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किसी भी आन्दोलन का एक तेवर होता है, विचार होते हैं, दशा-दिशा होती है तथा कार्यशैली होती है। आप “हिट एण्ड ट्रायल” प्रक्रिया के अनुरूप कार्य करते हुए स्वयं को व्यवस्था परिवर्तन का स्वयंभू ठेकेदार तो निरूपित कर सकते हैं किंतु कोई क्रांति पैदा नहीं कर सकते। बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों को अस्सी के दशक से आधार क्षेत्र बना कर बैठे माओवादी भले ही अपनी सोच और कार्यान्वयन के फासीवादी तरीकों को सही बताने के लिये कथित प्रगतिशील शब्द तलाश लेते हों किंतु जनता की सोच ने ही उन्हें आतक़ंकवादियों की श्रेणी में रखा है। अब बहस विचारधारा से कहीं उपर जा चुकी है, सही मायनों में देखा जाये तो गोली के विरुद्ध गोली का संघर्ष भर रह गया है। बेचारा आदिवासी तो जानता ही नही कि उसे किस बात की सजा मिल रही है? क्या इस बात की कि उसके निवास उन पर्वतों पर अवस्थित हैं जहाँ भांति भांति के अयस्क और प्राकृतिक संसाधन हैं अथवा इस बात की कि वे उन प्राकृतिक स्थितियों में रह रहे हैं जो शेष दुनिया के लिये रहस्यमय और अबूझ हैं; जहाँ समुचित जानकारी के बिना परिन्दे भी पर मारने के लिये सहज नहीं हैं?
माओवाद पर नये सिरे से बहस दो कारणों से आवश्यक है। पहला कि लाल-आतंकवाद की राजधानी बस्तर वाले राज्य छत्तीसगढ में चुनाव सामने है एसे में राजनीतिक सक्रियताओं के भोंपू का जंगल में भी बजना तय है। दूसरा कारण यह कि आम चुनावों के मद्देनजर आया कमाण्डर रमन्ना का साक्षात्कार शैली में बयान नक्सली राजनीति की कई परतें खोल रहा है। माओवादियों की बेबसाईट पर दस अक्टूबर को जारी किया गया यह साक्षात्कार वस्तुत: विवेचना की भी मांग करता हैं कि उनके पास व्यवस्था बदलने की कोई ठोस रणनीति वास्तव में है भी अथवा नहीं? इस संदेह के बीज तो इस वर्ष दक्षिण बस्तर में हुई पत्रकार नेमीचन्द्र जैन की हत्या के समय ही पड़ गये थे। विरोधी विचार की इस निर्ममता से हत्या की जा सकती है इस बात से सजग पत्रकारों ने जब नक्सलियों का अभूतपूर्व विरोध किया जब ताल ठोंक कर मुखबिरी साबित करने वाले लाल-विचारकों को अपने हाथ से तोते उडते महसूस हुए। स्थानीय पत्रकारों ने अदम्य और सराहनीय साहस का परिचय देते हुए नक्सलियों से सम्बन्धित समाचारों का बहिष्कार कर दिया तथा उनकी प्रेस-विज्ञप्तियों, सूचनाओं, वक्तव्यों आदि से आंख मूंद ली। इसका परिणाम यह हुआ कि जंगल में लाख मोर नाचता रहे उसे देखेगा-दिखायेगा कौन? कथित क्रांति धरी न रह जाये इस बात से सशंकित नक्सली झुके और पत्रकारों से सम्बन्ध साधा गया। जंगल में हुई इस प्रेसवार्ता में पश्चिम बस्तर डिवीजन कमेटी मेंबर कमलु कुंजाम एवं महिला कमांण्डर ज्योति ने यह सफाई दी कि नेमीचन्द्र की हत्या उच्च कमीटी को अंधेरे में रख कर की गयी है। घटना की उच्चस्तरीय माओवादी नेताओं द्वारा जांच किये जाने तथा दोषियों को सजा दिये जाने की बात भी कही गयी थी। पत्रकार बंधुओं ने इस अपील का सकारात्मक उत्तर दिया और समाचार में पहले की तरह ही माओवादी पक्ष को भी जगह मिलने लगी। यद्यपि पत्रकारों ने दुबारा यह जानने की कोशिश नहीं की कि उनसे साथी नेमीचन्द्र जैन के मामले में क्या कार्यवाई हुई, किस तरह जांच हुई, कौन लोग दंडित किये गये, क्या सजा हुई या कि उन्हें भी आश्वासन की वैसी ही टॉफी चुसाई गयी जैसी मुख्यधारा की व्यवस्था उन्हें थमाया करती है?
