Sunday, May 25, 2014

लाल बुझक्कड बूझगे और न बूझो कोय!!



पिछले पृष्ठ से क्रमश: 

[झिरमघाटी नक्सली हमले पर एक संस्मरण]
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झिरमघाटी की निंदनीय तथा भयावह घटना को पूरा एक वर्ष हो गया। इस घटना की अनेक कोण से विवेचनायें होती रही हैं। केवल यह मान कर कि नक्सली हमला कांग्रेसी नेता महेन्द्र कर्मा की हत्या करने की साजिश भर थी और इस तरह सलवा जुडुम का बदला लिया गया, इसे बहुत उथला विश्लेषण कहा जा सकता है। इस घटना के स्पष्ट राजनीतिक मायने भी थे। नक्सलियों द्वारा कॉग्रेसी नेताओं की एक पूरी पीढी को समाप्त करने के पीछे की समग्र योजना और उसके कारणों का सामने आना अभी शेष है। घटना के तीन दिन बाद मैं तत्कालीन माहौल और प्रभावों को जानने समझने के लिये दरभा घाटी को जोडने वाले दो छोर पर अलग अलग दिशा से गया था। जो कुछ इस आलेख के माध्यम से मैं कहने की कोशिश कर रहा हूँ उसे केवल संस्मरण कहना न्यायोचित नहीं होगा, यह इतिहास बन चुकी घटना पर एक अलग दृष्टिकोण अवश्य है। 

28 मई 2013 की सुबह; सड़क एकदम सूनसान थी। बचेली से बारसूर की तरफ बढ़ते हुए बार बार ध्यान सड़क के दोनो ओर गिराये गये पेड़ों की तरफ जा रहा था। 25 मई को बस्तर की दरभा घाटी में हुई लाल-आतंकवादी घटना समय ही सुकमा से बचेली और गीदम पहुचने वाले दोनो ओर के मार्गों पर बड़े बड़े पेड़ काट कर गिराये गये थे। सरसरी निगाह से देखने पर ही यह समझा जा सकता है कि दरभा घाटी में हुआ मौत का भयानक ताण्डव अगर वहाँ नहीं होता तो भी टलता नहीं। कॉग्रेस की परिवर्तन यात्रा के जाने के प्रत्येक मार्ग अवरुद्ध किये गये थे और पेडों को महेन्द्र कर्मा के गृहनगर ‘फरसपाल पहुँच मार्ग’ से कहीं आगे तक काट काट कर गिराया गया था जिससे कि वारदात के समय गाडियों के चक्के जाम रहें। 

जैसे ही हम कुछ और आगे बढे एक पेड पर चिपाकाया गया पोस्टर नज़र आया। पोस्टर में महेन्द्र कर्मा की नृशंस हत्या के बाद अब सलवा जुडुम के नेताओं को जान से मारने की धमकी दी गयी थी साथ ही ऑपरेशन ग्रीन हंट के लिये मुर्दाबाद था। ऑपरेशन लाल हंट वालों को हर तरफ से अपने ही हंट की चिंता है यह बात इस पोस्टर की विवेचना से स्पष्ट है। सलवा जुडुम भले ही अब समाप्त हो गया हो लेकिन उसके नेताओं से बदला लिया जाना है जिससे कि आदिवासी कभी भी माओवादियों के खिलाफ सिर न उठा सकें और दूसरी बात कि उनके खिलाफ चलाया जा रहा तथाकथित अभियान बंद हो जिससे कि वे निष्कंटक अपना आधार इलाका बढा सकें और समूचे बस्तर को सुरसा मुख में निमग्न कर उसका लाल-सलाम कर दें। 

