Tuesday, October 01, 2013

बस्तर की पहचान है उसकी काष्ठ कला


महापाषाण कालीन संस्कृति की भव्यतम झांकी दक्षिण बस्तर में देखने को मिलती है। मृतकों अथवा उनके अवशेषों को बड़े बड़े पत्थर खड़ा कर दफनाये जाने की प्रथा के उदाहरण पुरा-अतीत से ले कर वर्तमान तक के उदाहरणों के साथ अनेक स्थानों पर देखे जा सकते हैं। इन्ही मृतक स्तम्भों के बीच अनेक स्थानो पर काष्ठ के विशाल स्तम्भ भी नजर आये जिनकी न केवल कलात्मकता ही दर्शनीय थी अपितु कुछ तो हजारो साल पुराने स्मृति अवशेष हैं। बस्तर जहाँ जन्म से ले कर मृत्यु तक हर परम्परा में किसी न किसी तरह उनकी कलाधर्मिता झांकती रही है वहाँ स्वाभाविक था कि मृतक स्तंभों में भी कल्पनाशीलता का प्रादुर्भाव होता। इसका कारण है कि काष्ठ बहुत आसानी से शिल्पकार की कल्पना को आकार देने में सक्षम होता है। प्राचीन समय से ही कलात्मकताओं ने मनुष्य़ को आकर्षित किया है। साल वनो के द्वीप मे एसे काष्ठ की सहज उपलब्धता थी जो न केवल शिल्प निर्माण की दृष्टि से श्रेष्ठ है अपितु वह न तो जल्दी खराब होता है न ही अपनी आभा खोता है। आदिवासी समाज को कई स्थानो पर काष्ठ उस पाषाण का विकल्प प्रतीत हुआ होगा जिस पर आसानी से कलात्मकता का प्रदर्शन संभव नहीं था। समय के साथ बदलते मृतक स्तंभों में भी कई स्थानो पर मुझे पाषाण और काष्ठ की युति देखने को मिली जहाँ किसी अवसादी चट्टान (विशेष तौर पर चूना पत्थर की फर्सी) को मुख्य आधार बनाया गया है किंतु उसके शीर्ष पर काष्ठ के पशु-पक्षी अंकित किये गये हैं अथवा एक सम्पूर्ण कलाकृति निर्मित कर रखी गयी है। 

मनुष्य का विकास भी पत्थरों और लकडी के साथ साथ हुआ है। पत्थर से जलाने, काटने और धारदार हथियार बनाने की विधि में मिली दक्षता के बाद उसके यही आविष्कार लकडी के साथ मिल कर अधिक शक्तिशाली और प्रभावी बने। उदाहरण के लिये धारधार पत्थर और लकडी की युति ने ही आरंभिक कुल्हाडी का स्वरूप प्राप्त किया था। आविष्कारों के साथ ही आदि-मनुष्य लकडी से हल, कुदाल, बैलगाडी के पहिये आदि वस्तुएं निर्मित करने लगा। मनुष्य के आरंभिक औजारों से प्रारंभ हो कर लकडी ने उसकी अभिव्यक्ति में स्थान पाने तक सभ्यताओं का एक लम्बा सफर तय किया है और आज एक परिपक्व कला बन कर बस्तर के आदिवासी समाज की पहचान में शामिल है। दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये लकडी की अनेक वस्तुएं निर्मित की गयीं। इन्हीं निर्मितियों को सजाने के दृष्टिकोण से इसे बनाने वाले कलाकार अपनी कल्पनाशीलता को जोड देते थे जिससे कि उपयोग की वस्तुओ मे कलात्मकता ने अपने पैर पसारे। शनै: शनै: तराशे हुए स्वरूप में नागर, खोटला, टेंडा, मचान, पीढा, माची, घाना, नाव, पतवार, मयाल, कलात्मक खम्बे, फाटक, चौखट, खिडकिया आदि आदि निर्मित होने लगे। इन निर्माणों में बहुत खूबसूरती से काष्ठ शिल्पकारों ने भांति भांति के बेलबूटे तथा फूलपत्तियाँ तराशीं।

