Friday, March 13, 2015

बस्तर के घोटुल - राजीव रंजन प्रसाद



घोटुल को ले कर अनेक धारणायें हैं, अनेक तरह के विवाद भी हैं। अस्सी के दशक में बीबीसी ने घोटुल पर एक अश्लील वीडियो बना कर इन्हें जिस तरह से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया वह विभत्स था। हाल के दिनो में हंस पत्रिका में एक वामपंथी लेखक ने घोटुलों को यौनाचार स्थल के रूप में निरूपित किया था तब यह समझने में सहूलियत हुई कि आज के लेखको का अध्ययन कम होता जा रहा है लेकिन जनजातीय विषयों पर वे बड़बोले भी उतने ही प्रतीत होते हैं। विषय में उतरने से पहले बस्तर के तुलसीदास कहे जाने वाले लेखक-पत्रकार श्री रामसिंह ठाकुर के दण्डकारण्य समाचार (3.05.1985) में प्रकाशित आलेख "बस्तर के घोटुल और विदेशी कैमरों की आँख" के कुछ अंश प्रस्तुत है – "यह सर्वविदित है कि इस दल (बीबीसी) का नेतृत्व एक महिला कर रही थी जो इस क्षेत्र में भाषा व जीवन शैली पर थीसिस लिखने के बहाने वर्षों रही। इस भारतीय महिला ने एक विदेशी से व्याह रचाया और फिर धनोपार्जन के उद्देश्य से बस्तर के मूल निवासियों की मूल संस्कृति से खिलवाड़ करने के लिये विदेशियों को ले आयी।" इसी बात को आगे बढ़ाते हुए रामसिंह ठाकुर जी आगे लिखते हैं - "विदेशियों ने भारत को गुलाम बना कर तब जो लिया सो लिया। क्या अब भारत में योग्य फिल्म युनिट या कैमरामैन नहीं हैं? या अब भी हम अपनी संस्कृति के प्रति अनभिज्ञ रहेंगे?......जैसा कि बताया गया है घोटुल कुटीर के हर क्षेत्र में विद्युत लाईन बिछा कर, मदिरा पिला कर इस फिल्मों को बनाया गया है....यह सब भारतीय होने के नाते हम कैसे बरदाश्त करें; क्या यही शेष रह गया है?"

यह सही है कि घोटुलों का तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले समाज ने अपनी तरह से विश्लेषण किया तथा दुरुपयोग भी। लेकिन इसके बाद भी आदिवासी समाज को कमतर समझने अथवा उन्हे जागरूक न मानने वाले हम कौन होते कौन हैं? आदिवासी समाज ने स्वयं अपनी प्रथाओं को कभी जटिल तो कभी लचीला बनाया है। घोटुल पर बाहरी दबावों से बचने के लिये इसके परम्परागत स्वरूपों को भी बदला गया तथा नीयमों को भी दिशा देने का काम किया गया। रामसिह ठाकुर इस सम्बन्ध में उजागर करते हैं कि "लगभग ढ़ाई सौ वर्ष पूर्व घोटुल व्यवस्था के दूषित (आंग्ल-मराठा/ मुसलमान/अंग्रेज दखल के बाद) हो जाने पर गोत्रकुल (घोटुल) की व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी थी तब देवी देवता की शरण मान कर पुन: नये विधान से इसे प्रारंभ किया गया। आदिवासी दण्डविधान का सहारा ले कर भविष्य को तथा अपने अस्तित्व को एक सूत्र में बाँध रखने में सफल हुए हैं"। रामसिंह जी ने इस आलेख में कुछ सम्बन्धित परम्पराओं का भी उल्लेख किया है। वे लिखते हैं "आज भी इस समाज में "गाता पखना" गाड़ने का आयोजन होता है। गाता पखना, एक कुल का एक ही गाँव में निर्धारित स्थल पर ही गाडा जाता है; जो कि एक पीढ़ी में एक बार ही सम्पन्न किया जाता है। अर्थात मनुष्य मृत्योपरांत अपने गोत्र कुल का अधिकार बनाये हुए है। गाता पखना गाड़ते समय घोटुल-पाटा गाया जाता है, जिसमे गाने वाले सम्बन्धित वंशावली पाते हैं।...अभी तो विदेशियों ने जो हास्यास्पद रूप तैयार किया है उस स्वरूप प्रदर्शन से वे हमारी हँसी उडायेंगे, तालियाँ बजायेंगे और हम भारतवासी प्रसाशनिक अधिकारियों की चहलकदमी के धोखे में रह कर आने वाली पीढ़ी के लिये शर्मनाक इतिहास छोड़ सकेंगे.....?" रामसिंह जी ने अपने आलेख के अंत में लिखा था कि "उचित तो यही होगा कि बीबीसी द्वारा बनाये गये फिल्म प्रदर्शन पर विश्वस्तरीय रोक लगा दी जाये और फिल्म को भारत ला कर पूर्णत: नष्ट कर दिया जाये।" रामसिंह ठाकुर जी के आलेख के ये अंश मैने घोटुल पर चर्चा के उन हिस्सों पर बात को आगे बढ़ाने के लिये किया है जो कभी चर्चा का हिस्सा नहीं बनते।

