयेगा; यहाँ तक कि मेले मड़ईयों में भी बहुत तलाश के बाद ही दृष्टिगोचर होता है। हालात यह हैं कि अब इसके संरक्षण की आवश्यकता महसूस होने लगी है। यह सामाजिकता का स्वाभाविक नियम है कि जो वस्तु चलन मे नहीं रहती वह विलुप्त होने लगती है। बस्तर की कितनी ही दुर्लभ वस्तुवे, प्रथायें और रिवाज अब अस्तित्व में नहीं हैं, क्या यही हश्र तूम्बे का भी होने जा रहा है? क्या तूम्बे को कलात्मक वस्तुओं की श्रेणी मे सम्मिलित कर संरक्षित नहीं किया जा सकता? क्या तूम्बे को पेनस्टेंड बना कर स्ट्डी रूम में, चम्मच आदि रखने के लिय किचन में अथवा भित्तिचित्रों से सुसज्जित कर ड्राईंगरूमों में जगह नहीं दी जा सकती? बाजार जिसे छीन रहा है उसे ही आज बाजार मिल जाये तो क्या संरक्षण को नयी दिशा नहीं मिलेगी? बस्तर में शिक्षित आदिवासी अब लगातार बढ रहे हैं और आवश्यकता यह भी है कि वे अपनी संस्कृति का मोल समझें और स्वयं इसके संरक्षण के लिये आगे आयें। तूम्बे के बिना बस्तर अर्थात जल बिन मछली की कल्पना करना है।

- राजीव रंजन प्रसाद
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Tuesday, October 29, 2013

बस्तर के भित्तिचित्र कला भी हैं और इतिहास भी


पाषाणकाल से ही स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम बस्तर के आदिवासी समाज के पास उपलब्ध रहा है। अपनी अनुपम शैली तथा कलात्मक भाषा से बस्तर के आदिवासी समाज ने मनुष्य सभ्यता और उसके विकास के विभिन्न चरणों को लिपिबद्ध किया है। आप चित्रलिपि नाम देना चाहें अथवा शैलचित्र नामित करें किंतु मैं इसे लेखन कला के आरंभ, किसी भी लिपि के उद्भव के साथ साथ एसा अमरकंटक मानता हूँ जहाँ चित्रकला की विशाल नर्मदा का उद्गम स्थल है। दक्षिण बस्तर में अवस्थित अनेक पाषाणकालीन गुफायें यह बताती हैं कि वे ही आदि-मनुष्य का प्रारंभिक निवास थे। 

चित्रकला और गुफाचित्रों पर चर्चा से पहले बस्तर में अवस्थित आदिमनुष्य के आरंभिक हथियारों तथा औजारों की एक झलख देखें। निम्न पुरापाषाण काल के मूठदार छुरे जिसकी नोक चोंच के आकार की है, इन्द्रावती, नारंगी और कांगेर नदियों के किनारे मिले हैं। मध्यपाषाण काल में फ्लिट, चार्ट, जैस्पर, अगेट जैसे पत्थरों से बनाये गये तेज धार वाले हथियार इन्द्रावती नदी के किनारों पर खास कर खड़क घाट, कालीपुर, भाटेवाड़ा, देउरगाँव, गढ़चंदेला, घाटलोहंगा के पास मिले हैं; इन जगहों से अब भी कई तरह के खुरचन के यंत्र, अंडाकार मूठ वाला छुरा और छेद करने वाले औजार मिल रहे हैं। उत्तर-पाषाणकाल का आदमी छोटे और प्रयोग करने में आसान हथियार बनाने लगा था; इनको लकड़ी, हड्डी या मिट्टी की मूठों में फँसा कर बाँधा जाता था, यद्यपि हथियार व औजार चर्ट, जैस्पर या क्वार्ट्ज जैसे मजबूत पत्थरों से ही बनाए जाते थे। इस समय के अवशेष इन्द्रावती नदी के किनारों पर विशेष रूप से चित्रकोट, गढ़चंदेला तथा लोहांगा के आसपास प्राप्त होते हैं। उत्तर-पाषाण युग के समानांतर तथा उसके पश्चात धातुओं ने पत्थर के हथियारों और औजारों का स्थान ले लिया। यदि हथियारों और औजारों के प्रकार ध्यान से विवेचित किये जाये तों उनकी उत्पत्ति और विकास के चरणों में न केवल शिकार, आत्मरक्षा, खेती-बागानी अपितु कलात्मकता का भी बराबर योगदान रहा है। खुरचन के लिये प्रयोग में आने वाले मूठदार हथियार आदिमनुष्य की अभिव्यक्ति का साध्य भी बने और उसने शनै: शनै: अपनी मौखिक और सांकेतिक भाषा को पत्थरों, पर्वतों और गुफाओं पर अंकित करना आरंभ कर दिया।

