यह प्रश्न अब प्रासंगिक है कि क्या तूम्बा बस्तर में अप्रासंगिक होता जा रहा है? तूम्बा और बस्तरिया आदिवासी बहुत लम्बे समय से एक दूसरे की पहचान सदृश्य हैं। एक समय लगभग हर आदिवासी कंधे की शान हुआ करता था तूम्बा। संदर्भ पर विस्तार से बात की जाये इससे पहले यह बताना आवश्यक है कि तूम्बा है क्या और यह किस तरह निर्मित होता है?
लौकी के फल से तूम्बे का निर्माण किया जाता है। प्राय: लौकी के पुराने अथवा बुढ़ा गये फल ही तूम्बा निर्माण के लिये चुने जाते हैं। आवश्यकतानुसार समुचित आकार और प्रकार का फल तोड़ कर सर्वप्रथम उसका शीर्ष भाग काट कर निकाल लिया जाता है। अब इसी काटे गये हिस्से की ओर से बहुत सावधानी पूर्वक लौकी के भीतरी अंश को किसी नुकीली वस्तु से धीरे धीरे निकाल कर खोखला बनाया जाता है। खोखला हो जाने के पश्चात भीतर पानी भर कर इस खोल अथवा ढांचा मात्र रह गये लौकी के फल को किसी कोने में यूं ही छोड दिया जाता है। स्वाभाविक है कि अगले आठ दस दिनों मे भीतरी भाग पूरी तरह सड़ जायेगा जिससे भीतर जो कुछ भी अंश है उसे आसानी से बाहर निकाला जा सकेगा। अब सड़े हुए अंश को सावधानी पूर्वक निकालने के पश्चात लौकी के फल का केवल एक आवरण भर रह जाता है जिसे भली भांति सुखा कर ठोस बना लिया जाता है। ठोस हो जाने के पश्चात तूम्बा अपने आप में एक मजबूत संरचना होती है जो किसी बर्तन, घट अथवा पात्र का विकल्प बन सकती है। इस तरह तैयार होता है एक तूम्बा जो वस्तुत: आदिवासियों का वाटरबोटल, सल्फीहोल्डर, पेज कैरियर आदि आदि का काम बखूबी करता है। तरह तरह की वस्तुवों को संरक्षित रखने योग्य भांति भांति के आकार वाले पात्र यहाँ तक कि छिंदरस या शराब परोसने के लिये ओरकी (चम्मच) बनाना भी तूम्बे से किया जाता है। अब पेड़ से सल्फी, छींद या ताड़ का रस उतारना हो तो भी तूम्बा ही आदिवासी समाज का प्रमुख सहयोगी है।
किसी वस्तु की समाज में उपादेयता जानने का पैमाना है कि क्या मिथक कथाओं और लोकगीतों में भी उसका उल्लेख मिलता है? तूम्बा आपको हर कहीं मिलेगा यहाँ तक कि मुहावरों और पहेलियों में भी। एक गोंडी मिथक कथा तो तूम्बे को संसार की उत्पत्ति के साथ जोड़ती है क्योंकि एसा मानना है कि जब कुछ भी कहीं नहीं था तब भी तूम्बा था। बस्तर का पालनार गाँव ही वह स्थल है जहाँ से धरती के उत्पन्न होने की आदिवासी संकल्पना जुडती है। गोंडी मिथक कथा मानती है कि सर्वत्र पानी ही पानी था बस एक तूम्बा पानी के उपर तैर रहा था। इस तूम्बे में गोंडों का आदिपुरुष, डड्डे बुरका कवासी, अपनी पत्नी के साथ बैठा हुआ था। तभी कहीं से भीमादेव अर्थात कृषि का देवता प्रकट हुआ और हल चलाने लगा। जहाँ जहाँ वह नागर (हल) चलाता धरती प्रकट होने लगती। जब दुनिया की आवश्यकता जितनी धरती बन गयी तब भीमादेव ने हल चलाना बंद कर दिया। अब उसने पहली बार धरती पर अनाज, पेड-पौधे, लता-फूल, जड़ी -बूटियाँ, घास-फूस उगा दिये। जहाँ जहाँ मिट्टी हल चलाने से खूब उपर उठ गयी थी, वहाँ पहाड़ बन गये। इसके बाद डड्डे बुरका कवासी ने धरती पर अपनी गृहस्थी चलाई। उसको दस लड़के और दस लडकियाँ हुईं। आपस में उनकी शादियाँ कर दी गयी। इस तरह दस गोत्र – मडकामी, मिडियामी, माडवी, मुचाकी, कवासी, कुंजामी, कच्चिन, चिच्चोंड, लेकामी और पुन्नेम बन गये। इन्ही गोत्रों में किसी के पेट से बकरा तो किसी के उल्लू तो किसी के साँप आदि पैदा हुए। इसी तरह पूरी सृष्टि बन गयी। ‘डड्डे बुरका कवासी’ ने अपने बेटों को आदेशित कर दिया कि एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है।“ यह कथा वस्तुत: आज आदिवासी समाज के विस्तार को समझने का बहुत ही उपयुक्त माध्यम है किन्तु यह समझना भी आवश्यक है कि तूम्बा इस सृष्टि उत्पत्ति कथा के केन्द्र में है। यही कारण है कि आदिवासी समाज बहुत आदर और सम्मान के साथ तूम्बे को अपने साथ रखता है। एक भतरी कहावत है कि ‘तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी’ अर्थात तूम्बा का फूटना एक अपशकुन है।“
