Thursday, February 15, 2007

टुकडे अस्तित्व के..

जरासंध की जंघाओं से दो फांक हो कर
जुडते हैं इस तरह टुकडे अस्तित्व के
जैसे कि छोटी नदिया गंगा में मिल गयी हो
चाहो तो जाँच कर लो
अब मिल गया है सब कुछ, एक रंग हो गया है
हर हर हुई है गंगे, हर कुछ समा गया है
फिर उठ खडा हुआ हूँ, हिम्मत बटोर ली है
मैं जानता हूँ दुनिया भी भीम हो गयी है
वो दांव-पेंच जानें कि फिर चिरा न जाऊं
लेकिन लडूंगा जब तक सागर में मिल न जाऊं
मैं जानता हूँ कान्हा तुम राज जानते हो
टुकडा उठा के तृण का
दो फांक कर के तुमने उलटा रखा है एसे
जैसे कि वक्त मेरा मुझको छला किये है
मैं मुस्कुरा रहा हूँ
मैं मिटने जा रहा हूँ
तुममें समा रहा हूँ
फिर ये सवाल होगा, क्या मुझसे वक्त जीता?
तुम सोच रखो उत्तर, तुम ठेके हो सत्य के
जब सामना करेंगे मेरे टुकडे अस्तित्व के...


*** राजीव रंजन प्रसाद
१०.०२.२००७

Monday, February 05, 2007

गज़ल

निगाह मिल न सकी कैसी मुलाकात हुई
होठ खामोश रहे, आज कितनी बात हुई..

मैनें सपनों को डुबोया तो ताल सूख गया
मैनें सपनों को जगाया तो कितनी रात हुई..

तेरी मुस्कान नें ही राज सभी खोल दिये
दिल को अहसास हुआ मेरी कहाँ मात हुई..

तुमनें मोती वो लुटाये जो मुलाकात हुई
मुझसे पलकों नें कहा, कैसी ये सौगात हुई..

मैनें "राजीव" तेरे बिन वो खंडहर देखे
जाल मकडी के हुए, सांय-सांय वात हुई..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२९.०१.२००७