आड़ी टेढी खुरचनों से आरंभ हो कर परिष्कृत गुफाचित्रों तक कला की प्रारंभिक यात्रा बहुत रुचिकर जान पड़ती है। आदि-मनुष्य तब अपनी जिज्ञासाओं का परिष्कार तथा नित नये आविष्कार कर रहा था जिन्हें वह अचरज से देखता तथा उसकी कोशिश होती कि अपने साथियों और संततियों को भी वह इस नव-ज्ञान से अवगत करा सके। वस्तुत: बस्तर में प्राप्त गुफाचित्रों में दैनिक जीवन विषयक संदर्भों का आलेखन गुफा की छत और दीवारों पर किया गया है। इन चित्रों में आखेट, मधुसंचय, नृत्य, पशुयुद्ध, अग्निपूजा, वनस्पति इत्यादि से सम्बन्धित दृश्य प्रस्तुत किये गये हैं। दक्षिण बस्तर में लगभग चार हजार फुट ऊँची नड़पल्ली पहाड़ी के ऊपर चित्रित गुफा प्राप्त हुई है जिसमें हिरणों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। मटनार गाँव के पास इन्द्रावती नदी के तट पर चित्रित पशु-पक्षियों तथा मनुष्य की हथेलियों के चित्रन से यहाँ किसी अलौकिक शक्ति की पूजा का संकेत मिलता है। अपनी खुरचन कला मे प्रवीणता हासिल करने के पश्चात उसे प्रकृति ने ही रंगों का आरंभिक ज्ञान भी दिया होगा। फरसगाँव के समीप आलोर के निकट की पहाडी पर अनेक शैल चित्र बने हुए मिले हैं जो लाल रंग के हैं तथा मृदा वर्णों से चित्रित हैं; इन चित्रों को क्षरण के कारण स्पष्ट नहीं देखा जा सकता किंतु इनमे मानव और पशुओं की आकृति को आसानी से पहचाना जा सकता है।    

अब यदि इन आरंभिक चित्रों का बारीकी से प्रेक्षण निरीक्षण करें तो यह ज्ञात होता है कि रेखांकन से चित्र तक पहुँचने के पश्चात आदि-मनुष्य ने इनमे रंग भरने की भी कोशिश की होती। भांति भांति के प्रयोगों के पश्चात उसे गेरू मिट्टी के रूप में एक एसा रंग मिल गया होगा जो न केवल लम्बे समय तक स्थायी रह सकता था अपितु उसकी चटखीली लाल तथा भूरे रंग की आभा भी प्रभावित करती थी। गेरू-मिट्टी की कृतियों ने गुफाचित्रों को सजीव करना प्रारंभ किया तथा  कालांतर में अन्य प्राकृतिक रंगों का भी आविष्कार व प्रयोग होने लगा। उदाहरण के लिये पत्तियों के रस से हरा रंग निकाला गया होगा तो भांति भांति के फूलों ने लाल, नीले, बैंगनी, पीले आदि रंग प्रदान किये होंगे; काले रंग के लिये गाय के गोबर का प्रयोग किये जाने के भी संकेत प्राप्त होते हैं। 

