Wednesday, October 30, 2013

गोदना कला में बस्तर की जनजातियों का परिचय छिपा है


बस्तर की स्त्रियाँ अपने श्रंग्रार में कलात्मकता को समुचित स्थान देती रही हैं वह चाहे उनके केशविन्यास का अनूठापन हो, बालों में खोंसी जा रही पड़िया पर उकेरी गयी रचनात्मकता हो अथवा उसके शरीर पर अंकित किये जाने वाले गोदने हों। आज गोदना विश्वप्रसिद्ध है, आधुनिक समाज में इसे टैटू का नाम मिला हुआ है। आधुनिकता समाविष्ठ होने के साथ ही गोदना चर्चित और प्रचारित तो हुआ किंतु उसकी कलात्मकता का बुनियादी आयाम अब खो गया है। गोदना कला का केनवास नारी का अपना शरीर होता है, उसमें अंकित होने वाले चित्र उसकी मनोभावना का परिचायक भी होते हैं और आजीवन उसके व्यक्तित्व के साथ जुड जाते हैं। एक मनमोहक आदिवासी गीत का अनुवाद है जहाँ गोदना करवा रही स्त्री अपनी पीड़ा को छिपाने के लिये गा रही है कि ओ रास्ते चलने वाले मेरे प्रेमी/ क्या तुझे मेरा गुदना दिखाई नहीं देता?/ देखो गुदने की पीड़ा से मेरी आँखें सलोनी हो गयी हैं/ क्या अब भी तुझे मेरा रूप नहीं भाता/ हे माँ हमारी प्रार्थना सुन लो/ तुमने वचन दिया था/ हे माँ पीडा हो रही है/ सूई की जलन मिटा दो.....। यह गीत गोदना प्रक्रिया में जो पीड़ा है वह तो प्रदर्शित करता ही है साथ ही साथ उस नवयुवती के मनोभावों को बताता है जो शरीर पर आजीवन रहने वाले श्रंगार को अंकित को अंकित करती हुई अपने प्रेमी को लुभाना भी चाहती है। बस्तर में घोटुल की मुटियारी का मुख्य आभूषण ही गुदना है। यहाँ लोक-मान्यता है कि गुदने के बिना जीवन का सौन्दर्य अधूरा रह जाता है। जो युवती लम्बे समय तक गुदना नहीं करवाती उसे समाज में बडी-बूढी महिलाओं के बीच लज्जित होना पडता है। किसी कारणवश शादी होने तक गोदना न हुआ हो तो लड़की के माता-पिता को इसका प्रायश्चित करना पड़ता है तथा इन्हें सगा खिलाने का दण्ड भुगतना होता है। गुदना स्थाई आभूषण माना जाता है और कहते हैं कि यह मृत्योपरांत भी शरीर पर रहता है; गुदना वस्तुत: आत्मा का आभूषण है तथा परमात्मा तक साथ ही जायेगा। अलौकिक मान्यता से इस लोक के मोहक सम्बन्धों पर यदि हम लौटें तो माना जाता है कि गुदवाने से प्रेमी युवक की दृष्टि हमेशा अपनी प्रेमिका पर रहती है। पीड़ा के पश्चात होने वाली आनंदानुभूति और प्रिय के प्रेम का अहसास गोदना करवा रही नवयुवतियों को होता है जिसकी अभिव्यक्ति करता एक गीत देखें कि इली ओझिल गोदलि बांहां/ इज्जत गेली मरजद गेली/घांडी दे महां रे; जिसका अर्थ है कि ओ गोदना करने वाली तू मेरी बाँह में मेरे प्रेमी का नाम लिख दे/ इससे सखियाँ और सगे-सम्बन्धी मेरी हँसी जरूर उडायेंगे/ लेकिन मेरे प्रिय मुझसे कभी भी छूट नहीं पायेंगे। नवयुवतियाँ सुन्दर और कलात्मक आकृतियाँ शरीर पर गुदवाना पसंद करती हैं चाहे इसके लिये शरीर को कितनी ही पीडा से गुजरना पडे। यह गीत देखें जिसमे मोटियारी गुदना हो जाने के पश्चात हो रहे दर्द से परेशान है और अंतत: देवी से प्रार्थना करती है कि पीडा समाप्त करो – अरजी बिनती हमार/उई दिनो बचन तुम्हार/सुजी का झारा उतार देउ/ उ, ऊ, इ, ई, मां!!!!उतार। 

