Wednesday, May 31, 2017

विलुप्त होता जीवजगत, खतरे में इंसान भी


प्रकृति जिन जीवों को अपने सुचारू संचालन में अनुपयुक्त पाती है उनसे पीछा छुडा लेती है। उदाहरण के लिए डायनासोर जो एक समय धरती पर व्यापकता से प्रसारित थे, आज विलुप्त प्राणी हैं। पृथ्वी पर बड़ी संख्या में विलुप्तताओं के पांच काल रहे हैं ये 4,400 लाख, 3,700 लाख, 2,500 लाख, 2,100 लाख एवं 650 लाख वर्ष पूर्व हुए थे। ये प्राकृतिक प्रक्रियाएं थीं। यह बात वर्तमान में हो रही विलुप्तताओं पर लागू नहीं होती। आज जीव-वनस्पतियाँ बहुत तेजी से और अस्वाभाविक प्रक्रियाओं के फलीभूत विलुप्त होती जा रही हैं। आज होने वाली विलुप्तताओं के लिये जीवजगत का वह प्राणी सबसे अधिक जिम्मेदार है जो इसके शीर्ष पर होने का दम्भ रखता है- अर्थात मनुष्य। यह समझने योग्य बात है कि स्वाभाविक विलुप्तीकरण की प्रक्रिया में खतरा प्राय: उन अधिक सफल प्रजातियों पर होता है जो कम सफल प्रजातियों पर अपनी उपस्थिति फैला लेते हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इंसानों को इसी दृष्टोकोण से किसी टाईमबम पर खड़ा देखा जाना चाहिये।

आज हम विलुप्तता के छठे काल में चल रहे हैं और यहाँ जैव-विविधता के नष्ट होने का कारण प्रकृति नहीं अपितु स्वयं मनुष्य है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजनर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) 2000 की रिपोर्ट में कहा कि, विश्व में जीव-जंतुओं की 47677 प्रजातियों में से एक तिहाई से अधिक प्रजातियाँ यानी 7291 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट के अनुसार स्तनधारियों की 21 फीसदी, उभयचरों की 30 फीसदी और पक्षियों की 12 फीसदी प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं। वनस्पतियों की 70 फीसदी प्रजातियों के साथ ताजा पानी में रहने वाले सरिसृपों की 37 फीसदी प्रजातियों और 1147 प्रकार की मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र में 800 से ज्यादा प्रजातियाँ सिर्फ एक ही स्थान पर पाई जाती हैं। अगर इन्हें संरक्षित नहीं किया गया तो कई विलुप्त हो जाएंगी। 

कालिदास का वर्णन मिलता है जो उसी डाल को काट रहा था जिस पर स्वयं बैठा हुआ था। परिणाम स्पष्ट है कि उसे धरातल पर गिरना ही था। अपनी ही तादाद बे लगाम तरीके से बढने वाला मनुष्य वस्तुत: कालिदास की तरह ही व्यवहार कर रहा है। देखा जाये तो दुनिया की जनसंख्या इस समय छ: अरब से अधिक है जिसके वर्ष 2050 तक दस अरब तक पहुंचने के अनुमान व्यक्त किए गए हैं। तेजी से बढ़ती इस जनसंख्या से दुनिया के पारिस्थितिकी तंत्रों और प्रजातियों पर अतिरिक्त दबाव तो पड़ना ही है जो जैव-विविधता को घटाने में उत्प्रेरक का कार्य करता रहेगा। जब मनुष्यों को स्वयं के रहने के लिये आज आवास की समस्या का सामना करना पड रहा है तो उनसे कैसे उम्मीद करेंगे कि वे धरती के अन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों के प्रति चिंतित रहेंगे। सन् 1000 से 2000 के मध्य हुए प्रजातीय विलुप्तताओं में से अधिकांश मानवीय गतिविधियों के चलते प्राकृतिक आवासों के विनाश के कारण हुई हैं। 