समय बदलता गया और चित्रों के विषय भी बदलते चले गये। अब इन चित्रों में मनुष्य का सामाजिक जीवन प्रविष्ठ हो गया; उसका जन्म, उसकी मृत्यु, उसका बालपन, उसका बुढापा, उसका प्रेम उसके यौन सम्बन्ध, उसकी वितृष्णा, उसकी नफरत, उसके युद्ध, उसके वाद्य, उसके नृत्य, उसके देव, उसकी देवी, उसकी जिज्ञासायें उसके सपने.....यह सूची लगातार लम्बी होती चली गयी और ये भित्तिचित्र बस्तर की एक परिष्कृत और विश्व भर में सराही जाने वाली कला के रूप में अब हमारे सामने है। भित्तिचित्रों में बस्तर के लोक जीवन ही नहीं लोक काव्यों को भी सम्पूर्णता से अभिव्यक्त किया है, जनश्रुतियों और कथाओं को मूर्तरूप दे कर पीढियों के लिये सुरक्षित करने का महति कार्य इन चित्रों के माध्यम से आज भी हो रहा है। बस्तर में भित्तिचित्र कला को गढ लिखना अथवा गढ लेखन करना भी कहा जाता रहा है। इन भित्तिचित्रों के केवल विषय ही नहीं बदले अपितु समय के साथ चित्र उकेरने और रंग भरने के माध्यम भी बदलते चले गये। गेरु मिट्टी, प्राकृतिक रंगों के साथ साथ अब चावल का आंटा जिसे स्थानीय बोली में बाना कहा जाता है; फर्श और दीवार के चित्रों को रंग व स्वरूप देने के कार्य में लिया जाने लगा। इस माध्यम से फर्श पर की जाने वाली चित्रकारी को बाना लिखना कहते हैं। चावल के आँटे को पानी में घोल लिया जाता है फिर कपडे के टुकडे की पोतनी बना कर उसी से मिट्ती अथवा लिपे हुए फर्श और दीवारों पर चित्रकारी करने की परम्परा बस्तर की थाती है। 

एक मुकम्मल कला बनने के साथ ही गढलेखन अथवा भित्तिचित्र निर्माण को न केवल सम्मान ही प्राप्त हुआ अपितु उसके आयामों मे भी परिवर्तन देखने को मिले। अब इन भित्तिचित्रों ने देवगुडियों को सजाया, घोटुलों के दरवाजों, फर्श और दीवारों को संवारा, महत्वपूर्ण व्यक्तियों के निवास की शोभा बनी। वेरियर एल्विन की पुस्तक “दि डोर एण्ड वॉल डेकोरेशन” में बस्तर के भित्तिचित्रों की महान कलायात्रा का सुन्दर वर्णन उपस्थित है। आधुनिक समय ने बस्तर की इस कला को दीवार और भूमि जैसे केनवास के अलावा कागज और कपडे के माध्यम भी प्रदान किये हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर फेब्रिक रंग, पोस्टल कलर या ऑयल पेंट का उपयोग भी किया जाने लगा है। यद्यपि इस कला में अब भी परम्परागत विषयवस्तु को ही उकेरा जाता है किंतु समय के साथ आधुनिक बिम्बों के प्रयोग भी होने लगे हैं। जगदलपुर के मानवविज्ञान संग्रहालय में मेरी मुलाकात दो चित्रकारों महारूराम नेताम और बुधराम मरकाम से हुई। ये दोनो ही कोण्डागाँव से आये हुए कलाकार थे तथा आधुनिक माध्यमों और रंगों से अपनी विरासत कला का प्रदर्शन कर रहे थे। बस्तर की भित्तिचित्र कला के एक बडे साधक हैं कोण्डागाँव निवासी श्री खेम वैष्णव जिन्होंने न केवल इसे अपनी साधना बनाया अपितु देश-विदेश में इस कला की ख्याति को पहुँचाया है। इस वर्ष आईपीएल-2013 में देहली देयर डेविल्स की क्रिकेट टीम का सांकेतिक बल्ला श्री खेम वैष्णव द्वारा ही डिजाईन किया गया था जिसमे उन्होंने बस्तर की भित्ति चित्र कला की अनेक बारीकियाँ प्रस्तुत की थीं; यह इस कला की अनंत यात्रा का एक महत्वपूर्ण पडाव भर है। यहाँ हमें ठहर कर सोचना होगा कि कुछ विवादास्पद कलाकृतियों के लिये लाखों-करोडो की कीमत अदा करने वाले लोग क्यों इस महति कला की ओर उपेक्षा की दृष्टि रखते हैं?