हमारे यहाँ दिल्ली से नौटंकीबाज समाजसेवियों की खूब सुनी जाती है तो चलिये उनकी ही जनपक्षधरता के नारों का ग्राउंड जीरो में खोखलापन देखें। दंतेवाड़ा को बचेली से जोड़ने वाला शंखिनी नदी पर अवस्थित एक पुल दोनो ओर से चार स्थानों से लगभग काट दिया गया था जिससे कि आवागमन पूरी तरह बाधित हो जाये। इस बात को सामान्य करार देते हैं, मान लेते हैं कि सड़क तो केवल पूंजीपति और मध्यमवर्तीय लोगों की थाती है आम आदिवासी तो सड़क का उपयोग ही नहीं करता होगा? हो सकता है दिल्ली से एसा ही दिखता हो तो परे कीजिये इस बात को और यहाँ से कुछ सौ मीटर और आगे बढते हैं जहाँ माओवादियों के घटना के एन दिन एक वनोपज जांच नाका गिरा दिया था। दिल्ली सही चीखती है कि वन अधिकारी शोषक हैं इस लिये माओवादियों ने न्याय किया होगा। लेकिन सड़क के दूसरी ओर जहाँ बरसात-धूप से बचने के लिये यात्री शेड बना हुआ था उसे क्यों ध्वस्त किया गया? कोई नवीन जिन्दल उसके नीचे नहीं रुकता, कोई मध्यमवर्गीय व्यापारी, सेठ या किसी शरीर में आत्मा घुसा कर कोई जमींदार भी पुनर्जीवित हो यहाँ नहीं ठहरता। यह तो बस्तर की दो अलग अलग घाटियों को जोडने वाला स्थान था और यहाँ आगे जाने वाले यात्री वाहन की प्रतीक्षा करने के लिये आदिवासी ही विपरीत मौसमों में ठहरते थे। इस क्षेत्र में जो भी इमारते थी, संकेत चिन्ह थे, तथा होल्डिंग्स लगे थे सभी को जैसे चूर चूर कर दिया गया है। किसी बात की खीझ निकाली जा रही हो या गुस्सा प्रदर्शित किया जा रहा हो संभवत: एसा ही कुछ वहाँ देखा जा सकता था। 

इस दृश्य पर ठहर कर दरभा घाटी की घटना की विवेचना करते हैं। कुछ दिनों पहले एक खबर नारायणपुर से आयी थी जिसमे बताया गया था कि माओवादियों ने ग्रामीणों पर पेड काटने के लिये जुर्माना लगाया है। यह बात कही गयी थी कि इस तरह जंगल बचेंगे। वस्तुत: हम एक घटना का दूसरी घटना से तार कभी जोडते ही नहीं। मेरी बात को सुकमा, बीजापुर और नारायणपुर तीनो ही मार्गों पर जाने वाले लोग आसानी से समझ सकते हैं। सड़क को अवरोधित करने के लिये माओवादियों द्वारा पेड़ काट कर गिराया जाना एक आम घटना है। उल्लेखित सड़कों के किनारे किनारे आपको सैंकडो काटे गये पेडों के ढूंठ नज़र आ सकते हैं। मुझे आशंका है कि मार्ग अवरुद्ध करने के लिये पेड़ काटा जाना कोई क्रांतिकारी गतिविधि नहीं अपितु आदिवासियों के संसाधनों की लूट का एक नये तरह का जरिया है। दरभा घाटी की घटना के दिन अकेले ही सौ से अधिक बडे बडे पेड काट कर मार्ग में बिछा दिये गये थे। मुझे अधिकतम पेड सागवान के लग रहे थे। अंचल के एक वरिष्ठ पत्रकार से जब मैने इसकी तस्दीक की तो ज्ञात हुआ कि चुन चुन कर सागवान के ही पेडों को काटा गया था। इतना ही नहीं दूसरे दिन किसी चमत्कार की तरह काटे गये पेडों के मुख्य हिस्से सड़क से गायब भी हो गये। मुझे किसी की आई क्यू पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना है आप चाहें तो इस सच्चाई के पीछे के खेल को नजरंदाज कर जनपक्षधरता की तकरीरे जारी रख सकते हैं। 