नेमीचन्द्र जैन कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकते; इस बात की झलख मुझे रमन्ना के हालिया साक्षात्कार से मिलती है। रमन्ना कहता है कि “जब नेमिचंद जैन की हत्या हुई थी, थोड़ी भ्रम जैसी स्थिति उत्पन्न हुई थी। इस घटना को किसने और किसके निर्णय पर अंजाम दिया यह पता लगाने में काफी देरी हो गई। बाद में यह स्पष्ट हो गया कि हमारी एक निचली कमेटी के गलत आंकलन और संकीर्णतावादी निर्णय के चलते यह दुखद घटना घटी थी। हमें इस पर बेहद अफसोस है। मैं हमारी स्पेशल जोनल कमेटी की ओर से नेमिचंद के परिजनों और दोस्तों के प्रति गहरी संवेदना प्रकट करता हूँ। हमारी पार्टी इस पर पहले ही सार्वजनिक रूप से क्षमायाचना चुकी है। इस घटना ने हमें फिर एक बार यह सिखा दिया कि हमारे कतारों में जनदिशा और वर्गदिशा पर शिक्षा का स्तर ऊपर उठाने की सख़्त जरूरत है। मैं मीडिया के जरिए फिर एक बार जनता को यह आश्वासन देता हूँ कि आने वाले दिनों में ऐसी दुखद घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने पाए, हम पूरी एहतियात बरतेंगे”। कोई भी विवेचनावादी मुझे बताये कि इस क्षमायाचना में ठोस बात क्या कही गयी है? किसे सजा दी गयी है? जांच में जब निचले कैडर की गलती सामने आयी तो उनका क्या हुआ? जिस बात पर जोर है वह यही कि परिजनो और मित्रों भूल हुई माफ करो। क्या इस माफी से सर्वहारा पत्रकार नेमीचन्द्र जैन पुन: जीवित हो उठेगा और अपनी माँ के गले लग कर कहेगा देखा, मैं न कहता था कि सब ठीक हो जायेगा? यह हास्यास्पद बयान उन स्थानीय पत्रकारों के गले कैसे उतरा यह तो मैं नहीं जानता जिन्होंने इस प्रकरण का मुखर विरोध किया, साथ ही वे आज भी इन्ही परिस्थितियों में काम कर रहे है? यहाँ छोटे और बडे पत्रकार वाला बारीक अंतर भी देखना चाहिये। बीबीसी के पत्रकार रहे शुभ्रांशु चौधरी पर धमकी वाले मामले में रमन्ना ने जिस तरह मक्खन मल मल कर सफाई दी है वह बात समझने योग्य है। शुभ्रांशु पर धमकी की आलोचना अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार संघ ने की इसके बाद तो उनपर सम्मानित पत्रकार जैसे सम्बोधन के साथ चर्चा होनी ही थी। वो कोई बस्तरिया नेमीचन्द्र जैन थोडे ही हैं। विरोध करने का अधिकार केवल नक्सलियों और अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार संघों को ही तो है बाकी तो हवा हवाई बाते ही मानिये।
बात गहरी है इसलिये यहाँ से थोडा और आगे बढते हैं। झीरमघाटी हमले पर चादर पडने लगी थी फिर रमन्ना का बयान क्यों आया? इससे पहले बयान क्या है इसकी चर्चा कर लेते हैं। अपने साक्षात्कार में रमन्ना कहता है कि “दिनेश पटेल को मारना हमारी एक बड़ी गलती थी क्योंकि उन्होंने हमारी पार्टी या आन्दोलन के खिलाफ कभी कोई काम नहीं किया था। उनका कोई जनविरोधी रिकार्ड नहीं रहा”। रमन्ना आगे कहता है कि “यह बात सही है कि उन्होंने दस साल पहले गृहमंत्री रहते हुए हमारे आंदोलन का दमन करने में सक्रिय भूमिका निभाई थी। लेकिन चूंकि पिछले दस सालों से प्रदेश में कांग्रेस सत्ता से दूर है और व्यक्तिगत रूप से नंदकुमार पटेल हमारे आन्दोलन के खिलाफ प्रत्यक्ष रूप से आगे नहीं आ रहे थे, इसलिए उन्हें नहीं मारना चाहिए था”। अब झीरम घाटी की घटना के तुरंत बाद आया गुडसाउसेंडी का बयान देखिये जहाँ वह कहता है कि “राज्य के पूर्व गृहमंत्री और छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल जनता पर ‘दमनचक्र चलाने में आगे रहे थे यही कारण है कि उन्हे मारा गया। यानी कि रमन्ना का