नये दौर की तिलिस्मी कहानियाँ अब प्रस्तुत हैं। एक बाबा सपना देखता है और इसके साथ ही सक्रिय राजनीतिक हस्तक्षेप होने लगते हैं। वैज्ञानिक, इतिहासकार और सरकारी मशीनरी एक सपने के सच की खोज में जुट जाती है। बाबा बैठे बिठाये ग्लोबल हो गये हैं। चुनावी मौसम है इसलिये उन पर कदाचित सीधे हमले नहीं किये जा सकेंगे इसलिये वे ठसक में भी हैं और अपनी महत्वाकांक्षा की आड में आने वाले लोगों से निबट भी लेना चाहते हैं। वे अपनी आलोचना का जवाब विशुद्ध राजनैतिक चिठ्ठी से देते हैं जिसपर देश का मीडिया गरमागरम बहस भी करता है। यही नहीं इस पर भी चर्चा होने लगती है कि इस कथित सोने पर हक किसका होगा – राज्य का कि केन्द्र का? सपना देखने वाले बाबा किसी प्रखर समाजसेवी की तरह बयान देते हैं कि इस सोने से इलाके का विकास होना चाहिये। बडे वालों की तो छोडिये डोंडिया खेडा के प्रधान साहब तो बल्लियों उछलते हुए मांग करते हैं कि हमारे इलाके में हवाई पट्टी बननी चाहिये आखिर हमारी जमीन से सोना निकल रहा है। ‘घर में नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने’ को चरितार्थ करते हुए अर्थव्यवस्था पर बात करने वाले चैनल इस सोने की कीमत का आंकलन करने लगे हैं और इससे यह गणना तक कर ली गयी कि प्रतिव्यक्ति कर्जे से हर हिन्दुस्तानी को कितनी राहत मिल सकती है, डॉलर के मुकाबले रुपये की क्या स्थिति हो सकती है।
यह तमाशा देख कर सवाल उठता है कि क्या सचमुच हम एक परिपक्व लोकतंत्र होने की दिशा में बढ रहे हैं? क्या इस प्रकरण में हम धर्म और राजनीति का विज्ञान की सीमेंट से गठजोड नहीं कर रहे? प्रकरण यह भी बता रहा है कि अपने इतिहास को ले कर हम कितने संजीदा हैं तथा उसे जानने की हमारी उत्कंठा कितनी है? महज बीस वर्ग किलोमीटर के दायरेवाली डौड़ियाखेड़ा रियासत में हजार टन सोना मिलने की आशा चमत्कार ही प्रतीत होती है। हाँ इस बहाने भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के एक गुमनाम नायक पर चर्चा होने लगी इसे उपलब्धि कहा जाना चाहिये; राजा रामराव बक्श जिनके किले में यह खुदाई चल रही है उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत में सम्मिलित होने के अपराध में 28 दिसंबर 1859 को बक्सर के पास फांसी दे दी गयी थी। बहरहाल आनंद उठाईये इस तिलिस्म कथा का जहाँ बाबा शोभन सरकार के एक चेले ओम बाबा कहते हैं ‘बस इतना बता दीजिये कि देश के आर्थिक हालात सुधारने के लिए कितना सोना चाहिए; बाबा शोभन सरकार उतना सोना पैदा कर देंगे’। इस प्रकरण को धार्मिक चश्मा चढा कर देख रेहे लोगों को भी बताना चाहूंगा कि एसे ही कारणों से आस्था और विश्वास जैसे शब्द मायना हीन हुए हैं तथा धर्म की परिभाषाओं को हास्यास्पद विवेचनाओं से गुजरना पड़ा है।
इस विमर्श को आगे बढाने से पूर्व बाबा बिहारीदास पर बात करते हैं जिनका सत्तर के दशक में बस्तर के क्षेत्रों में बोलबाला था। बस्तर रियासतकाल के अंतिम महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की 1966 में हुई हत्या के बाद आदिवासी नेतृत्व और प्रतिनिधित्व पूरी तरह से समाप्त हो गया। वर्ष -1971 में बाबा बिहारीदास प्रकट हुए। उनके प्रवीर होने के उसके दावे की पुष्टि खुसरू और बाली नाम के दो भतरा कार्यकर्ताओं ने की जो पहले भी प्रवीर के साथ काम कर चुके थे। बाबा के काले रंग के लिये यह तर्क दिया गया कि गोलियों की बौछार सहने के कारण प्रवीर का रंग काला पड़ गया है। उनके अनुयाईयों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। बाबा को कंठी वाले बाबा या गुरु महाराज कह कर संबोधित किया जाता था। बाबा ने अपने अनुयाईयों को सलाह दी कि वे माँस खाना और शराब पीना छोड़ दें तथा तुलसी की माला जिसे कंठी कहा गया धारण करें। यह कहा गया कि महाराजा प्रवीर का आदेश है कि सभी ग्रामवासियों को कंठी बाँधनी होगी। जो कंठी नहीं बाँधेगा उसकी जायदाद छीन ली जायेगी, वह मर जायेगा, उसको राक्षस खायेंगे। बिहारीदास के इस धर्मप्रचार और तथाकथित सुधारवादी आन्दोलन को अप्रत्याशित लोकप्रियता मिली। हरे राम हरे कृष्ण और रघुपति राघव राजा राम आदि भी लोक गीतों में शामिल होने लगे। इस आन्दोलन को वाद, पंथ और अंजाम से तौले बिना अगर देखा जाये तो इसकी स्वीकार्यता का पैमाना बहुत विशाल था, लगभग सम्पूर्ण बस्तर। बाबा बिहारी ने प्रवीर के नाम को आन्दोलन बनाया। उसने प्रवीर के बाद की उस शून्यता का इस्तेमाल किया जिसमे आदिवासी स्वयं को नेतृत्वविहीन तथा असहाय समझ रहे थे। ब्रम्हदेव शर्मा जो उन दिनों कलेक्टर थे इस धार्मिक आन्दोलन को तोडने के लिये मुखर दिखे। बाबा बिहारीदास को समानान्तर सरकार न बनने देने के लिये जिला बदर का आदेश दिया गया। ठीक दशहरे से पहले ब्रम्हदेव शर्मा ने बाबा बिहारीदास को बस्तर से बाहर कर दिया था। बाबा ने अपनी लोकप्रियता भुनाई। कहते हैं कि राजनीतिक दखल पर वे वापस लौटे और इसके बाद ब्रम्हदेव शर्मा का स्थानांतरण कर दिया गया। वर्ष-1975 में उसे मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया। वर्ष-1981 में एक आदिवासी लड़की से बलात्कार के जुर्म में वह गिरफ्तार हुआ। इसके बाद बाबा बिहारीदास का पतन हो गया।
शोभन सरकार और बाबा बिहारी दास की कहानी में एक प्रकार की साम्यता है। दोनो ने ही इतिहास की उस टूटन को अपनी प्रसिद्धि का हथियार बनाया जहाँ सत्य दफन किये जाते हैं और मिथक पैदा होते हैं। ध्यान से देखा जाये तो राजनीति शोभन सरकार से भी सोना ही खीच रही है, अब संचार माध्यम मंहगाई पर चुप हैं, रुपये के अवमूल्यन पर खामोश हैं, घोटाले और भ्रष्टाचार पर कोई वाद-विवाद नहीं हो रहे। बाबा शोभन सरकार ने वह ढाल दी है जो राजनीति के हिस्से सोना ही उगलेगी भले ही आपको दिखे अथवा नहीं। इसे समझने के लिये आप बाबा बिहारी दास के प्रभाव का मूल्यांकन कर सकते हैं। वर्ष 1972 में विधानसभा चुनाव हुए; बाबा ने कॉग्रेस के पक्ष में प्रचार किया। बिहारीदास ने चित्रकोट, बकावंड, कोंड़ागाँव, दंतेवाड़ा, केशकाल, नारायनपुर और जगदलपुर विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार किया। इन सभी सीटों पर कॉग्रेस वर्ष-1967 का चुनाव हार गयी थी; अप्रत्याशित रूप से इस बार सभी सीटों पर कॉग्रेस की जीत हुई। मेरा इशारा किसी राजनीतिक दल विशेष की ओर नहीं अपितु मंतव्य समग्र राजनीति से है। हाँ यह दु:ख जरूर व्यक्त कर सकता हूँ कि काश बिहारीदास भी सपना देखा करते। काश बाबा ने सपना देखा होता कि दक्षिण बस्तर के बारसूर में सोना गडा है या कि केशकाल घाटी के गोबरहीन में नलों की सम्पदा छुपी हुई है तो शायद इन क्षेत्रों की किस्मत बदल जाती। यहाँ से सोना निकलता अथवा नहीं लेकिन उस स्वर्णिम अतीत का सच जरूर बाहर निकल आता जिसकी निरंतर उपेक्षा की जा रही है। इतिहास खोजने वाले अगर सोना खोदने मे व्यस्त रहेंगे तो बस्तर जैसे क्षेत्र के अतीत पर अंधेरा गहरा ही होता रहेगा।
-राजीव रंजन प्रसाद
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