तूम्बा केवल दैनिक उपयोग की वस्तु नहीं है। इसे आदिवासी समाज ने अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनाया है। प्राय: मंद या सल्फी के सुरूर में थिरकने वाले कदमों के बाद भी आदिववासी अपने कंधे पर एक लकडी जिससे लटकता हुआ तूम्बा थामे मिलेंगे। ये तूम्बे किसी तैलीय पदार्थ लेपन के कारण चमकते हुए अथवा किसी भित्तिचित्र के उसपर उकेरे जाने के कारण सुन्दर दीख पडते हैं। तूम्बे पर उकेरे जाने वाले भित्तिचित्रों में आदिवासी जीवन, भांति भांति की मानवआकृतियाँ जिसमे गौर सींग माडिया और तिरहुड्डी बजाती नृत्यांगनायें, पेड-पौधे, पशु पक्षी आदि प्रमुख हैं। कई आदिवासी तो तूम्बे को सुरक्षा और सुन्दरता प्रदान करने के लिये उसे गुथी हुई रस्सी से पूरी तरह गाथ देते हैं। इतना ही नहीं अंचल के कई वाद्य हैं जैसे किंदरी, तोहेली, डुमिर, रामबाजा....इन सभी में तूम्बे का घट लगा होता है। घोटुल मुरिया तो अपने कई नृत्यों में तूम्बों से भयानक मुखौटे भी बना कर प्रयोग में लाते हैं। तूम्बे से बने मुखौटों का यदि आज भी भव्य प्रदर्शन देखना है तो माँ दंतेश्वरी के सम्मान मे दंतेवाड़ा में प्रतिवर्ष लगने वाली फागुन मड़ई में इसे देखा जा सकता है। फागुन मडई में आदिवासी गँवर, चीतल, कोड़री, खरगोश जैसे जानवरों का स्वांग रच कर नृत्य करते हैं जिसके लिये तूम्बे से बने मुखौटों का प्रयोग किया जाता है।
बदलाव अवश्यम्भावी हैं किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि किसी संस्कृति को अपनी पहचान से ही हाथ धो बैठना पड़े। यह होगा कि बाजार धीरे धीरे बस्तर को अपने आगोश में जकड़ लेगा। देखते ही देखते लकडी की पड़िया के स्थान पर प्लास्टिंक की कंघिया आ गयीं बिलकुल उसी तर्ज में मिनरल वाटर की खाली बोतलों ने तूम्बे का स्थान लेना आरंभ कर दिया है। प्रयोग करो और फेंको की बाजार प्रदत्त सुविधा ने आदिवासियों को जाने-अनजाने ही तूम्बों से दूर कर दिया है। पहले जहाँ तूम्बा हर कंधे की शोभा बढाता था अब दसियों मे से किसी एक के पास आपको नजर आयेगा; यहाँ तक कि मेले मड़ईयों में भी बहुत तलाश के बाद ही दृष्टिगोचर होता है। हालात यह हैं कि अब इसके संरक्षण की आवश्यकता महसूस होने लगी है। यह सामाजिकता का स्वाभाविक नियम है कि जो वस्तु चलन मे नहीं रहती वह विलुप्त होने लगती है। बस्तर की कितनी ही दुर्लभ वस्तुवे, प्रथायें और रिवाज अब अस्तित्व में नहीं हैं, क्या यही हश्र तूम्बे का भी होने जा रहा है? क्या तूम्बे को कलात्मक वस्तुओं की श्रेणी मे सम्मिलित कर संरक्षित नहीं किया जा सकता? क्या तूम्बे को पेनस्टेंड बना कर स्ट्डी रूम में, चम्मच आदि रखने के लिय किचन में अथवा भित्तिचित्रों से सुसज्जित कर ड्राईंगरूमों में जगह नहीं दी जा सकती? बाजार जिसे छीन रहा है उसे ही आज बाजार मिल जाये तो क्या संरक्षण को नयी दिशा नहीं मिलेगी? बस्तर में शिक्षित आदिवासी अब लगातार बढ रहे हैं और आवश्यकता यह भी है कि वे अपनी संस्कृति का मोल समझें और स्वयं इसके संरक्षण के लिये आगे आयें। तूम्बे के बिना बस्तर अर्थात जल बिन मछली की कल्पना करना है।
- राजीव रंजन प्रसाद
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