मोटे तौर पर देखा जाये तो जनसंख्या, वनों का कटाव, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा संदूषण एवं ग्लोबल वार्मिंग आदि कारक जैव विविधता को नष्ट करने में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। हम लापरवाह कौम हैं तथा केवल अपने भोजन के प्रति ही सजग रहते हैं तथा अपनी किसी भी गतिविधि में अन्य जीवों का किसी तरह खयाल नहीं रखते। यह सही है कि कृषि आवश्यक है किंतु जब हम फसल उगाने के लिए वनों को काटते हैं तब भी जैव विविधता को दरकिनार कर देते हैं। एसा ही एक उदाहरण पैसेन्जर कबूतर (एक्टोपिस्टेस माइग्रेटोरियस) से जुडा हुआ है। एक समय में ये कबूतर धरती पर बहुतायत में पाए जाते थे किंतु आज ये विलुप्त हो गये हैं। मानवीय सनक देखिये कि सन् 1878 में, अमेरिका के मिशीगन शहर में हर रोज लगभग 50,000 पैसेन्जर कबूतर पक्षियों को मारा जाता था और मौत का ये तांडव लगभग पांच माह चला। इस तरह के क्रूरता के पश्चात तो इस प्रजाति का विलुप्त होना स्वाभाविक ही था। 
जैवविविधता के लिये एक बडा खतरा किसी क्षेत्र विशेष में बाहर से लाये गये जीवो-वनस्पतियों की बसाहट भी है। कुछ उदाहरण महत्वपूर्ण हैं। हवाई द्वीप में, इस प्रकार की एक मैना प्रजाति है। इसे गन्ने के कीटों के नियंत्रण के लिए प्रवेश कराया गया था परन्तु यह लैन्टाना कैमारा नामक खरपतवार के बीजों के प्रसारक का काम करने लगी। द्वितीय विश्व युद्ध के फौरन बाद सर्प युक्त गुवाम में एक भूरा वृक्षवासी सांप दुर्घटनावश प्रवेश करा दिया गया। सांप की संख्या नाटकीय ढंग से अत्यधिक बढ़ गई और क्षेत्रीय प्राणी समूह  नीचे दब गए। गुवाम में मूल रूप से पाई जाने वाली जंगली चिडि़या की 13 प्रजातियों में से अब मात्रा 3 जीवित हैं और छिपकली की 12 मूल प्रजातियों में से भी अब मात्रा 3 ही जीवित हैं। ये सांप खम्बों पर चढ़कर बिजली के तारों को फंसा देते हैं और वह इलाका अंधेरे में डूब जाता है। गैलेपागोस द्वीपों की कहानी इसका एक अन्य महत्वपूर्ण उदाहरण है। गैलेपागोस द्वीप समूह इक्वाडोर का ही एक भाग हैं। यह 13 प्रमुख ज्वालामुखी द्वीपों 6 छोटे द्वीपों और 107 चट्टानों और द्वीपिकाओं से मिलकर बना है। इसका सबसे पहला द्वीप 50 लाख से 1 करोड़ वर्ष पहले निर्मित हुआ था। सबसे युवा द्वीप, ईसाबेला और फर्नेन्डिना, अभी भी निर्माण के दौर में हैं और इनमें आखिरी ज्वालामुखी उद्गार 2005 में हुआ था। ये द्वीप अपनी मूल प्रजातियों की बहुत बड़ी संख्या के लिए प्रसिद्ध हैं। चाल्र्स डार्विन ने अपने अध्ययन यहीं पर किए और प्राकृतिक चयन द्वारा विकासवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। 2005 में लगभग 1,26,000 लोगों ने पर्यटक के रूप में गैलेपागोस द्वीपसमूह का भ्रमण किया। इससे न सिर्फ द्वीपों पर मौजूद साधनों को खामियाजा भुगतना पड़ा बल्कि पर्यटकों की बहुत बड़ी संख्या ने यहाँ के वन्यजीवन को भी प्रभावित किया है। 

पारिस्थितिकी तंत्र बहुत सी ऐसी सूक्ष्म सेवाएं भी हमें प्रदान करता है जिन्हें अनुमोदित करना तो दूर, हम उन्हें पहचान भी नहीं पाते हैं। उदाहरण के लिए, जीवाण एवं मिट्टी के जीव कूड़े-कचरे को अपघटित कर उर्वर भूमि का निर्माण करते हैं। पौधों में परागण क्रिया के वाहक, जैसे चमगादड़ और मधुमक्खी, यह सुनिश्चित करते हैं कि साल दर साल हमारी फसलें अंकुरित हो सकने वाले बीज पैदा करती रहें। अन्य प्राणि, जैसे लेडीबग और मेंढक फसलों के कीटाणुओं को सीमित रखने में सहायक होते हैं। इन कार्यों के प्रभाव अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं जैसे मिट्टी की उर्वरता, कूड़े-कचरे का अपघटन आदि और साथ ही हवा एवं पानी की शुद्धता, जलवायवीय नियमन एवं बाढ़/सूखा आदि को भी यह कार्य प्रभावित करते हैं। एक पारिस्थितिकी तंत्र में जितनी अधिक विविधताएं होंगी, उतना ही अधिक ये पर्यावरण संबंधी दबाव को सहने में सक्षम होगा। वातावरण में उपस्थित विभिन्न गैसों के बीच संतुलन जैव विविधता के कारण ही होता है। यह जाहिर सत्य है कि जिस बेदर्दी से हमने अपने वृक्षों को समाप्त किया है उसने हमारे वातावरण मे नकारात्मक बदलाव के बीज बो दिये हैं। हानिकारक किरणों से बचाने वाली ओजोन परत में छिद्र होने से ले कर आज जिस ग्लोबल वार्मिंग के खतरे का हम सामना कर रहे हैं उसके पीछे का प्रमुख कारण अपने पर्यावरण का भली प्रकार संरक्षण नहीं करना है। हमने यह बुनियादी समझ ही नहीं रखी कि जैव-विविधतता सीधे हमारे अस्तित्व से जुडा हुआ मसला है।  