‘पर्यावरण और माओवादी’ बडा ही मजेदार विषय है जिसे बस्तर में होने वाली “मौतों पर जाम टकराने वाले एक विश्वविद्यालय” के विशेषज्ञों द्वारा बार बार दुहाई की तरह उठाया जाता है। मैने कई बार आदिवासियों से इस बात को जानने की कोशिश की है और अपुष्ट सूत्रों से यह बता सकता हूँ कि बस्तर के कई दुर्लभ पक्षी बाशिंदे निरंतर भूने खाये जा रहे हैं। आपको आदिवासियों के शिकार पर आपत्ति है और भीतर कई निरीह प्राणी इस महान सो-काल्ड साईंटिफिक सोच वाली लाल-सेना के कैम्प फायर की शोभा होते हैं। एक कश्मीरी पंडित लेखक ने फौरी बस्तर भ्रमण (माओवादियों से मिल कर उनसे सोने-जागने-धोने-नहाने पर किताबें लिखने वाला परिभ्रमण) के बाद लिखा कि किस तरह माओवादी कैम्प के बाहर एक सांप दिखा और उसे तुरंत मार दिया गया। मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया था कि बस्तर की कई महत्वपूर्ण खदाने जो कि कोरंडम, टिन जैसे बहुमूल्य संसाधनों की है उनपर अब लाल-आतंकवादियों का कब्जा है और मैं उन पर स्मग्लिंग का आरोप लगाउं- तौबा तौबा, आप तो यूं कहिये कि आदिवासियों के लाल-हंट के लिये बस्तर के ये संसाधन अब साधन जुटाने का काम कर रहे हैं। ये सभी वे कहानियाँ हैं जिन पर आपको कोई युनिवर्सिटी बात करती नजर नहीं आयेगी, कोई लेखक अपनी किताब में छाप कर चर्चा नहीं करेगा, कोई जनपक्षधर लाल-सलामी लेखक इन तथ्यों पर निगाह भी नहीं डालेगा। बस्तर मरता है तो मरे इससे किसको सरोकार? 

सच्चाई तो यही है कि जब 75 जवान मरे थे तब भी दिल्ली में खिलखिलाहट थी और जब 31 जनप्रतिनिधि मारे गये तब भी दिल्ली के कई बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग इसे तरह तरह से जस्टीफाई करने में लगे हैं। एक कविता कहती है कि जब नाजी कम्युनिष्टों के पीछे आये तब कोई नहीं बोला; तो बाद में सारे कम्युनिष्ट ही बंदूखें पकड कर बस्तर के जंगलों में नाजी बन गये; और खबरदार अब कोई मत बोलना? लाल-आतंकवादियों को साम्राज्यवादी कहने के पीछे मेरा तर्क वृथा भी नहीं है। यह बात तो सर्व-विदित है कि दरभा घाटी की घटना के पीछे आन्ध्र-ओडिशा-महाराष्ट्र-झारखण्ड के आतंकवादियों का हाथ था। एयरपोर्ट में मिलने वाला मंहगा पानी गटकने वाले आतंकवादी बस्तर को कैसा रखना चाहते हैं यदि इस बात को कोई प्रमाण के साथ समझना चाहता है तो आपको केवल इतना करना है कि सुकमा-कोण्टा मार्ग से हैदराबाद जाने वाली बस में बैठ जाईये। जबतक बस्तर है तब तक आपकी बस हिचकोले खाती हुई जायेगी। माओवादियों ने इस सड़क को इतनी जगह से काटा है कि अब गिनती करना मुमकिन नहीं है। लेकिन जैसे ही कोण्टा की सीमा समाप्त होती है और आन्ध्र लगता है तो चमत्कार नजर आता है। भाई यह भी तो माओवादी इलाका ही है लेकिन यहाँ की सड़क इतनी बढिया और फोर लेन? मैं जानता हूँ कि मेरी बात को कोई नहीं बूझ सकता - “लालबुझक्कड बूझगे और न बूझे कोय!!”