साक्षात्कार वस्तुत: एक ‘यू टर्न’ है। नंद कुमार पटेल से अधिक उनके बेटे को मारने के लिये माओवादियों पर उंगली उठाई गयी है। एसा क्यों है कि श्री पटेल के बेटे को मारे जाने की घटना और उसके कारणों को चतुराई के साथ इस साक्षात्कार में गोल कर दिया गया है? क्या यह एक नयी साजिश या नये राजनीतिक-लाल गठबंधन की ओर इशारा है? एक प्रश्न और पूछा जाना चाहिये कि यदि पटेल दस सालों ने नक्सलवाद का विरोध नहीं कर रहे थे तो क्या विपक्ष में उनकी भूमिका नक्सल समर्थक की थी? एक और बात कि रमन्ना ने अपने बयान में कहीं भी विद्याचरण शुक्ल को मारे जाने पर बात नहीं की है। स्मरण रहना चाहिये कि गुडसा उसेंडी नें झिरमघाटी में उन पर हलमा करने को जस्टीफाई करते हुए बयान दिया था कि “''ये भी किसी से छिपी हुई बात नहीं है कि लंबे समय तक केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहकर गृह विभाग समेत विभिन्न अहम मंत्रालय संभालने वाले वीसी शुक्ल भी जनता के दुश्मन हैं, जो साम्राज्यवादियों, दलाल पूंजीपतियों और ज़मींदारों के वफ़ादार प्रतिनिधि के रूप में शोषणकारी नीतियाँ बनाने और लागू करने में सक्रिय रहे।'' अब क्या यह सच नहीं कि वीसी शुक्ल भी पिछले दस साल से छत्तीसगढ़ या केंद्र की राजनीति में अहम भूमिका नहीं निभा रहे थे तो फिर उनके लिये माफी क्यों नहीं मांगी गयी? अब तक मांगी गयी माफियों को गहराई से समझते ही आप भी माओवादियों की तारीफ करेंगे कि जबरदस्त पॉलिटिक्स है तुम्हारी बॉस; तुमने तो खादी वालों के भी कान काट दिये।
माओवाद को क्यों आन्दोलन कहा जाये अगर उसके कैडर का बरताबव हमारी पुलिस से जरा भी भिन्न नहीं? बात बात पर लाठी-गोली ही चलाना है और बाद में मुह छिपाते भी घूमना है कि “हमसे भूल हो गई, हमका माफी दई दो” तो फिर यह कथित जनता का संघर्ष एक बडे गुब्बारे जैसा नहीं जिसमें अब तक पिन नहीं मारी गयी है? सच बात तो यह है कि रमन्ना ने अपने साक्षात्कार में जो बाते कहीं है वह चुनाव में माओवादियों की अदृश्य भागीदारी वाला ही पक्ष है; बस यह साफ नहीं किया गया है कि उनका वरदहस्त किनकी पीठ पर है। सलवाजुडुम का कभी भी स्थानीय पत्रकारों ने समर्थन नहीं किया यही कारण है कि महेन्द्र कर्मा की हत्या पर माओवादियों से भी अधिक सवाल नहीं पूछे गये। इसी बात को रमन्ना के सुप्रीमकोर्ट वाले बयान की ढाल से भी जोडना चाहता हूँ। अगर रमन्ना मानते हैं कि सलवाजुडुम पर सुप्रीमकोर्ट नें प्रतिबन्ध लगा दिया इस लिये यह गलत था, तो मान्यवर आप तो एक प्रतिबन्धित संगठन ही हो; आप अपने संगठन के अस्तित्व को और इसकी विचारधारा को कैसे जस्टीफाई कर पाते हो? कथनाशय है कि जिन कारणों से सलवाजुडुम गलत था बिलकुल उन्हीं कारणों के लिये माओवादी संगठनों को भी गलत ठहराया जाता है। रमन्ना का यह साक्षात्कार कच्चा प्रतीत होता है जिसमे अपनी चमडी बचाने की कवायद अधिक दिखाई देती है। हास्यास्पद यह कि अगर रमन्ना जोर दे कर यह बताना चाहते हैं कि जैसे वोट देना लोकतांत्रिक अधिकार है वैसे वोट न देना भी, तो उन्हें यह संज्ञान में रखा चाहिये कि धीरे धीरे परिपक्व होते लोकतंत्र ने बिना आपके हस्तक्षेप के ही ईवीएम मशीन पर किसी को भी न चुनने का अधिकार दे दिया है। रमन्ना का यह साक्षात्कार केवल ‘हमारे खिलाफ सेना हटाओ’, ‘हमारा सर्च बंद करो’, ‘हमारे खिलाफ कानूनी प्रक्रियायें बंद करो पर ही केन्द्रित है’। सरकार का विरोध भी उसने इतनी कच्ची बुनियाद पर किया है कि टिकता नहीं।
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