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Tuesday, May 30, 2017

जैव विविधता संवर्धन ही पर्यावरण संरक्षण है


यह धरती हमारे सौरमण्डल का सबसे सुन्दर ग्रह है। इसे विशिष्ठ और अद्भुत बनाता है इसका पर्यावरण; इसमें उपस्थित जलवायु और यहाँ का जीव जगत। जीव-जगत भी यहाँ इतना विविध है कि वनस्पतियों के लाखों प्रकार, मत्स्यों के लाखों प्रकार, स्तनधारी जीवों के लाखों प्रकार, पक्षियों के लाखों प्रकार इतना ही नहीं किट-पतंगों और तितलियों की भी अनगिनत भांतियाँ। इसे दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जैव विविधता वस्तुत: किसी दिये गये पारिस्थितिकी तंत्र, किसी बायोम अथवा एक पूरे ग्रह में जीवन के रूपों की विभिन्नता का परिमाण है। हमारी पृथ्वी पर जीवन आज लाखों विशिष्ट जैविक प्रजातियों के रूप में उपस्थित हैं। समूचे विश्व में 2 लाख 40 हजार किस्म के पौधे 10 लाख 50 हजार प्रजातियों के प्राणी हैं। केवल भारत में ही जंगलों, आर्द्रभूमियों और समुद्री क्षेत्रों में कई तरह की जैव विविधता पाई जाती है। विश्व के बारह चिन्हित मेगा बायोडाइवर्सिटी केन्द्रों में से भारत एक है। विश्व के 18 चिन्हित बायोलाजिकल हाट स्पाट में से भारत में दो पूर्वी हिमालय और पश्चिमी घाट हैं। 

देश में 45 हजार से अधिक वानस्पतिक प्रजातियाँ अनुमानित हैं, जो समूची दुनियॉ की पादप प्रजातियों का 7 फीसदी हैं; इन्हें 15 हजार पुष्पीय पौधों सहित कई वर्गिकीय प्रभागों में बांटा जाता है। करीब 64 जिम्नोस्पर्म 2843 ब्रायोफाइट, 1012 टेरिडोफाइट, 1040 लाइकेन, 12480 एल्गी तथा 23 हजार फंजाई की प्रजातियाँ लोवर प्लांट के अंतर्गत् अनुमानित हैं। पुष्पीय पौधों की करीब 4900 प्रजातियाँ देश की स्थानिक हैं। करीब 1500 प्रजातियाँ विभिन्न स्तर के खतरों के कारण संकटापन्न हैं। भारत खेती वाले पौधों के विश्व के 12 उद्भव केन्द्रों में से एक है। भारत में समृध्द जर्म प्लाज्म संसाधनों में खाद्यान्नों की 51 प्रजातियाँ, फलों की 104 प्रजातियाँ, मसालों की व कोन्डीमेंट्स की 27 प्रजातियाँ, दालों एवं सब्जियों की 55 प्रजातियाँ, तिलहनों की 12 प्रजातियाँ तथा चाय, काफी, तम्बाकू एवं गन्ने की विविध जंगली नस्लें शामिल हैं। देश में प्राणी सम्पदा भी उतनी विविध है। विश्व की 6.4 प्रतिशत प्राणी सम्पदा का प्रतिनिधित्व करती भारतीय प्राणियों की 81 हजार प्रजातियाँ अनुमानित हैं। भारतीय प्राणी विविधता में 5000 से अधिक मोलास्क और 57 हजार इनसेक्ट के अतिरिक्त अन्य इनवार्टिब्रेट्स शामिल हैं। मछलियों की 2546, उभयचरों की 204, सरीसृपों की 428, चिड़ियों की 1228 एवं स्तनधारियों की 327 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। भारतीय प्राणी प्रजातियों में स्थानिकता या देशज प्रजातियों का प्रतिशत काफी अधिक है, जो लगभग 62 फीसदी है।

इन आंकडों को सामने रखते हुए यह स्पष्ट परिभाषा आवश्यक है कि वस्तुत: जैव विविधता है क्या? संरक्षण जीवविज्ञानी थॉमस यूजीन लवजॉय ने 1980 में ‘बायोलोजिकल’ और ‘डायवर्सिटी’ शब्दों को मिलाकर ‘बायोलॉजिकल डायवर्सिटी’ या जैविक विविधता शब्द प्रस्तुत किया। 1985 मं  डब्ल्यू.जी.रोसेन ने ‘बायोडायवर्सिटी’ या जैव विविधता शब्द की खोज की; यह शब्द छोटा तथा सुग्राह होने के कारण शीघ्र प्रचलन में आ गया तथा इसे वैश्विक स्वीकार्यता प्राप्त हो गयी। डब्ल्यू.जी.रोसेन ने ‘बायोडायवर्सिटी’ शब्द को पारिभाषित करते हुए कहा है कि “पादपों, जंतुओं, एवं सूक्ष्मजीवों के विविध प्रकार और उनमें विभिन्नता ही जैव-विविधता है”। सामान्य अर्थों में इस जगत में विविध प्रकार के लोगों के साथ, इस जीव परिमंडल में भी भौगोलिक रचना के अनुसार अलग-अलग नैसर्गिक भूरचना, वर्षा, तापमान एवं जलवायु के कारण वनस्पति एवं प्राणी सृष्टि में जैव विविधता हमें प्राप्य है। 1992 में रियो डी जेनेरियो में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी सम्मेलन में जैव विविधता की मानक परिभाषा दी गयी जिसके अनुसार “समस्त स्रोतों, यथा अन्तर्क्षेत्रीय, स्थलीय, समुद्री एवं अन्य जलीय पारिस्थितिकी तंत्रों के जीवों के मध्य अन्तर और साथ ही उन सभी पारिस्थितिकी समूह, जिनके ये भाग हैं, में पाई जाने वाली विविधताएं; इसमें एक प्रजाति के अन्दर पाई जाने वाली विविधताएं, विभिन्न जातियों के मध्य विविधताएं एवं पारिस्थितिकी तंत्रों की विविधताएं सम्मिलित रूप से जैव-विविधता कहलाती हैं”। संयुक्त राष्ट्र जैविक विविधता सभा द्वारा अनुसंशा के पश्चात सम्पूर्ण विश्व ने इसी को जैव-विविधता की मानक परिभाषा के रूप में अपना लिया है; यद्यपि कुछ देश जिनमें एन्डोरा, ब्रुनेई, दार-अस-सलाम, होली सी, ईराक, सोमालिया, तिमोर-लेस्ते और संयुक्त राज्य अमेरिका सम्मिलित हैं, ने इस परिभाषा को मान्यता नहीं दी है। यही नहीं दुनिया भर में अनेक देशों ने अपने-अपने संविधान के मुताबिक जैव विविधता को संरक्षित और विकसित करने के कानून बनाये है। 