-राजीव रंजन प्रसाद 

झिरम घाटी हमले की बरसी पर दैनिक पत्रिका (छ.ग) में टिप्पणी


Sunday, May 18, 2014

बस्तर में इतिहास और नक्सलवाद का प्रवेशद्वार

इतवारी अखबार मे प्रकाशित  - 


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बस्तर को बूझने की पहली कड़ी है उसकी प्राणदायिनी सरिता इन्द्रावती। यह असाधारण नदी है जिसके पाटों में इतिहास और समाजशास्त्र मिलकर अपनी बस्तियाँ बसाये बैठे हैं। ओडिशा के कालाहाण्डी जिले में रामपुर युआमल के निकट डोंगरमला पहाड़ी से निकल कर इन्द्रावती नदी लगभग तीनसौछियासी किलोमीटर की अपनी यात्रा में पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती है। बस्तर पठार की पश्चिमी सीमा में यह नदी दक्षिण की ओर मुड कर भद्रकाली (भोपालपट्टनम) के पास गोदावरी नदी में समाहित हो जाती है।

बहुत समय से भद्रकाली जाने की मन में इच्छा थी। अपनी पुस्तक “बस्तर इतिहास एवं संस्कृति” में लाला जगदलपुरी ने “भद्रकाली का नीला-गेरुआ जलसंगम” शीर्षक से एक संस्मरण लिखा है जिसे पढने के पश्चात इस क्षेत्र को देखने की इच्छा बलवती हो उठी थी। लाला जी का लिखा संस्मरण वर्ष-1986 की वसंतपंचमी का है जब भद्रकाली का क्षेत्र अपने घने जंगलों और नयनाभिराम प्राकृतिक दृश्यों के लिये जाना जाता था किंतु फ़िजाओं में बारूद की गंध नहीं थी। समय के साथ यह क्षेत्र लाल आतंकवाद का प्रवेशद्वार बना। यहाँ के लुभाने वाले हरे भरे जंगल और मंत्रमुग्ध करने वाली पर्वत श्रंखला शनै: शनै: भय और आतंक का पर्याय कहे जाने लगे। यदि भौगोलिक दृष्टि से भद्रकाली की अवस्थिति को समझने की कोशिश की जाये तो यह भारत की दो पवित्रतम तथा प्राचीनतम नदियों की संगम स्थली है जो वस्तुत: तीन राज्यों की सीमा भी है। एक ओर आन्ध्रप्रदेश, दूसरी ओर महाराष्ट्र तथा तीसरे हिस्से की भूमि छत्तीसगढ राज्य है।

वातावरण में फरवरी की हल्की सी ठंडक विद्यमान थी। मेरे साथ सहयात्री थे मित्र कमल शुक्ला; रात्रि-विश्राम बीजापुर में करने के पश्चात हम सूरज की पहली किरण के प्रस्फुटन के साथ ही भोपालपट्टनम के लिये निकल गये थे। जीवंतता इन दिनो पूरे बस्तर से ही विलुप्तप्राय हो गयी है संभवत: इसी लिये बीजापुर से भोपालपट्टनम का सडकमार्ग एकदम सूनसान प्रतीत हो रहा था। भोपालपट्टनम प्रवेश कर पाते इससे पहले ही एक स्थान पर हम ठिठक गये। यहाँ लगभग दस से पंद्रह पेडों पर दर्जनों नक्सली पोस्टर लगाये गये थे। अनेक पोस्टरों में मुद्दे बैलाडिला से सम्बद्ध थे और उनमें लोहे की खदानों को बंद कराने की अपील थी। कुछ पोस्टर ऑपरेशन ग्रीन हंट को बंद करने, ग्रामीणों की हत्या रोकने, लुटेरी पार्टियों को गाँव में घुसने न देने आदि की चेतावनी भरे थे। नक्सलगढ में ऐसे स्वागत तोरण अपेक्षित ही थे। अब तक जितने भी नक्सली पोस्टर मैने पढे अथवा देखे है उसमें भाषा को ले कर जो भी त्रुटियाँ रहती हों मसलन “हत्या” की जगह “अत्या” अथवा “किनारे बसे” के स्थान पर “कीनारे बासे” आदि किंतु अपनी बात को नक्सली बहुत स्पष्टता से रखते हैं। प्राय: इन पोस्टरों की लिखावट मैंने इतनी सुंदर देखी है कि लगता ही नहीं कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों की परिधि में ये हिन्दी में लिखे गये पोस्टर लगाये गये हैं। 