यह समझने वाली बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी दो दशक तक घोटुल अपने स्वरूप को बचाये हुए थे। यद्यपि घोटुल की प्रासंगिकता पर अस्सी के दशक से ही विस्तार से चर्चा होने लगी थी। वर्ष 1983 के साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित एक विवरण के अनुसार उसी वर्ष नारायणपुर से लगभग नौ किलो मीटर दूर, बिजली गाँव में बाईस आदिवासी गाँवों के मुखियाओं की एक बैठक में प्रस्ताव लाया गया गया गया था कि घोटुल समाप्त कर दिए जायें। इस प्रस्ताव पर कुल पाँच गाँवों की सहमति प्राप्त हुयी शेष सत्रह गाँवों की ओर से इसका विरोध किया गया। इस प्रस्ताव पर इतनी तीखी प्रतिक्रया हुयी कि इसे पेश करने वाले मांझी रूप सिंह को अपना पद- त्याग करना पड़ा था। यह तो हाल के दिनो में माओवादियों की सख्ती के बाद बहुत बेमन से आदिवासियों द्वारा घोटुलों को बंद किया गया है। प्रश्न यह कि घोटुल को बंद करवाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या घोटुल जैसे सामाजिक संगठनों के रहते माओवादियों को अपने अस्तित्व में खतरा महसूस हो रहा था? घोटुल के स्वरूप में जनजातीय समाज स्वयं परिवर्तन करता रहा है तथा करता रहता किंतु मुखर हो कर और योजना बना कर इस सामाजिक संस्था का ध्वंस किया गया। शायद इसलिये कि अगर ये सामाजिक संगठन जीवित रहते तो आदिवासी समाज के आपस में एकात्रित होने, संगठित रहने, विमर्श करने, विरोध करने जैसे परम्परागत स्थल भी बने रहते। ऐसे में कोई विचारधारा इन्हें बरगला नहीं सकती थी। घोटुल का दुष्प्रचार और उसे यौनाचार स्थल मात्र घोषित करने की प्रवृत्ति के पीछे जिनकी बौद्धिक विलासिता काम कर रही है उसे करीब से समझना आवश्यक है। आज घोटुल नहीं बचे हैं। नक्सलवादियों द्वारा पत्रकारों की हत्या के विरोध में अबूझमाड़ की पदयात्रा पर गये कुछ पत्रकारों के अनुसार माड़ में कुछ घुटुलनुमा संरचनायें बची है जिसे माओवादियों ने अपने दिशानिर्देशों के अनुरूप परिवर्तित किया हुआ है। संक्षेप में जानने की कोशिश करते हैं कि वस्तुत: घोटुल क्या थे?

घोटुल आम तौर पर गाँव के एक छोर पर कभी कभी मध्य में निर्मित हुआ करता है। घोटुल की संरचना में तीन मुख्य भाग होते हैं। पहला आँगन का भाग जिसके बीचोबीच लकड़ी का खंबा गड़ा होता है और समूची जगह नाचने गाने के लिये खुली हुई। दूसरा ‘परछी’ वाला हिस्सा जहाँ अलाव जलाया जाता है, आम तौर पर यहीं समूहों में बैठ कर ‘प्रेमी युवक – चेलक’ और ‘युवती प्रेमिकायें – मोटियारियाँ’ आपस में परिचित होते हैं; किस्से कहानियाँ गढ़ते, कहते और सुनते हैं; या सुख दुख बाटते हैं। घोटुल की ‘परछी’ और ‘कमरों’ की दीवारें - लकड़ी, बाँस के खूँटे और बाड़ी नुमा ढ़ाँचे को बना कर, फिर उनमें मिट्टी छाप कर तैयार की जाती हैं। इस तरह बनी दीवारों को चूने या ‘छुई-मिट्टी’ से लीप दिया जाता है। छत लकड़ी की मजबूत बीम पर टिका हुआ और खपरेल, घास फूस या सागवान के पत्तों से ढ़का होता है। इसी छत पर घोटुल के सदस्य अपने हथियार, फरसा, टंगिया, हँसिया, खंता, कुल्हाड़ी, सब्बल, टोकनी, सूपा, टुकना....और भी चीजें रखते हैं। घोटुल गाँव की सम्पत्ति होता है - गाँव की परिधि से बाहर बना सामाजिक-सांस्कृतिक केन्द्र।