जैवविविधता की परिभाषा केवल राष्ट्रों की राजनीति में ही नहीं उलझती वरन बारीकी से विवेचना की जाये तो विज्ञान के अलग अलग कोष्टकों में जाते हुए इस शब्द की परिभाषा भी बदलने लगती है। यद्यपि जैव विविधता की सबसे स्पष्ट परिभाषा होगी “जैविक संगठन के सभी स्तरों पर पाई जाने वाली विविधताएं ही जैव विविधता है” तथापि एक जीव विज्ञानी जैव-विविधता को जीवों एवं प्रजातियों तथा उनके मध्य प्रभावों के वर्णक्रम की तरह देखता है। जीवविज्ञानी के लिये यह दृष्टिकोण आवश्यक है कि पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति कैसे हुई, उनका विस्तार कैसे हुआ, उनके विविध प्रकार कैसे हुए, इन प्रकारों में भेद-विभेद क्या हैं, किस प्रकार वे विभिन्न प्रकार विलुप्त हो रहे हैं आदि आदि। यही दृष्टिकोण किसी परिस्थितिविज्ञानी के लिए बदल जाता है उसके लिये जैव विविधता केवल प्रजातियों के संदर्भ तक सिकुड जाती है; चूंकि यह स्थापित सत्य है कि प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र में उपस्थित जीव न सिर्फ अन्य जीवों से अपितु अपने चारों ओर मौजूद वायु, जल और मिट्टी से भी परस्पर प्रभावित होते हैं। आनुवंशिकी विज्ञानियों का मानना है कि जैव विविधता जीनिक विविधता पर निर्भर करती है। यहाँ जैव-विविधता का दृष्टिकोण म्यूटेशन (उत्परिवर्तन), जीन-विनिमय एवं डीएनए के स्तर पर होने वाली परिवर्तनात्मक सक्रियता आदि से प्राप्त किया जाता है।

जैव विविधता जीवन की सहजता के लिए जरूरी है। प्रकृति का नियामक चक्र जैव विविधता की बदौलत दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। वनस्पति, खाद्यान्न, जीव-जंतुओं की अनुपस्थिति से कितना नुकसान हो सकता है। वैज्ञानिक भी इसका आंकलन नहीं कर सकते। मिट्ट में पाये जाने वाला केंचुआ दिखने में साधारण है पर प्रकृति सन्तुलन में इसका भी बहुत बड़ा योगदान है। एक केंचुआ छ: माह की अवधि में बीस पौड़ पोषक कार्बनिक पदार्थ तैयार करके मिट्टी में मिला देता है। यह खेत की जमनी को पोला व भुरभूरा भी बनाता है इनकी जातियां यदि नष्ट न हों तो वे मिट्टी में दस वर्ष में एक इंच सतह को बढ़ा सकते हैं, जो अत्यन्त उपजाऊ होती है। केंचुए यदि नष्ट हो जाएं तो यह कार्य करनें में प्रकिति को पाँच सौ वर्ष लग जाएंगे। धरती अगिनत, अमूल्य धरोहर संजोए हुए, जीवन को जीवन्त बनाए हुए हैं। गीता का एक श्लोक है- ‘जीव जीवनस्य भोजनम।’ यह प्राकृतिक और जीवन क्रम के लिए जरूरी है। हवा, जल, मिट्टी जीवन के आधारभूत तत्व हैं। प्राकृतिक रूप से इनका सामंजस्य सतत् जीवन का द्योतक है। जैव विविधता अरबों वर्षों के विकास का परिणाम है। धरती की जैव विविधता को वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत पर ही संरक्षित किया जा सकता है। प्रकृति, जीव-जंतु और मनुष्य के बीच सामंजस्य कायम रहेगा, तब तक विविधता रंग बने रहेंगे। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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नक्सलवाद से लड़ती सड़कें