हमने यह ठीक समझा कि स्थानीय मित्रों से भद्रकाली की ओर आगे बढने से पहले सहायता ले ली जाये। भोपालपट्टनम में अफ़ज़ल भाई को कौन नहीं जानता, एकदम निर्मोही और जीवट किस्म के पत्रकार। हम अफज़ल भाई के निवास पर पहुँचे तो वे केवल एकवस्त्र में भूमि पर विराजमान थे और सरसों के तेल से अपनी मालिश करवा रहे थे। हमने भी उनकी परमानंद की इस अवस्था में कोई दखल नहीं दिया अपितु उनके इशारे भर से हमारे लिये पानी और नाश्ते की व्यवस्था हो गयी थी। अफजल भाई हमारे साथ भद्रकाली तक चलने के लिये तैयार हो गये। तूम्बा भर कर पानी गाड़ी में रख लिया गया और हम तीनो ही आगे बढ चले थे। कुछ ही देर में मुख्यसड़क का साथ छूट गया और पथरीली उबड़-खाबड़ सडक ने हमारा स्वागत किया। एकाएक उँचाई से हमें तीव्र ढाल दिखाई पडी जो कि चिंतावागु नदी तक पहुँचती थी। रास्ता पूरी तरह रेतीला और उसपार जाने के लिये गाडी को इस नदी से हो कर ही निकलना था। यह भी किसी दक्ष वाहनचालक के बूते की ही बात थी क्योंकि एक निश्चित गति से चलाते हुए गाडी को नदी पार न करायी गयी तो पहियों के फँस जाने का अंदेशा था। नदी पार करते ही हमने राहत की सांस ली, हम किनारे उतर कर यहाँ के परिदृश्य का जायजा ले ही रहे थे कि सामने से स्थानीय युवा-आदिवासी पत्रकार सोमैया अपनी मोटरसायकल से आता दिखाई दिया। अफज़ल भाई ने उसकी मोटरसायकिल स्वयं के कर यहाँ हमसे विदा ली और सोमैय्या को हमारा आगे का मार्गदर्शक नियत कर दिया। 

आदिवासियों की बैद्धिकक्षमता, कार्यनिष्ठा और लगन का सजीव उदाहरण है सोमैया। चिंतावागु के तट से आगे बढते हुए भद्रकाली तक रास्ते के एक-एक मोड़ और उससे जुडी अनेकानेक घटनायें उसके माध्यम से सुनकर कभी हृदय रोमांचित होता तो कभी सिहरन मन में दौड़ जाती थी। इसमे कोई संदेह नहीं कि जिस रास्ते से हम अब गुजर रहे थे वह माओवादियों की सक्रिय कर्मभूमि है। सोमैया जब हमे रास्ते में बताता कि इस मोड पर गाडी उडा दी गयी थी, इस घाटी में मुठभेड हुई थी और ग्यारह लोग मर गये थे या कि यहाँ वाहनों को जला दिया गया था तो हर बार उसकी कम्पन रहित आवाज़ पर मुझे महसूस होता था कि इन वादियों और यहाँ के रहवासियों ने यह सब स्वाभाविक मान लिया है। 