घोटुल में आपसी संवाद, किस्से कहानियों, विमर्श, नृत्य-गीत आदि का सिलसिला चलता है जब तक कि चाँद और "सात तारे या कि ग्वालझुमका" सिर पर नहीं आ जाते। जब यह सभा विसर्जित होती है तो कम आयु के चेलिक और मोटियारियाँ अलग अलग हो कर परछी में ही, अथवा बड़े से हॉल नुमा कमरे में, जो कि घोटुल का ही तीसरा हिस्सा होता है, वहाँ जा कर सो जाते हैं।....और फिर यह भी होता है कि एक दूसरे के हो चुके चेलक और मोटियारियाँ आधी रात के बाद अपनी अपनी गीकी में बँध जाते हैं। गीकी वह चटाई होती है, जो खजूर या ताड़ी के पत्ते से गूंथ कर घोटुल की मुटियारी, बड़े ही जतन से अपने चेलक के लिये बनाती है। बड़े कमरे के एक हिस्से में केवल वे चेलिक और मोटियारियाँ ही साथ साथ सोते हैं जिनका प्रेम, बंधनों की परिभाषा से आजाद हो गया हो। यहाँ उन्हें एक होने की स्वाधीनता है।

इस एक होने की स्वतंत्रता को किसी समझदार आदमी ने अराजकता कहा तो किसी ने यौन विकृति। क्लबों और सोनागाछियों को ढ़ोने वाले कथित सभ्य समाज से इससे बेहतर टिप्पणी की उम्मीद किसे है? घोटुल एक सामाजिक संस्था है, जिसमें समुचित कार्य विभाजन है। झरिया, घोटुल की सफाई करता है, लकड़ियाँ इकठ्ठी करता है, रात होने पर आग जलाता है। मुसवान घोटुल की साज-सज्जा का कार्य सम्पन्न करते हैं जिसमें दीवालों की लिपाई-पुताई, भित्तिचित्र आदि रचना सम्मिलित है। उनके कार्य में रानियाँ हाथ बटाती हैं। रानी वस्तुत: घोटुल में लड़कियों को दिया जाने वाला एक पद है और इसके साथ निर्वहित किये जाने वाला दायित्व है घोटुल के भित्तिचित्र बनाना, दोने तैयार करना आदि। चालकी घोटुल सदस्यों को तम्बाकू बाँटता है तो बैद उपचार करने, प्रेत बाधा आदि दूर करने के लिये नियत होता है। घोटुल एक व्यवस्था के तहत कार्य करता है अत: कई पद भी निर्धारित किये गये हैं और उन्हें संचालन से ले कर दण्डित करने तक की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी है। पदनाम भी राज-वयवस्था से बहुत हद तक प्रभावित हैं जैसे दीवान, जिसका कार्य सदस्यों की निगरानी करना और उन्हें दण्डित करना है; कोटवार, जिसका कार्य घोटुल में सदस्यों की उपस्थिति और अनुपस्थिति को जाँचना है। लगभग आठ वर्ष की आयु के पश्चात विवाह होने तक सभी लड़के-लड़कियों को घोटुल आना अनिवार्य होता है, अनुपस्थित रहने पर वे दण्ड के भागी होते हैं। अस्वस्थ सदस्य अथवा मासिक धर्म के समय ही युवतियों को घोटुल न आने की छूट होती है; सिपाही, जिनका कार्य गश्त लगाना, सुरक्षा प्रदान करना आदि है। घोटुल तो सारगुतियों की चुहल से ही आबाद होता है। सारगुतियाँ वस्तुत: सहेलीयों के लिये प्रयुक्त होने वाला शब्द है जो सम्बोधन घोटुल मे आने वाली हर लड़की के लिये नियत किया गया है। अंत में बात चेलक और मोटियारियों की जो क्रमश: प्रेमी-प्रेमिका के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले शब्द हैं, ये घोटुल संस्था की आत्मा हैं।
घोटुल क्यों नष्ट हुए यह तो चर्चा के केन्द्र में है ही लेकिन इसे समझने के लिये यह जानना भी आवश्यक है कि घोटुल आखिर क्यों और कैसे बने। एक मान्यता कहती है कि घोटुलों के निर्माण का कारण राजनैतिक भी है और यह ग्रामीण सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। किसी संभावित खतरे से निबटने के लिये गाँव की युवा शक्ति एक ही स्थान पर एकत्रित रहा करती थी। गेन्द सिंह से ले कर गुण्डाधुर तक सभी आदिवासी नेताओं ने युवा शक्ति को घोटुलों में संपर्क कर ही संग्रहीत किया था और क्रांति संभव हुई थी। इसके सामाजिक कारणों में यह कि माता-पिता का अपने बच्चों के साथ शयन करना उचित नहीं माना जाता और इसीलिये सयाने होते ही उन्हें जीवन की स्वाभाविक दीक्षा के लिये घोटुल अनिवार्य रूप से भेज दिया जाता है। घोटुल निर्माण का धार्मिक कारण आदिवासियों के सर्वमान्य देवता लिंगो पेन से जुडा हुआ है। लिंगो की कहानी पर इस पुस्तक में चर्चा की गयी है। चूंकि घोटुल लिंगो से जुड़े हुए स्थान हैं अत: माना जाता है कि यहाँ आने वाले सदस्यों पर काला जादू असर नहीं करता, प्रेत बाधा उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती। घोटुल में पूजे जाने वाले अन्य देवी देवता हैं करेदंगल, नारायनदेव, वनदेव, बूढ़ादेव, ईराडदेव, मर्कादेव, दंतेश्वरी देवी, कोरी देवी आदि। बस्तर राज्य में काकतीय/चालुक्य वंश के संस्थापक अन्नमदेव की भी पूजा कतिपय घोटुलों में की जाती है। 