एक यायावर लेखक सड़कों से ही अपनी बात आरम्भ कर सकता है। इस बार दंतेवाड़ा - अरनपुर मार्ग में बदला हुआ वातावरण था। शहादत की अनेक कहानियाँ इस सड़क निर्माण के साथ जुड़ी हुई हैं। कतिपय स्थानों पर किनारे उन वाहनों को भी देखा जा सकता है जिन्हें सडक निर्माण का विरोध करते हुए नक्सलियों ने जला दिया था। ग्रामीण बताते हैं कि बिछाई गयी बारूद को तलाश तलाश कर और भविष्य में मौत देने की तैयारियों के लिये लगाये गये सैंकड़ों विस्फोटकों को डिफ्यूज करते हुए डामर बिछाया गया है। अब दंतेवाड़ा जिले की आखिरी सीमा अर्थात अरनपुर पहुँचना सहज हो गया है। इसके आगे अभी संघर्ष जारी है और जगरगुण्डा तक सड़क को पहुँचाने में एड़ी-चोटी का जोर लगने वाला है। मैंने संभावना तलाशी कि यथासंभव जगरगुण्डा तक पहुँचने का प्रयास किया जाये और गाड़ी कच्चे रास्ते में उतार दी। जगरगुण्डा संभवत: सात किलोमीटर रह गया होगा जहाँ से हमें अपनी गाड़ी को वापस लेना पड़ा लेकिन यह स्पष्ट था कि न केवल इस मार्ग में कदम कदम पर लैण्डमाईंस का खतरा है अपितु भूगोल भी ऐसा है कि वह माओवादियों को प्रत्याक्रमण के लिये बेहतर स्थिति प्रदान करता है। इस रास्ते से आगे बढते हुए सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जगरगुण्डा में राशन और आवश्यक सामान पहुँचाने के लिये क्यों पंद्रह सौ जवानों को जान पर खेल कर यह संभव बनाना पड़ता है।  दोरनापाल से जगरगुंडा,  दंतेवाड़ा से जगरगुंडा और बासागुड़ा से जगरगुंडा तीनो ही पहुँच मार्ग इस तरह माओवादियों द्वारा अवरोधित किये गये हैं कि जगरगुण्डा एक द्वीप में तब्दील हो गया है जहाँ सघन सुरक्षा में किसी खुली जेल की तरह ही जन- जीवन चल रहा है। 

वापस लौटते हुए अरनपुर कैम्प में जवानों से मुलाकात हुई और लम्बी चर्चा भी। मैं केवल यह नहीं जानना चाहता था कि सड़कों के निर्माण में आने वाली बाधायें क्या हैं अपितु यह समझना आवश्यक था कि नक्सलगढ तक आ पहुँची सड़कों से क्या बदलाव आ रहा है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि सड़कें बहुत धीमी गति से नक्सलगढ की छाती पर सवार हो रही हैं और परिवेश बदल रहा है। भय का वातावरण सडकों के आसपास से कम होने लगा है। रणनीतिक रूप से पहले एक कैम्प तैनात किया जाता है जिसे केंद्र में रख कर पहले आस-पास के गाँवों में पकड़ को स्थापित किया जाता है। आदर्श स्थिति निर्मित होते ही फिर अगले पाँच किलोमीटर पर एक और कैम्प स्थापित कर दिया जाता है। इस तरह जैसे जैसे फोर्स आगे बढ रही है, वह अपने प्रभाव क्षेत्र में सड़कों की पुनर्स्थापना के लिये मजबूती से कार्य भी कर रही है। एक जानकारी के अनुसार इस क्षेत्र में केवल ग्यारह सड़कें दो सौ पैंतीस टुकड़ों में तैयार की जा रही हैं। 