रास्ता पूरी तरह उजाड़ और पथरीला था तथा भद्रकाली तक पहुँचना केवल उनके ही बूते की बात है तो यह कमर कस कर निकले हों कि अब चाहे जो हो वहाँ पहुँचना ही है। यह सडक मार्ग भोपालपट्टनम को आन्ध्र से भी जोडता है। यहाँ से गुजरने वाले इक्कादुक्का वाहन ग्रामीणों से खचाखच भरे हुए थे। इसमे कोई संदेह नहीं कि माओवादियों की सहमति और जानकारी के बिना यहाँ वाहन नहीं चल सकते थे। रास्ते में अनेक स्थानों पर सडकों को काटे जाने तथा जानबूझ कर बाधित किये जाने के चिन्ह स्पष्ट  देखे जा सकते हैं। समय समय पर माओवादियों द्वारा अपने किसी मिशन अथवा गतिविधि को अंजाम देने के लिये इन टूटी-फूटी सडकों को भी काट दिया जाता है और इस तरह आवागमन पूरी तरह बाधित कर दिया जाता है। ये काटी गयी सड़कें फिर किसी माससून में पानी के साथ बह आती मिट्टी से खुद ही भर जायें तो ही आवागमन के लिये पुन: खुल पाती हैं। मैं बहुत खामोशी से महसूस कर रहा था कि ये मध्ययुगीन दृश्य इक्कीसवीं सदी के भारत का हिस्सा हैं। पूरे रास्ते हमे इक्का दुक्का लोग ही मिले। सड़क के किनारे खडी कुछ युवतियों के जूडे में लगे फूलों के गजरे से यह बात मुझे स्पष्ट होने लगी थी कि इस क्षेत्र में बस्तर की संस्कृति पर आन्ध्र-महाराष्ट्र का संगम भी देखने को मिलने लगता है। कुछ आगे बढने पर मुझे बताया गया कि बस्तर में पचास के दशक में कलेक्टर रहे आर.एस.वी.पी नरोन्हा के नाम पर यहाँ एक गाँव और तालाब भी अवस्थित है।

बोलेरो जैसी कठिन रास्तों में चलने के लिये सक्षम जीप में यात्रा करते हुए भी कमर में दर्द हो चला था। हमारी आगे बढने की गति दस किलोमीटर प्रतिघंटा के आसपास रही होगी और यह लग गया था कि भद्रकाली पहुँचने-लौटने में ही आज पूरा दिन लग जायेगा। भद्रकाली गाँव के करीब पहुँचने पर हमे एक पुलिसकैम्प दिखाई पड़ा जिसके निकट से आगे बढते ही अब ग्रामीण बसाहट दिखने लगी थी। यहाँ एक पहाडी टेकरी पर भद्रकाली का मंदिर अवस्थित है जिसके नाम से ही गाँव को पहचान मिली है। मुझे स्थानीय पुजारी ने बताया कि प्रतिमा यहाँ पर बाद में स्थापित की गयी है और मंदिर किसी तहसीलदार द्वारा बनवाया गया है। पहले पहाडी टीले को ही देवी भद्रकाली का सांकेतक मान पर प्रार्थना-जात्रा संपन्न की जाती रही है। लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि “मंदिर के तत्वाधान में प्रतिवर्ष त्रिदिवसीय मेला लगता है। वसंतपंचमी के एक दिन पहले मेला भरता है और दूसरे दिन मेले का समापन बोनालू होता है। बोनालू के अंतर्गत हल्दी-कुमकुम से सजे हुए तीन घड़े रखे जाते हैं। एक के उपर एक। नीचे के घट में खीर रखी होती है। बीच के घडे में खिचडी रखते हैं और उपर वाले घडे में रहती है सब्जी। उपर वाले घट पर एक दीपक जलता रहता है। कई महिलायें अपने तीनों घडों को सिर पर रख कर मंदिर की परिक्रमा करती हैं। प्रदक्षिणा पूरी हो जाने के बाद हंडियों में रखी खीर, खिचडी और सब्जी का प्रसाद दर्शनार्थियों में बांटा जाता है। इसके अतिरिक्त तीन तीन साल में यहाँ अग्निप्रज्वलन समारोह भी श्रद्धालु शैव भक्तों द्वारा आयोजित होता रहता है। अग्निकुण्डों में अग्नि समयानुसार प्रज्ज्वलित रखी जाती है। मनौतियाँ मानने वाले लोग उपवास रखते हैं और आस्थापूर्वक अग्निकुण्डों में प्रवेश करते हैं और अंगारों पर चल निकलते हैं। भद्रकाली मंदिर में दर्शन करने के पश्चात हम अब उस जगह की ओर बढ चले थे जो दो महान सरिताओं की आलिंगन स्थली है और जहाँ गोदावरी नदी में बस्तर की प्राणदायिनी नदी इन्द्रावती समा कर अपना अस्तित्व विसर्जित कर देती है। आगे बढते हुए यहाँ ताड़ के पेडों की कतारें और खपरैल के बने तीस-पैंतीस मकानों की बसाहट दिखाई पड़ी।