गोदना को कला इसलिये कह रहा हूँ चूंकि आदिवासी जीवन की अपनी मौलिकता और कल्पनाशीलता इसमे झांकती है। बस्तर में तीस से अधिक जनजातियाँ अवस्थित हैं; गोदना हर किसी की परम्परा का हिस्सा है और उनकी एकता का साथी भी; साथ ही साथ उन्हें एक दूसरे से भिन्न पहचान प्रदान करने में भी यही गोदने सहायक होते हैं। दक्षिण बस्तर में बिन्दियाँ और आडी रेखायें मुख्य रूप से गोदना की आकृतियाँ बनती हैं। उदाहरण के लिये मस्तक के मध्य भाग में टीका, टीके के दोनो ओर सात सात खड़ी रेखायें; नाक पर भी खडी रेखायें तथा तीन तीन चार चार बिन्दियाँ। बाहों में, कलाईयों पर तथा हथेलियों के उपरी भाग पर भी बिन्दियों से श्रंगार। मुरिया लडकियों के माथे, ठोडी, बाहों और पैरों की पिंदलियों को गोदा जाता है। आम तौर चतुर्भुज, त्रिभुज, विषमकोण सम चतुर्भुज आकार में इनके शरीर पर गोदना किया जाता है। उत्तर बस्तर में छत्तीसगढी संस्कृति का प्रभाव भी गुदने में देखा जाता है जिस कारण माछी (मक्खी), बिच्छी, पौअँडी (पायल), खाडू (पग वलय) बाहाँ-चेघा (बाँहटा) और सिइता (हँसुली) आदि नामो के गोदने कांकेर और निकटवर्ती क्षेत्रों में प्रचलित हैं। आमतौर पर सभी क्षेत्रों में गुदने में अंकित की जाने वाई प्रमुख आकृतियाँ हैं - मोर, सांकल, पटली, बिछिया, मस्सी, पौधा, सर्प, फूल, पत्तियाँ, लाल चींटे, मछली, कण्ठहार, हाथी, कुम्हडा, सींकरी, चरूगा, भौंरा, चाउर आदि। मुख्य रूप से गोदने किसी लडकी के कपाल, छाती, बाहें, कलाई, हथेली का पृष्ठ भाग, घुटनों के उपर, गुप्तांगों पर, पैरों की उंग्लियों, पिंडलियों, हाथ, पैर, स्तन आदि पर अंकित किये जाते हैं।  

यदि हम बस्तर में गोदना कला की उत्पत्ति की बात करें तो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता। केवल यही मान सकते हैं कि आग, राख, रंग, चुभन और चित्रांकन के अंतर्सम्बन्ध को आदिमनुष्य से समझा होगा और उसने अपनी कपनाशीलता का केनवास अपने ही शरीर को बना लिया। यदि अतीत के संदर्भ तलाशें तो सबसे पुराने दो कथा संदर्भ वेरियर एल्विन द्वारा उपलब्ध कराये गये हैं। दोनो की कहानिया कहती हैं कि ओझा औरते ही लम्बे समय से बस्तर में गोदना का कार्य सम्पन्न करती आ रही हैं। इन औरतों को गुदनारी भी कहा जाता है। ओझा औरतों और गोदना के अंतर्सम्बन्ध की पहली कहानी नारायणपुर से जुडती है जहाँ यह माना जाता है कि पहले आदिवासी समाज जातियों में नहीं बटा था। महापूरब विभिन्न जातियों को उपहार दे कर उन्हें बांटने का निर्णय लिया उदाहरण के लिये जिस व्यक्ति को जाल दिया गया वह मछुआरा बन गया, जिसे हल दिया गया वह गोंड बन गया। महापूरब ने देखा कि सब वस्तुओं का वितरण हो गया किंतु एक ढोल अब भी बचा हुआ है। बहुत से लोग उन्हें सड़क पर आते जाते दिखाई दिये। महापूरब ने ढोल उन्हीं में से एक व्यक्ति गले में लटका दिया और उसे ओझा नाम दिया। ओझा गाँव गाँव घूम कर भीख माँगता और कहानियाँ सुनाता हुआ अपना जीवन यापन करने लगा। एक शाम वह घर लौटा तो देखा खाना तैयार नहीं है। इसपर वह अपनी पत्नी पर बहुत नाराज हुआ। पत्नी भी बिफर गयी कि मैं तालाब से पानी लाती हूँ, जंगल से लकडी लाती हूँ, घर की सफाई करती हूँ, खाना बनाती हूँ और कितने काम की मुझसे उम्मीद रखते हो? गुस्से में ओझा की पत्नी ने निर्णय लिया कि अब वह खुद कमा कर खायेगी। आठ दिन तक उसने कुछ नहीं खाया। इस पर बूढी माताल का कालीन हिलने लगा; प्रसन्न हो कर बूढी माताल ने उस स्त्री से बात की और कहा कि मैं तुझे विशेष कार्य दूंगी किंतु इसके लिये तुझे मेरी पूजा करनी होगी। वह ओझा स्त्री को ले कर जंगल के एक सराई के पेड़ के पास पहुँची। उसने पेड़ से कुछ गोंद निकाल कर एक मिट्टी के टुकडे पर रखा। फिर गोंद के उपर आग में पकी मिट्टी का दूसरा टुकडा रखा। फिर उन्होंने दोनो टुकडों को गोबर से लीप कर आग में रख दिया। कुछ देर बाद ढक्कन खोला गया तो गोंद की जगह काला पदार्थ था। एक मिट्टी के टुकड़े से इसे खुरच कर बूढी माताल नें इस पदार्थ को टूटे हुए नारियल के टुकडे में रखा। तत्पश्चात पानी डाल कर इसे कुछ देर चलाया गया। अब उन्होंने तीन सूईयाँ एक बांस की गाँठ में बाँधी और ओझा स्त्री को लिटा दिया। पहला गोदना इस तरह बूढी माताल ने उस ओझा स्त्री के उपर किया। गोदना करने के पश्चात उन जगहों पर गोबर से लीप कर तेल और हल्दी लगा दी गयी। अब मताल ने कहा कि तुम आज से इसी तरह गोदाई का काम करोगी; गोदना करने के पश्चात उस स्थान को गोबर से लीप कर उस पर हल्दी का तेल छिडक कर, उस पर मेरे नाम से चावल बिखेर दोगी। कुछ सूईयाँ, हल्दी और दाल के दाने तुम हाथ में लेना और बायें हाथ से गोदी गयी स्त्री की उंगलियाँ पकड़ कर अपनी दाईं मुठ्ठी को तीन बार उसके शरीर के चारो ओर घुमाना। इसके बाद हल्दी और दाल उसकी साड़ी में रख देना और उसका हाथ छोड देना। इस उपाय से गोदने के निशानो पर जलन कम हो जायेगी। 