हमारी सशस्त्र ताकतें आरोपों के निरंतर घेरे में काम करती हैं। एक ऐसा माहौल तैयार कर दिया गया है कि नक्सलवाद से लडने वाला प्रत्येक जवान या तो बलात्कारी है अथवा हत्यारा। इस कहन को इतनी चतुराई के साथ वैश्विक मंचो पर प्रस्तुत किया जाता है कि अनेक बार मैं दिवंगत आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा के मेरे द्वारा लिये गये आखिरी साक्षात्कार की इन पंक्तियों से सहमत हो जाता हूँ कि नक्सलवाद के विरुद्ध मैदानों में पायी गयी जीत को बहुत आसानी से दिल्ली में बैठ कर केवल पावरपोईंट प्रेजेंटेशन से पराजित किया जा सकता है। उदाहरण के लिये ताडमेटला में हुई घटना पर कानून अपना काम निर्पेक्षता से कर रहा है  और बस्तर में लाल-आतंकवाद को पोषित करने वाली धारायें आक्रामकता से। दिल्ली के एक सरकारी विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका पर ग्रामीणों को नक्सलवाद के पक्ष में भडकाने के आरोप लगे तब पूरी बहस को केंद्रीय सरकार के कार्मिकों की नियमावली से भटका कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर केंद्रित कर दिया गया था। हाल में पुलिस के जवाने ने नक्सल समर्थन के विरोध में कतिपय पुतले जलाये तो अब बहस अभिव्यक्ति के तरीके पर नहीं अपितु केंद्रीय सरकार की नियमावली पर हो रही है। दोनो ही घटनायें लगभग एक जैसी हैं, ऐसा नहीं कि सरकार के लिये कार्य कर रहे प्राध्यापकों के और सुरक्षा कर्मियों के कर्तव्यों में और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानकों में संविधान ने अंतर की रेखा खींच रखी हो? थोडा पुराने पन्नों को पलटने पर याद किया जा सकता है कि नक्सलवाद से लडाई के एक समय के अगुवा पुलिस अधिकारी विश्वरंजन को वैश्विक स्तर पर आलोचना का पात्र योजनाबद्धता के साथ बनाया गया था, यहाँ तक कि दिल्ली में एक साहित्यिक कार्यक्रम में लेखिका अरुंधति राय ने उनके साथ मंच साझा करने से इनकार कर दिया था। जैसे जैसे नक्सलवाद के विरुद्ध जमीनी लडाईयाँ तेज होंगी बहुत शातिरता के साथ सुरक्षाबल और उसके अगुवा लोगों को विलेन बनाने की साजिशें भी बल पकड़ेंगी क्योंकि बस्तर में लडाई केवल हथियारों से नहीं बल्कि मानसिकता और मनोविज्ञान के हर स्तर पर लडी जा रही है, जो पक्ष कमजोर हुआ धराशायी हो जायेगा। इस सबका दु:खांत पहलू यह है कि बस्तर से बहस के लिये चुनी गयी घटनाओं की दिशायें तय हैं इसीलिये पूरा देश हर बस्तरिया के चेहरे पर उसी तरह नक्सलवादी देखने लगा है जैसे कश्मीरियों के चेहरे पर आतंकवादी तलाशा जाता है। 

बातों बातों में इसी वर्ष अगस्त में अरनपुर के सरपंचपारा की एक घटना से परिचित हुआ। यहाँ गाँव से मुख्य सड़क तक पहुँचना लगभग असंभव था चूंकि माओवादियों द्वारा सभी पहुँच मार्गों को काट कर अलग-थलग कर दिया गया था। इसी मध्य एक ग्रामीण महिला को प्रसव पीड़ा उठी और उसके लिये स्थिति विकराल हो गयी। लगभग दो दिवस तक असह्य वेदना झेलने के पश्चात भी प्रसव नहीं हुआ, अपितु महिला के जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा हो गया। सीआरपीएफ की 111वीं बटालियन के जवानों ने लगभग तीस किलोमीटर पैदल ही स्ट्रेचर थामे दर्द से कराहती महिला को सुरक्षा प्रदान करते हुए बाहर निकाला और अस्पताल पहुँचाया। इस घटना में कमी है कि यह सुरक्षा बलों के मानवीय पक्ष को प्रस्तुत करती है जो शायद हमारी तल्ख या प्रायोजित बहसों के बीच सबसे वृथा विषय है।

सुरक्षा बलों के साथ समय गुजारते हुए मैंने उनके द्वारा अपने कार्यक्षेत्र की परिधि में किये जा रहे सामाजिक-आर्थिक कार्यों का जायजा लिया। स्वास्थ्य सुविधा, साईकिल वितरण अन्य आवश्यक सामानों की आपूर्ति जैसे अनेक कार्य नक्सलियों से मोर्चा लेने के साथ साथ समानान्तर रूप से सिविक एक्शन के तहत किये जा रहे हैं। मैंने यह महसूस किया कि ग्रामीणों को जैसे जैसे सुरक्षा का अहसास हो रहा है उन्होंने माओवाद के स्थान पर मुख्यधारा को अपने पहले विकल्प के तौर पर चुना है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि सड़कें बेहतर तरीके से माओवाद के विरुद्ध लड़ाई में अपना योगदान दे रही हैं। मेरी यह अवधारणा इसलिये भी प्रबल हो जाती है चूंकि कटेकल्याण-दंतेवाड़ा सडक जो बहुत कठिनाई से निर्मित हो सकी किंतु इसपर यात्रा करते हुए मुझे महसूस हुआ कि अब जन-आवागमन बहुत सहज हो गया है तथा वातावरण में भयमुक्तता व्याप्त है।     

- राजीव रंजन प्रसाद 
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पर्यावरण की बुनियादी समझ आवश्यक है




