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Wednesday, September 25, 2013

बस्तर की घड़वा कला में सांस लेता है मोहनजोदाडो


कलाकारों के साथ समय गुजारना एक अनोखा अनुभव होता है। बस्तर की घडवा कला अथवा ढोकरा कला विश्व प्रसिद्ध है और हमेशा ही मुझे इन धातु-निर्मित कलाकृतियों ने अत्यधिक प्रभावित किया है। जगदलपुर स्थित मानवसंग्रहालय में मेरी मुकालात घडवा कला के साधक फगनुराम से हुई। वे बहुत देर तक इस बात से अनजान थे कि मैं उनके पीछे खड़ा मंत्रमुग्ध सा उनकी साधना को निहार रहा हूँ। मिट्टी, मोम और धातु की सम्मिलित है यह यह कला साधना जिसमे आकृति तो धातु की बनती है लेकिन कलाकार उसे मोम में साधता है और मिट्टी जीवन फूंकें जाने तक उसे अपने सांचे में धारण करती है। मैं कलाकार के बगल में ही बैठ गया और जानने की कोशिश करने लगा कि आखिर यह कला है क्या तथा इसकी निर्माण प्रक्रिया कैसी है। यह बात तो तय है कि घडवा अथवा ढोकरा कला केवल सांचे में धातु डाल कर उसे जमाने भर को नहीं कहते। मेरे सामने अनेक मोम से आकार दी गयी देव प्रतिमायें, स्त्री-पुरुष आकृतियाँ, हाथी हिरण आदि आदि के स्वरूप बना कर रखे हुए थे। मोम से ही इन्हें इतना बारीक तराशा और सजाया जा चुका था कि इतने भर को ही मैं श्रेष्ठतम कला कहने को बाध्य था किंतु यह तो शुरुआत मात्र है। 

अगर प्रारंभ की बात की जाये तो बस्तर में मुख्य रूप से से घसिया जनजाति ने घडवा कला को साधा और शिखर तक पहुँचाया। घसिया के रूप में इस जनजाति को पहचान रियासतकाल में उनके कार्य को ले कर हुई चूंकि ये लोग उन दिनो घोडों के लिये घास काटने का कार्य किया करते थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि घडवा कला को किसी काल विशेष से जोड कर नहीं देखा जा सकता चूंकि मोहनजोदाडो में ईसा से तीन हजार साल पहले प्राप्त एक नृत्य करती लडकी की प्रतिमा लगभग उसी तकनीक पर आधारित है जिसपर बस्तर का घडवा शिल्प आज कार्य कर रहा है। अपने एक आलेख में प्रसिद्ध घडवा शिल्प के कलाकार श्री जयदेव बघेल ने लिखा है कि बस्तर में इस कला के प्रारंभ के लिये जो मिथक कथा है उसका सम्बन्ध आदिमानव और उसकी जिज्ञासाओं से है। यदि उनके विवरणों को अपने शब्दों में प्रस्तुत करूं तो यह बात तब की है जब आदिमानव जंगल में विचरण करता था और शिकार पर आश्रित अपना जीवन निर्वहन किया करता था। इन्ही में से एक आदिमानव की यह कहानी है जो अपने माता-पिता से बिछड कर किसी गुफा में रह रहा था। एक दिन उसने पहाड पर आग लगी देखी। आग से निकलने वाले रंग तथा चिंगारिया उसे भिन्न प्रतीत हुईं और वह जिज्ञासा वश उस दावानल के निकट चला गया। अब तक आग स्थिर होने लगी थी। वहीं निकट ही उसे एक ठोस आकृति दिखाई पडी जो किसी धातु के पिघल कर प्रकृति प्रदत्त किसी गह्वर अथवा सांचे में प्रवेश कर जम जाने के पश्चात निर्मित हुई होगी। यह आकृति उसे अलग सी और आकर्षित करने वाली लगी और उसे उठा कर आदिमानव अपने घर ले आया। उसने इस प्रतिमा के लिये घर का एक हिस्सा साफ किया और इसे सजा कर रखा। इस प्रतिमा के लिये उसका आकर्षण इतना अधिक था कि नित्य ही वह इसे साफ करता और धीरे धीरे इससे प्रतिमा में चमक आने लगी। कहते हैं इसी चमक से प्रभावित हो कर वह स्वयं को भी चमकाने लगा अर्थात नित्य स्नानादि कर श्रंगार पूर्वक रहने लगा। यह धातु और वह मानव जैसे एक दूसरे के पूरक हो गये थे और समय के साथ दोनो में ही वैशिष्ठता की दमक उभरने लगी थी जिसे ग्रामीणों ने महसूस किया। जब कारण पूछा गया तो इस आदिमानव ने ग्रामीणों को वह जगह दिखाई जहाँ से उसे धातु का यह प्रकृति द्वारा गढा गया टुकडा प्राप्त हुआ था। इस स्थान पर सभी ने पाया कि एक दीमक का टीला है जिसमे कि धातु-द्रव्य प्रवेश कर गया था और उसने वही आकार ले लिया था। उसी स्थल पर मधुमक्खी का छत्ता भी पाया गया जिससे मोम, सांचा और धातु को कलात्मकता देने का आरंभिक ज्ञान उन ग्रामीणों को हुआ होगा। उस आदि-कलाकार ने तब ग्रामीणों से कहा कि मैने इस धातु के टुकडे को अपनी माँ माना है और इसी तरह इससे प्रेम किया है। तुम भी इस कला और अपने निर्माण को माँ की तरह ही मानो। कहते हैं कि उस आदिकलाकार ने सबसे पहले अपनी माँ की आकृति बनाने का यत्न किया और धीरे धीरे वह अपने निकटस्थ परिवेश की वस्तुओं और पशु-पक्षियों को भी इस कला के माध्यम से मूर्त रूप देने लगा। जयदेव बघेल के अनुसार उस आदिनामव ने इस तरह पहले बाघ, भालू, हिरण, कुत्ता, खरगोश, नाग कछुवा, मछली, पक्षी, गाय, बकरा, बंदर आदि बनाये। धीरे धीरे उसने अपनी माँ के रूप में डोकरी माँ की कलाक़ृति बनाई और कालांतर में डोकरा बाबा के रूप में वह पिता के स्वरूप को गढने लगा। इसी तरह विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ घडवा कला के रूप में परिवर्तित होती रहीं। कर्मकोलातादो, मूलकोलातादो, भैरमदेव, भीमादेव, राजारावदेव, दंतेश्वरीदेवी, माता देवी, परदेसीन माता, हिंग्लाजिन देवी, कंकालिन माता आदि की मूर्तियाँ इस कला के विकास के विभिन्न चरणों में निर्मित की जाने लगी। लाला जगदलपुरी भी अपनी पुस्तक बस्तर इतिहास एवं संस्कृति में उल्लेखित करते हैं कि “बस्तर के घड़वा कला कर्मी पहले कुँडरी, कसाँडी, समई, चिमनी और पैंदिया तैयार करते थे। अब ये लोग देवी देवता, स्त्री पुरुष, हरिण, हाथी, अकुम आदि बनाते आ रहे हैं”। 