नारायणपुर से कोण्डागाँव आते आते यही कहानी अपने स्वरूप में बदल जाती है। यहाँ मान्यता है कि बाड़ादेव टाल्लुरमुताई और काडतेंगल के पुत्र थे। उनके छ: भाई और सात बहने थी। एक दिन सातों बहने टाल्लुरमुताई के पास गयीं और उनसे वो गहने मांगे जो मृत्यु के उपरांत भी बने रहें; यहीं से गोदना की उत्पत्ति हुई। बाडादेव को दो पुत्र हुए; एक का नाम था मुरहा और एक का ओझा। मुरहा खेत जोतने वाले बने जब कि ओझा शिकार करने और घरों की दीवार रंगने वाले बने। टाल्लुरमुताई की बेटियों से ओझा की पत्नी को भी गोदना करना आ गया। साल में एक बार ओझा बाडादेव पर बकरी चढाते हैं यह कहते हुए कि देखिये हम गुदाई करते हुए पूरे विश्व में भ्रमण करते हैं जो निशान हम बनायें उसमे कोई घाव न हो, कोई पस न पड़े, न ही कोई सूजन आये, कार्य करते हुए हम पर किसी तरह का काला जादू असर न करे। कार्य शुरु करने से पहले ओझा स्त्री बाडादेव की सात बहनों का नाम लेती है। अंत में चावल, हल्दी, तेल, मिर्च और नमक आदि के रूप में प्राप्त भेंट व मेहनताने को वह लडकी के चारो ओर घुमाती है। इसका कुछ भाग वह सात बहनों को भेंट करती है जिससे कि गोदे गये निशान जल्दी ठंडे पडते हैं और जलन नहीं करते। टाल्लुरमुताई द्वारा सिखाई गयी गोदने की विधि भी लगभग वैसी ही है जैसी कि बूढी माताल ने पहली ओझा स्त्री को सिखाई थी। आज भी गोदना करने का कार्य बस्तर में ओझा स्त्रियाँ; गाँव की सियान स्त्रियाँ; कंजर, बंजारा, बादी और देवार जातियों की स्त्रियाँ ही निबटाती हैं। रुक्ष सी सुई पीतल के तार से बना ली जाती है। गोदने की सूई को पहले विसंक्रमित करने के लिये गोबर से धोया और उबाला जाता है। तत्पश्चात सेमीरंग और कोयले के रंग का उपयोग करते हुए गोदने वाली तीन या पाँच सूईयाँ एक साथ चलती हैं। हलबी-भतरी और छत्तीसगढी बोली में प्रथम बार सूई चालन को मूँडी, दूसरी बार को दुसडा और तीसरी बार को छडिया कहा जाता है।  

आज आदिवासी समाज में गोदना के प्रति पहले जैसी ललक नहीं देखी जा रही है। यद्यपि गोदना की तकनीक और इस्तेमाल किये जाने वाले रंगों में अनेक तरह के बदलाव होने लगे हैं। छत्तीसगढ के ही जशपुर क्षेत्रों में महिलाओं ने गोदना कला को केनवास और कपडों पर उतार कर अपनी कल्पनाशीलता और डिजाईनों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान भी दिलाई है;  दुर्भाग्य से बस्तर में अभी एसा नहीं हो सका है। गोदना आदिवासी संस्कारों की ही नहीं उनकी कला की भी थाती है और इसका संरक्षण दायित्व भी है। अभिनेत्रियों के टैटुओं पर शोर मचाने वाले संचार साधनों ने कभी इन कलाओं के सौन्दर्य शास्त्र को अपने कैमरे और विषयवस्तु के केन्द्र में रखा होता तो सभव था कि इनकी स्थिति विलुप्ति की ओर जाती न दीख पडती। 

 - राजीव रंजन प्रसाद

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