पर्यावरण शब्द न केवल बहु-आयामी है अपितु अनेको विषयों पर अध्येता की समझ विकसित होने की मांग करता है। इस शब्द की सार्थक विवेचना के पीछे की सबसे बड़ी अडचन यह है कि ‘पर्यावरण और विकास’ को साथ में रख कर समझने की बहुधा कोशिश की जाती रही है और हर बार दो धारायें बाहर निकल कर भिन्न मार्गों की ओर चली गयी हैं। विकास का विरोधाभासी शब्द विनाश है न कि पर्यावरण; इस तथ्य को गंभीरता से समझने की आवश्यकता है। यह ध्यान मे रखना होगा कि उपभोक्ता संस्कृति और वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया है। जीवन स्तर उँचा उठाने के लिये संघर्ष करते लोग और साथ ही साथ असामान्य रूप से बढती जनसंख्या के दबाव ने प्राकृतिक असंतुलन पैदा कर दिया है। अवैज्ञानिक तरीके से जारी विकास की दौड मे उद्योगों ने प्रकृति को अनदेखा कर दिया। यही नहीं जनसंख्या का दबाव झेलने के लिये बनायी जा रही नीतियों ने खाद्यान्न उत्पादन बढाने के लिये कृषि में रासायनो का उपयोग बढाया तो इससे भूमि, पानी, हवा के साथ अन्न भी जहरीला होने लगा। जनसंख्या के विस्फोट ने शहरो की संख्या को बढाया। शहरों मे वाहनो की संख्या बढी तो वहाँ की हवा सांस लेने के लिये अनुपयुक्त होने लगी। यह एक सरल विमर्श है यह समझाने के लिये कि पर्यावरण के साथ हुए नुकसान का खामियाजा पूरी दुनिया को किसी न किसी रूप में भुगतना पड रहा है। इस असतुलित विकास की दिशा ने विनाश की आमद का मार्ग प्रशस्त किया। भूकम्प, जवालामुखी, टॉरनेडो, सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदा निरंतर हो गयी हैं तथा जन-धन को समाप्त कर रही है। प्राकृतिक प्रकोप बढने का मुख्य कारण संसाधनों का तीव्रतम दोहन है तो समूची अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर रहा है। निहितार्थ यह है कि पर्यावरण की परिधि में हम और हमारा परिवेश उसकी सम्पूर्णता के साथ आता है अत: विकास और विनाश जैसी बहसों को उसके निष्कर्षों तक पहुँचाने के लिये इसे परिभाषित किया जाना अत्यधिक आवश्यक है। यह विमर्श हमें सोचने पर बाध्य हरता है कि कहीं हमारे व्यवहारशास्त्र में कोई बडी कमी है अथवा हमने अपने पर्यावरण के निहितार्थ को सही प्रकार से ग्रहण नहीं किया है। 

हम कैसे समझें कि पर्यावरण क्या है? एक बडी ही रुचिकर परिभाषा है कि “व्यक्ति गर्भावस्था से लेकर मृत्यु पर्यन्त अपने आस-पास से जो भी उत्तेजनाएं ग्रहण करता है उनके समुच्चय का मान ही पर्यावरण है” (बैरिंग, लैंगफील्ड और बेल्ड)। इस परिभाषा की चीरफाड करें तो निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति को केन्द्र में रखते हुए उसके जीवन तथा व्यवहार को प्रभावित करने वाले सभी कारक सम्मिलित रूप से उसका पर्यावरण हैं। इन प्रभावकारी कारकों को मनुष्य की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति से भी जोडा जा सकता है तथा भौतिक परिदृश्य से भी। मोटे तौर पर वह सब कुछ पर्यावरण है जो हमे हमारे चारो ओर की सजीव तथा निर्जीव वस्तुओं से जोडता है। संधिविच्छेद करने पर पर्यावरण शब्द से ‘परि (चारो ओर) तथा ‘आवरण’ (घेरा) बाहर निकलते हैं; अर्थात सम्मिलित रूप से पर्यावरण का हिस्सा हैं - हमारे वृक्ष-पादप, पक्षी-जंतु जगत, हमारी नदियाँ, हमारी वायु, हमारा आकाश यहाँ तक कि अंतरिक्ष भी। कुछ अन्य परिभाषायें पर्यावरण शब्द की सुन्दर व्याख्या करती हैं जैसे रॉस के अनुसार “पर्यावरण वह बाह्य शक्ति है जो प्रभावित करती है”। हार्कोविट्ज के अनुसार “पर्यावरण सभी बाह्य दशाओं एवं प्रभावों का सम्पूर्ण योग है जो जीवों के कार्यों एवं विकास को प्रभावित करता है”। टेंसले के अनुसार “प्रभावकारी दशाओं का सम्पूर्ण योग जिसमे जीव रहते हैं, पर्यावरण कहलाता है”। फिटिंग के अनुसार “जीव के परिवेशीय कारकों का योग पर्यावरण है”। सरलीकरण करने के लिये आप प्रत्येक जीव या समूह के लिये परिभाषा दे सकते हैं कि वे समस्त जैविक, भौतिक तथा सामाजिक परिस्थितियाँ जिसमे कोई जीव निवास करता है उसका अपना पर्यावरण है। घिरा होना यहाँ महत्वपूर्ण है जिसके लिये फ्रांसीसी शब्द है “एन्वाईरोनियर” इसी भावार्थ को पकड कर पर्यावरण के लिये अंग्रेजी शब्द की सृष्टि हुई है – एंवायरन्मेंट।