यह कला असाधारण इसलिये है चूंकि इसे सम्पूर्णता से समझने पर किसी न किसी रूप में इतिहास सामने आने लगता है। सिन्धु घाटी की सभ्यता अगर धातु की एसी प्रतिमाओं की निर्माती थी तो निश्चित ही इस सभ्यता के नष्ट होने के साथ जो पलायन हुए उनके साथ ही यह कला भी स्थानांतरित हुई होगी। बस्तर में नाग शासकों ने लगभग सात सौ वर्ष तक शासन किया है और इतिहास उनके आगमन का स्थल मध्य एशिया के पश्चात सिंधुघाटी का क्षेत्र ही मानता रहा है तो क्या यह कला उनके साथ ही बस्तर की जनजातियों के पास पहुँची? इन प्रतिमाओं का महापाषाणकालीन सभ्यता से भी सम्बन्ध जोड कर देखा गया है तो क्या यह माना जा सकता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में ही समानांतर बसे मानव समूहो को भी धातु को गला कर आकृतियाँ देने की यह कला ज्ञात थी जिसमे गोदावरी के तट पस बसे आदिम समूह भी सम्मिलित थे? यह अभी शोध का विषय है तथा इसपर गहराई से कार्य किये जाने की आवश्यकता है। 

घडवा कलाकार फगनुराम ने मुझे इसकी निर्मिति की जो विधि बताई उसके अनुसार इस प्रकृया में कई प्रकार की मिट्टी लगती है जिसमे दीमक की बाबी की मिट्टी की प्रमुख भूमिका होती है। इस बात की कडी उपरिउल्लेखित आदिवासी की मिथक कथा से जुडती हुई प्रतीत होती है जिसका उल्लेख कलाकार जयदेव बघेल अपने आलेखों में करते रहे हैं। मिट्टी के कई प्रकार इस आकृति निर्माण प्रकृया में लगते हैं जिसमे दीमक (डेंगुर) की बाबी की मिट्टी के अलावा काली मिट्टी, नदीतट की मिट्टी, रुई-मिट्टी आदि का उपयोग विभिन्न प्रक्रियाओं में किया जाता है। साथ ही साथ सहायक तत्व के रूप में धान का भूसा तथा रेतीली मिट्टी का भी प्रयोग होता है। मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया के पहले चरण में धान के भूसे को काली मिट्टी के साथ मिला कर अच्छी तरह गूथ लिया जाता है और फिर इससे ही सांचा तैयार किया जाता है। अब सांचे की आकृति को धूप में अथवा आग में तपा कर ठोस कर लिया जाता है। इस सांचे पर गीली मिट्टी की दूसरी परत चढाई जाती है। इस बार मिट्टी के सूखते ही इस सांचे के स्वरूप की घिसाई खपरे अथवा हंडी (मटके) के टुकडे से की जाती है और इसे चिकना बनाया जाता है। अगली प्रक्रिया है उन पौधों की पत्तियों से इस आकृति को घिसना जिनको पीसने पर हरा रंग अधिक मात्रा में निकलता हो। सेम वृक्ष की पत्तियों का विशेषरूप से इस हेतु प्रयोग किया जाता है। इस प्रकृया के पश्चात तैयार ढांचे को पहले सुखा लिया जाता है जिसके पश्चात इस आकृति के उपर कलाकार की कल्पना अपना कार्य आरंभ करती है। मोम की सहायता से इस आकृति के उपर विभिन्न प्रकार की कलात्मक बारीकियों को उभारा जाता है। वस्तुत: इस पूरी प्रकृया के प्राण इसी समय भरे जाते हैं जब मोम के माध्यम से बहुत बारीक बारीक आकृतियाँ और स्वरूप उकेरे जाते हैं, विभिन्न प्रकार की पच्चीकारी की जाती है। इस मिट्टी के स्वरूप का मोम से श्रंगार पूर्ण होते ही छानी हुई खडिया मिट्टी में कोयले के महीन छाने हुए पावडर या गोबर को मिला कर आकृति के उपर हलके हाथो से एक लेप चढाया जाता है। इस लेपन की परत के सूख जाने पर पुन: दीमक की बावी की मिट्टी तथा धान के भूसे को मिला कर एक और लेप कर दिया जाता है। इसी लेपन के दौरान आकृति के सिरे पर धातु (पीतल अथवा कासा) से ढलाई करने के लिये एक छेद छोडा जाता है। अब इस पूरी आकृति को आग में पुन: पकाया जाता है। गर्मी पाते ही सांचे पर लगाया गया मोम उतने ही क्षेत्र में एक रिक्ति अथवा खोखलापन बनाता हुआ वाष्पित हो जाता है। अब पहले से ही छोडे गये छिद्र के माध्यम से पिघली हुई धातु का प्रवेश कराया जाता है। यह धातु उन सभी रिक्त स्थानो में जा कर बैठ जाती है जो कि मोम के पिघल जाने से निर्मित हुई हैं। अर्थात जिस कलात्मकता का निर्माण मोम के माध्यम से कलाकार ने किया वही अब धातु की बन कर तैयार हो जाती है। अब इसे ठोस होने के लिये छोड दिया जाता है। बाद में धीरे धीरे मिट्टी को तोड कर अलग कर लिया जाता है और धातु की कलात्मक प्रतिमा अपना आकार ले लेती है। अद्भुत है यह कला...और अद्भुत अनुभव था अपनी आँखों के आगे उस कास्य युग को निहारना, इतिहास को पक कर आकार लेते देखना। 

इसमे दो राय नहीं कि बस्तर की घडवा कला विश्व की प्राचीनतम कलाओं में से एक है जो आज भी सराही जा रही है तथा इसका अपना वैश्विक बाजार भी है। मुझे यह जान कर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि इस कला के कलाकार देश-विदेश की यात्रायें कर रहे हैं और न केवल अपनी कला का वहाँ प्रदर्शन कर रहे हैं अपितु विदेशों में हुई कार्यशालाओं से सीख कर कई तरह की आधुनिकताओं को भी अपनी आकृतियों में स्थान दे रहे हैं। वर्ष 1961-62 में सरोजिनी नायडु द्वारा घडवा कला के लिये श्री सिमरन बघेल को सम्मानित किया गया था इसके पश्चात कलाकारों का एक कारवा निरंतर बनता चला गया है। वर्ष 1970 में सोनाबाल गाँव के श्री सुखचंद को तथा वर्ष 1977 में कोण्डागाँव के श्री जयदेव बघेल को इस कला की साधना के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। बदलते दौर में यह कला केवल सजावट नहीं अपितु दैनिक उपयोग की वस्तुओं की भी निर्मिति कर रही है जिससे कि उसके खरीददार बढें और कलाकारों की आजीविका चलती रहे। रायपुर एयरपोर्ट से ले कर दिल्ली के हर कला-शिल्प मेले में बस्तर की शान घडवा कला दिखाई पड ही जाती है। आज न केवल मोम अपितु धातु भी कीमती हो गयी है एसे में यह कहना उचित नहीं कि कलाकारों को उनकी निर्मिति के वास्तविक दाम मिल पा रहे हैं। हर हाल में इस कला को प्रोत्साहन, संरक्षण, विस्तार तथा बाजार की आवश्यकता है।