घोटुल प्रत्येक सदस्य का आजीवन साथ रहने वाला अनुभव होता है। यहाँ आने वाले प्रत्येक सदस्य को नया नाम दिया जाता है। सदस्य इस नाम का प्रयोग घोटुल मे एक दूसरे को सम्बोधित करने के लिये करते हैं किंतु इसकी गोपनीयता को वे बनाये भी रखते हैं। यदि किसी युवक-युवती को उसका सदस्य नाम नहीं दिया गया है तो यह समझा जाना चाहिये कि वह पूर्णकालिक सदस्य नहीं है। घोटुल में लड़कों के लिये नाम लाहर सिंह, मलयार सिंह, कलिंगसाय, सुलुक साय आदि तथा लड़कियों के लिये बोलोसा, दुलोसा, लाहरी, सुलयारो, मलयारो, सायको आदि रखे जाते थे।

यह गलतफहमी है या घोटुलों को बदनाम करने की नियोजित साजिश कहा नहीं जा सकता कि इसे अपने कामसूत्र पर देश-विदेश में इठलाने वाले देश ने यौन संस्था भर कह कर उसकी पहचान पर यही ठप्पा लगा दिया है। इस बात से आँख मूंद ली गयी है कि यह एक दौर में व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था भी हुआ करती थी। स्वच्छता, शिकार, पूर्वजों का सम्मान, परम्पराओं की जानकारियाँ, अनुशासन, मनोरंजन सभी कुछ यहाँ प्रसारित होता था। घोटुल सदस्य कितने सामाजिक दायित्वों से बंधे होते है यह जानने के लिये किसी बुजुर्ग आदिवासी के साथ बैठ कर चर्चा कीजिये तब वह बतायेगा कि किस तरह गाँव में होने वाली छठी, शादी व्याह, मृत्यु अथवा मेले-मड़ई आदि में कार्यों, आयोजनो, सफाई, भोजन व्यवस्था, नृत्य आदि का दायित्व घोटुल सदस्यों को ही उठाना पड़ता था। इतना ही नहीं सदस्य किसानों को निंदाई-गुड़ाई में भी सहयोग देते थे जिसके एवज में उन्हें भाता दिया जाता था। भाता ले कर घोटुल सदस्य मिल कर किसी भी किसान के यहाँ वर्ष में एक दिन सहयोग-श्रमदान किया करते थे। यदि कोई गरीब किसान है तो सदस्य बिना भाता लिये श्रमदान किया करते थे। घोटुल के साज संवार के लिये लगने वाले धन को भी सदस्य मजदूरी कर के अर्जित करते थे। सदस्यों द्वारा अर्जित मजदूरी को गाँव के ही किसी सम्मानित व्यक्ति के पास सुरक्षित रखा जाता था और आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग भी किया जाता था।