इतिहास मेरे सामने उपस्थित हो गया था। यही वह स्थान है जहाँ से वर्ष-1324 में अन्नमदेव ने नागों के शासित क्षेत्रों में प्रवेश किया और बस्तर राज्य की स्थापना जी। इसी संगम स्थली पर प्रार्थना करने के पश्चात ही अन्नम्मदेव ने अपना बस्तर विजय युद्धाभियान आरम्भ किया था। यही वह स्थान है जहाँ से अस्सी के दशक में नक्सलवादी भोपालपट्टनम में प्रविष्ठ हुए और धीरे धीरे अपने प्रभाव का विस्तार करते हुए सम्पूर्ण अबूझमाड को अपना आधार क्षेत्र बना लिया। आज यही संगम स्थली न केवल तीन राज्यों के बीच संस्कृतियों का आदान-प्रदान कर रही है अपितु दु:खद यह कि दुर्दांत आतंक भी इसी स्थल को धुरी बना कर तीन राज्यों के लिये चुनौती बना हुआ है। 

एक पहाडी टीले से नीचे उतरने के बाद दूर दूर तक रेत का विस्तार दिखाई पड़ा। यह प्रतीत हो रहा था कि लगभग दो किलोमीटर इसी रेतीली भूमि पर चलने के पश्चात ही हम संगम तक पहुँच सकते हैं। गर्मी थी तथा यह दूरी देख कर एक बार के लिये हिम्मत जवाब देने लगी। दूर इन्द्रावती दिखाई पड रही थी और निगाह दौडाने पर गोदावरी नदी क्षितिज बनी हुई थी। लगभग आधा किलोमीटर ही आगे बढने के बाद लगा जैसे दूसरी दुनिया सामने प्रकट हो गयी है। दूर दूर तक बैगनी और काले रंग के पत्थरों के अनेक तरह की आकृतियाँ जो नदी की विपरीत दिशा में झुकी हुई दिखाई पड़ रही थीं। हम इन्द्रावती की दिशा से संगम की ओर बढ रहे थे और यह स्पष्ट था कि नदी ने पूर्ण विश्राम से पहले राह में मिलने वाले सभी अवरोधों को बारीक रेत बना दिया है। वे चट्टाने जिन्हें स्वयं पर फौलादी होने का दंभ रहा होगा अब भी शनै: शनै: अस्तित्व खो रहे हैं। नदी निर्मित स्थलाकृतियों का एसा अद्भुत सौन्दर्य मैने अन्यत्र नहीं नहीं देखा है। यह किसी चित्रकार की कल्पना जैसा लगता है जहाँ केनवास पर रेतीला रंग बिखेर कर फिर करीने से उभरे-तराशे हुए पत्थरों की छटा उकेरी गयी हो।