प्राथमिक समझ तो हमारी प्राचीन पुस्तकें ही करा देती हैं जहाँ वे शरीर को जिन पाँच तत्वों की समिष्टि बताती हैं अर्थात धरती, जल, अग्नि, आकाश तथा वायु; वस्तुत: ये सभी तत्व सम्मिलित रूप से पर्यावरण शब्द की सही परिभाषा निर्मित करते हैं और यह भी बताते हैं कि शरीर की कोशिका जैसे सूक्ष्म तत्व से ले कर अंतरिक्ष की विराटता तक सब कुछ पर्यावरण शब्द के भीतर समिष्ठ हो जाता है। अथर्ववेद मे कहा गया है कि भूमि हमारी माता है। हम पृथ्वी के पुत्र हैं। मेघ हमारे पिता हैं, वे हमें पवित्र करते हुए पुष्ट करें -  मात्य भूमि पुत्रो अहम पृथिव्या। पर्जन्य पिता स उ ना पिपर्तुम। (12.1.12) 

ऋग्वेद में कहा गया है कि पृथ्वी, अंतरिक्ष एवं द्युलोक अखंडित तथा अविनाशी हैं। जगत का उत्पादक परमात्मा एवं उसके द्वारा उत्पन्न यह जीव जगत भी कभी नष्ट न होने वाला है। विश्व की समस्त देवशक्तियाँ अविनाशी हैं। पाँच तत्वों से निर्मित यह सृष्टि अविनाशी है। जो कुछ उत्पन्न हो चुका है अथवा जो कुछ उत्पन्न होने वाला है वह भी अपने कारण रूप से कभी नष्ट नहीं होता है - 
अदितिधौर्रदितिर न्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्र:। 
विश्वे देवाअ अदिति: प न्चजनाअदितिर्जात मदितिर्जनित्वम॥ 

हमारे आसपास की प्रत्येक वस्तु जड़, चेतन, प्राणी, हमारा रहन-सहन, खान-पान, संस्कृति विचार आदि सभी कुछ पर्यावरण के ही अंग है। ‘जल बिन मीन’ के अस्तितिव की कल्पना कीजिये। जल मछली का पर्यावरण है वह जीवित ही नहीं रह सकती यदि उसे पानी से बाहर निकाल दिया जाये। मछली तब भी जीवित नहीं रह सकती यदि जिस पानी में उसका जीवन है वह विषैला हो जाये अथवा उसमे ऑक्सीजन की मात्रा कम होने लगे। यही उदाहरण वृहद हो कर पर्यावरण की सम्पूर्ण परिभाषा बन जाता है। इस आधार पर यह स्पष्ट है कि जीवन के लिए एक परिपूर्ण व्यवस्था बनाने वाले जैविक तथा अजैविक तत्व मिल कर पर्यावरण का निर्माण करते हैं। “किसी भी जीव जन्तु में समस्त कार्बनिक व अकार्बनिक वातावरण के पारस्परिक सम्बन्धों को पर्यावरण कहेंगे” यह परिभाषा  जर्मन वैज्ञानिक अरनेस्ट हैकन ने दी है। इसी उदाहरण पर आगे बढते हुए हम यह समझ सकते हैं कि प्रत्येक प्राणी भिन्न पर्यावरण में निवास करता है। जो मछली के लिये पर्यावरण सही है वह हाथी  के लिये अनुपयुक्त, यही उनके भिन्न भिन्न निवास स्थल होने का कारण भी है। अत: एक विशेष जीव समूह के योग्य पर्यावरण में उसका निवास स्थल अथात हेबिटाट (Habitat) बनता है। हेबिटाट शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द हैबिटेयर (Habitare) से हुई है। बुनियादी तौर पर देखा जाये तो हेबिटाट और पर्यावरण शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची प्रतीत होते हैं किंतु इनमें बुनियादी अंतर व्यापकता का है। जहाँ हैबिटाट शब्द किसी परिवेश के स्थानीय घटकों तक संकुचित है वहीं पर्यावरण व्यापकता में परिवेश के अनेकों घटकों को स्वयं में सहामित करता है। किसी छोटे क्षेत्र में एक जीव विशेष से जुडे परिवेश को उसका अपना सूक्ष्म वातावरण (Micro Climate) कहा जा सकता है।

पर्यावरण की बुनियादी समझ आवश्यक है। हम संरक्षण का अर्थ केवल पौधारोपण समझते हैं और यह मान कर चलते हैं कि इतने ही से अपने कर्तव्यों की इतिश्री हो गयी है। वस्तुत: जबतक कम अपने कार्यकलापों से सूक्ष्म वातावरण में पढने वाले प्रभावों तक की विवेचना में सक्षम नहीं होंगे हमारा लीपा-पोती और नारों वाला पर्यावरण संरक्षण जारी रहेगा जिसका कोई अधिक मायना नहीं। हर जीव समूह, उसका हेबीटाट और जीवन शैली किसी न किसी तरह से मनुष्य के जीवन को भी प्रभावित करती है एवं किसी वातावरण से एक के विलुप्ति भी मानव अस्तितिव पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाती चलती है। प्रकृति ने डायनासोर को भी अपने अत्यधिक दोहन के लिये क्षमा नहीं किया, वह मनुष्यों को भी नहीं करेगी। 

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