 – राजीव रंजन प्रसाद


Friday, October 25, 2013

बस्तर में बांस की कलात्मक दुनियाँ


तेरहवी शताब्दी का पूर्वार्द्ध जब अन्नमदेव ने चक्रकोट के नाग शासकों को अंतिम रूप से परास्त कर अपना शासन स्थापित किया तब कोंटा से कांकेर तक उनके द्वारा शासित क्षेत्र का नाम बस्तर रखा गया। इस नामकरण के पीछे अनेक कहानियाँ हैं जिसमे से प्रमुख मान्यता है कि वारंगल से निष्काषित होने के पश्चात बस्तर में अपने विजय अभियान का आरंभ करने के दौरान अन्नमदेव को अनेक बार बांसतरी में विश्राम करना पड़ा; बांस से शासक के इसी सम्बन्ध ने संभवत: बस्तर शब्द की उत्पत्ति की होगी। आदिवासी जीवन में वही वस्तुएं कला का माध्यम भी बनी हैं जो उनके आम जीवन की संगिनी रही हैं। वह चाहे पाषाण हो, धातु हो, मृदा हो, काष्ठ हो अथवा बांस। जहाँ तक बांस का प्रश्न है, यह आदिवासी जीवन का अभिन्न है तथा मृत्यु पर्यंत तक उसकी किसी न किसी दैनिक गतिविधि का हिस्सा बना रहता है।



लोकजीवन से आगे बढ कर लोक संस्कृति का हिस्सा बनते हुए बांस कभी आदिवासियों की पूजा परम्परा में इस्तेमाल होते हैं तो कभी लोकनृत्य और लोक वाद्य का भाग भी बनते हैं। इसका महत्वपूर्ण उदाहरण डंगईयाँ को कहा जा सकता है। एक मोटे मजबूत साबुत बाँस को डंगई कहते हैं जिसके शिखर पर चाँदी, कासा, या पीतल का बना सम्बन्धित देवी या देवता का एक कलापूर्ण प्रतीक लगा होता है; इस प्रतीक को हलबी-भतरी में गुबा कहते हैं। भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा पर्व के दौरान जगदलपुर के सीरासार चौक में तुपकी खूब चलाई जाती है। वस्तुत: तुपकी बाँस से बनी एक तिकोनी नली होती है जिसकी प्रक्रिया किसी पिचकारी सदृश्य मानी जा सकती है। इसके मूल में मलकांगिनी के फल रख कर किसी भी आगंतुक अथवा मित्र पर उसे सधान कर मारा जाता है। मोहरी, नांगड और तुडबुडी बस्तर अंचल के लोक वाद्यों में प्रमुख माने जाते हैं तथा सभी के निर्माण में बांस किसी न किसी तरह सहयोगी होता है। धनकुल बस्तर की ही एक अद्भुत वाध्य रचना है जिसमें एक आम वनवासी की गृहस्थी में रोज काम आने वाली कई वस्तुओं का प्रयोग होता है जैसे हंडी सूप, धनुष और बाँस की कमची। वाद्य ही क्यों गेडी नृत्य, डंडारी नृत्य आदि में भी प्रमुखता से बाँस ही प्रयोग में लाया जाता है।