संगम निकट आ गया था। इन्द्रावती नदी की रफ्तार बहुत धीमी हो चली थी जबकि सामने से बह आती गोदावरी में गहराई और वेग साफ देखा जा सकता था। बहुत लम्बे समय की साध साक्षात देख मैं रोमांचित हो उठा। गोदावरी की ओर कोई मछुवारा अपनी नाव से जाल नीचे डाले मछली के फसने की प्रतीक्षा में बगुले की तरह स्थिर खडा दिखाई पड रहा था। कमल शुक्ला राज्यों की सीमा पार करने को उद्यत थे और बस्तर की ओर से तैर कर वे महाराष्ट्र के गढचिरौली पहुँच गये। मैंने संगम का जल अपने सिर पर डाल कर स्वयं को पवित्र हुआ महसूस किया। संगम के दूसरी ओर गढचिरौली की तरफ ऐतिहासिक शिवलिंग अवस्थित है जो संरक्षण के अभाव में बहुत हद तक खण्डित हो चुका है।

इन्द्रावती नदी किनारे की ओर बहुत उथली थी। मैं पैर डुबो कर वहीं किनारे बैठ गया और प्रकृति निर्मित अनुपम सौन्दर्य को अपलक निहारता रहा। अचानक मुझे अपने पैरों में गुदगुदी सी महसूस हुई। मैने ध्यान दिया कि सैंकडों छोटी मछलियाँ मेरे पैरों के चारो ओर एकत्रित हो गयी हैं। मैने अपना पैर नहीं हटाया और धीरे धीरे महसूस करने लगा कि किस आराम से मेरे तलुओ पर के बाहरी चमडे को वे धीरे धीरे निकाल रही हैं। मुझे आराम मिल रहा था साथ ही इन्द्रावती का ठंडा पानी मुझे सुकून और ध्यान की किसी दूसरी दुनिया की ओर ले चला था। 

यह स्थल न केवल पर्यटन की दृष्टि से बस्तर को उपलब्ध एक अद्वितीय जगह है अपितु धार्मिक दृष्टिकोण से भी इसकी महत्ता है। यह दु:खद है कि तीन राज्यों की सीमा होने का लाभ होने के स्थान पर हानि ही बस्तर का यह अंतिम छोर भुगतने के लिये बाध्य है। बहुत आसान है कि नावों से गोदावरी के रास्ते कोई भी बस्तर के अनछुवे सघन जंगलों और महानतम संस्कृति तक अपनी पैठ बना सकता है या कि तैर कर ही गढचिरौली से भद्रकाली तक पहुँच सकता है किंतु क्यों व्यापार इस रास्ते नहीं आता? प्रगति और समृद्धि को ये रास्ते दिखाई नहीं पडते लेकिन बारूद बेखौफ इन्द्रावती के तटों तक पहुँच रहा है। 

मैं भारी मन से दो महान सरिताओं की संगमस्थली से उठा था। अगाध सौन्दर्य जो बहुत ही कम निगाहों से गुजरा है, मेरे मानसपटल पर अंकित हो गया था। मैं कभी यह दृश्य नहीं भूल सकता और कामना भी है कि बस्तर की यह थाती हर किसी के लिये सुलभतम हो सके। इन्द्रावती बहुत खामोशी से गोदावरी का हिस्सा बन जाती है लेकिन बहुत दूर तक दोनो ही नदियों के जल को अलग अलग महसूस किया जा सकता है। बैलाडिला से चल कर अयस्क चूर्ण शंखिनी-डंकिनी नदियों के माध्यम से इन्द्रावती में मिल कर इस संगम स्थल तक भी पहुँच रहा है और इसे दूर दूर तक फैली रेत में घुले मिले भी देखा जा सकता है। अब तक दोपहर ढलने लगी थी। हम लौट रहे थे जबकि मन यहीं ठहरा रहना चाहता था। 

-राजीव रंजन प्रसाद