यह भी सोचने वाली बात है कि आज आदिवासी कला और नृत्य संगीत जिस तेजी से नष्ट हो रहा है वह कदाचित नहीं होता अगर घोटुल साँस ले रहे होते। कितने ही अद्भुत गीत हैं जो घोटुलों के समाप्त होते ही मायना हीन हो गये, कितने ही अद्भुत रिवाज हैं जो अब कभी नहीं निभाये जायेंगे। सींग माड़िया नृत्य (गौर सींग लगा कर मांदर की थाप और तिरहुड्डियों की छनक के साथ किया जाने वाला नृत्य), गौर नृत्य (गौर सींग बंधे नर्तक गोलाकार नृत्य करते हैं), हुलकी नृत्य (लड़के और लड़कियाँ अलग अलग दल बना कर नृत्य करते हैं। जब लड़कियाँ आगे की ओर झुकती हैं तो लड़के पीछे की ओर इस तरह कमल की पंखुड़िया खोलने जैसा दृश्य बनता है), गेड़ी नृत्य (लकड़ी या बाँस के दो डंडों पर चढ़ कर किया जाने वाला नृत्य), करमा नृत्य (करमा कहानी की याद में करमा वृक्ष की टहनी शरीर पर बाँध कर उस पेड़ के आसपास गोलाकार में नृत्य), रेवा नृत्य (यह उछल-कूद भरा आकर्षक नृत्य होता है), सेला नृत्य (छोटे छोटे डंडो की ताल पर यह नृत्य होता है जिसमें लड़के छेर छेरा और लड़कियाँ कोयल की आवाज निकालती हैं), रीना नृत्य (यह एक धीमा नृत्य है जो सेला की तरह ही होता है), गिरदा नृत्य (जब घोटुल के चेलक किसी अन्य गाँव में नृत्य करते हैं), सुआ नृत्य (घोटुल की मोटियारियाँ आस पास के गाँवों में जा कर नृत्य करती हैं) आदि सब अब विलुप्त होने लगे हैं। भित्ति चित्र कला को अब किसी तरह कलाकार बचाये हुए हैं अन्यथा किसी समय घोटुल की दीवारों पर बिछू, टोकनी, आदमी, औरत, हाथ के छापे, टोकनी, तूम्बा, देवता, पक्षी, घोड़ा, हाथी आदि सुन्दरता से अंकित किये जाते थे। घोटुल में सुनाई जाने वाली कहानियों को कोई सुने तो स्वयं महसूस करेगा कि कितने सजीव माध्यम से समाज अपने युवको को शिक्षा प्रदान किया करता था।

किसी सदस्य का विवाह होते ही घोटुल से उसकी सदस्यता स्वत: समाप्त हो जाया करती थी। विवाह में सभी घोटुल सदस्य बढ़ चढ़ कर हिस्सा तो लेते ही थे, यह उनके लिये बहुत भावुक क्षण भी होता था। विवाह के पश्चात नव दम्पत्ति को घोटुल स्वयं समारोह पूर्वक विदायी देता था। उनसे गेवड़े अर्थात गाँव की सीमा की पूजा करवायी जाती थी। आँटे की लकीर खींच कर चौंक बनाया जाता था जिस पर लोहे के छल्ले रख दिये जाते थे। नवदम्पत्ति को एक दूसरे की कमर में हाँथ ड़ाल कर बिना पीछे देखे छल्ले को पार करने के लिये कहा जाता था। इसके साथ ही सारी रस्मे सम्पन्न हो जाया करती थीं। बिदाई के बाद गम से भरे घोटुल में कोई और कार्यक्रम नहीं होता था। घोटुल का बंद होना नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है। जिस तरह कथित सभ्य समाज ने इस महान परम्परा को मटियामेट होते न केवल देखा बल्कि उसमे सहयोग भी किया, इसके लिये आने वाला समय उन्हें अपराधी ही निरूपित करेगा। 
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(मेरी पुस्तक - बस्तरनामा से अंश)