बांस बस्तर में विवाद के केन्द्र में भी रहा जब बांग्लादेश से आये विस्थापितों को अरण्य क्षेत्रों में बसाया जाने लगा था। उस दौरान बंगाल से लायी गयी बांस की कुछ किस्मों के बस्तर में रोपण की योजनायें बनी तथा उनका क्रियान्वयन हुआ। अनेक तरह के विरोध तब सामने आये एवं विशेषज्ञों ने सिद्ध किया कि कलात्मक वस्तुओं के निर्माण में भी बस्तर का नैसर्गिक बांस उच्च कोटि की गुणवत्ता रखता है। अपनी पुस्तक ‘बस्तर – इतिहास एवं संस्कृति’ में लाला लगदलपुरी लिखते हैं कि “आदिवासियों की दृष्टि में बस्तर अंचल में कुल नौ प्रकार के बांस होते हैं। घर बावँस, बरहा बावँस, पानी बावँस, डोंगर बावँस, पोड़सी बावँस, रान बावँस, माल बावँस, सुन्दर कोया और बोंगू। इनमे से केवल डोंगर बावँस, पोडसी बावँस, माल बावँस और रान बावँस ही टट्टे, टोकने, सूप और छतूडी आदि बनाने के काम में लाये जाते हैं और शेष से मोटे काम निबटाये जाते हैं। पानी बाँस पतला होता है जिससे बाँसुरी बनती है और शहनाई का मुख्य भाग तैयार किया जाता है। बोगू बाँस एक मोटा बांस होता है, इतना मोटा कि उससे बने पात्र दक्षिण बस्तर में ताडी उतारने और पानी पीने के काम आते हैं”।

इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि विस्थापित बंगालियों के साथ आयी बांस कला का बस्तर में अवस्थित परम्परागत शिल्प के साथ बखूबी संगम हुआ तथा उसमें आधुनिकता के तत्व सम्मिलित होने लगे। बस्तर के आदि-बांस शिल्पियों को नयी तकनीक और नये प्रयोगों से प्रशिक्षित किया गया तथा वे अब कुछ एसी वस्तुओं का भी निर्माण करने लगे जो उपभोक्तावादी संस्कृति अपने बाजार के लिये चाहती थी। मुख्य रूप से बांस से बने सोफा सेट, डायनिंग टेबल, टेबल लैम्प, गुलदस्ते, मोर, मछली, टोकनी, परदे आदि तैयार किये जाने लगे। छत्तीसगढ हस्त शिल्प विकास निगम, राष्ट्रीय शिल्प बोर्ड आदि सरकारी संस्थायें तथा अनेक गैर सरकारी संस्थायें सामने आयीं जिन्होंने आदिवासियों की परम्परागत बांस-कला तथा उनके द्वारा निर्मित नये दौर के उत्पादों को बाजार देना आरंभ किया। नारायणपुर, अंतागढ, पखांजुर तथा ओरछा आदि क्षेत्रों में बांस से विभिन्न वस्तुए तैयार करने के लिये प्रशिक्षण तथा प्रदर्शन केन्द्र स्थापित किये गये। मृगनयनी एम्पोरियम के माध्यम से यहाँ निर्मित उत्पादों के लिये अनेक विक्रय केन्द्र उपलब्ध कराये गये।   

मुझे बहुत निकटता से नारायणपुर के बाँस कला केन्द्र को देखने का अवसर मिला है। यह भी बताना चाहूंगा कि यहाँ का केन्द्र उन आदिवासी परिवारों के लिये पुनर्वास की तरह भी कार्य कर रहा है जो नक्सलवाद की विभीषिका के कारण अबूझमाड़ से पलायन कर यहाँ पहुँचे हैं तथा आजीविका के लिये उनके ही साधन उन्हे थमाये गये हैं। यहाँ मेरी मुलाकात बांस कला के अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शिल्पी पंडी राम मंडावी से हुई जो अबूझमाड़ के प्रवेशद्वार गढबंगाल से हैं। उन्होंने अपनी अनेक बाँस की निर्मित कलाकृतियाँ मुझे दिखाई तथा भारत के बाहर उनके हाँथ का किन किन देशों में क्या क्या बना हुआ है इससे भी मुझे परिचित कराया। घुटने के उपर वाली लुंगी और कमीज में वे आधी दुनिया घूम चुके हैं तथा प्रशंसाये बटोरी हैं। पंडी राम मंडावी में प्रसिद्धी और पैसे ने कुछ नहीं बदला यहाँ तक कि उसके नंगे पैर में जूता नहीं आया; उनके सिर का साफा नहीं बदला; हाँथ का झोला नहीं बदला। मुझे प्रसन्नता होती है कि कलाकार नहीं बदलते क्योंकि उनके हाथों की महारत का मर्म उनकी अंतरात्मा में अंतर्निहित होता है।   

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