लकड़ी बस्तर के आदिवासी समाज में प्रेम की अभिव्यक्ति के लिये उसी तरह सहायक बनी जैसे कि आज हम गुलाब के फूल का सहारा लेते हैं। कई तरह की सुन्दर कंघियाँ बनायी जाने लगीं चूंकि इनके माध्यम से ही प्रेमी चेलक अपनी प्रेमिका मोटियारियों से प्रेम का इजहार करते थे। इन काष्ठ निर्मित कंघियों को पडिया कहा जाता है। किसी घोटुल में मोटियारियाँ श्रंगार करती हुई अपने बालों में मांग निकाल कर सजती रही हैं और अपने खोंपों में भांति भांति की पड़िया खोसती रही हैं। अपने खोंपे अथवा जूडे बनाने के लिये भी मोटियारियाँ लकडी के नक्काशीदार चौकोर टुकडों का प्रयोग करती रही हैं। इन काष्ठ टुकडों को बीच में रख कर उनके चारो ओर बालों को लपेट कर एक सुन्दर जूडा तैयार होता है। बालों को स्थिर रखने के लिये मोटियारियाँ जिन पिनों का प्रयोग करती हैं वे आम तौर पर तिकोनी होती हैं और उनपर बहुत बारीक काष्ठ शिल्प का कार्य किया जाता है। स्वाभाविक भी था कि हर चेलक अपनी मोटियारी के लिये सुन्दर से सुन्दर पडिया बनवाने के यत्न में रहता था। काष्ठ पड़ियों की परिधि को बारीक नक्काशी से सजाये जाने की प्रथा रही है। कुछ पडिया मैने एसी भी देखी है जिनके शीर्ष पर अलग से आकृतियाँ जैसे चिडिया आदि उकेरी हुई प्राप्त होती है। मोटियारियाँ एकाधिक पडिया अपने बालों में खोसा करती थीं और इसका सांकेतिक अर्थ था कि उसके पास उसे बहुत प्यार करने वाला प्रेमी है। आज घोटुल लगभग समाप्त हो गये हैं तथा जहाँ हैं वहाँ भी ये औपचारिकता भर रह गये हैं। एसे में कलात्मक पडिया अब आसानी से देखने को नहीं मिलती। इस सम्बन्ध में घोटुल के बीच में गडने वाले खम्बे मे अंकित देवी देवताओं की आकृति भी समान उल्लेखनीय है। घोटुल के दरवाजों और उनकी चौखटों पर भी बारीक नक्काशी करने का चलन रहा है। 

आज भी आदिवासी तम्बाखू रखने के लिये विभिन्न प्रकार की चुनैटी बनाते हैं। इन चुनौटियों पर काष्ठ कला के कई प्रयोग देखे जा सकते हैं। प्राय: ये चुनौटियाँ शंखाकार होती हैं किंतु अन्य भी आकार प्रकार बनाये जाते रहे हैं। प्रयोग तथा रखने के स्थान के अनुरूप इन चुनैटियों में वैसी सुविधायें भी होती हैं उदाहरण के लिये यदि पगडी में फसाने योग्य चुनैटा बनाना है तो उसकी आकृति के नीचे पिन नुमा संरचना भी बना दी जाती है जिससे उसे खोंसने में सुविधा हो। वेरियर एल्विन ने अपनी पुस्तक “मुरिया और उनका घोटुल” में उन दिनो प्रचलित कुछ चुनैटिया बतायी हैं (भाग-2, पृ-165) जिन्हें उन्होंने गोटा कह कर उल्लेखित किया है; इनमे प्रमुख हैं हुदौंद गोटा (मोटियारी के स्तनो की भांति गोल), चक्का गोटा (पहिये के आकार का), मारका बट्टा गोटा (आम की आकृति का), कलारी गोटा (मछली की हड्डियों जैसी आकृति), तुमुर गोटा (आबनूस के फूलों के समान) आदि आदि। 

आदिवासियों की काष्ठ कला ने इतिहास के साथ कदम मिलाये और आज उसकी एक झांकी बस्तर के दशहरे के अवसर पर तथा गोंचा पर्व पर निकलने वाली रथ यात्राओं में देखी जा सकती है। बस्तर के दशहरे के लिए बनाए जाने वाले रथ में आदिवासियों की काष्ठ कला का अद्भुत प्रदर्शन होता है। रथ के आगे तथा पीछे रखे जाने वाले काष्ठ निर्मित दो दो घुडसवार पुतले आज भी रथ की सज्जा का प्रमुख हिस्सा होते हैं। आदिवासी देवी देवताओं का काष्ठ स्वरूप में निर्माण भी प्राचीन समय से ही होता आ रहा है। बस्तर के सम्पूर्ण क्षेत्र में आंगादेव, पाटदेव, भीमादेव आदि प्रमुखता से काष्ठ निर्मित ही होते हैं। आदिवासी काष्ठकला का एक अन्य महत्वपूर्ण स्वरूप है मुखौटे। भाति भातिं के स्वरूप वाले मुखौटे काष्ठ शिल्प के माध्यम से बनाये जाते हैं तथा कुछ तो इनमे बेहद डरावने भी होते हैं। इन मुखौटों का प्रदशन आज भी दंतेवाड़ा की फागुन मडई में दर्शनीय होता है। 

लोकजीवन का अभिन्न हिस्सा है बस्तर की काष्ठ शिल्प कला जिसका कि अब व्यावसायीकरण भी हो गया है। अनेक संस्थायें आगे आयी हैं जिन्होंने इस आदिवासी कला के न केवल संरक्षण के लिये कार्य किया है अपितु बस्तर के काष्ठ शिल्प को समुचित बाजार भी मिल रहा है। दंतेवाड़ा, जगदलपुर, कोण्डागाँव जैसे नगरों में आपको एसी अनेक दुकाने मिल जायेंगी जहाँ काष्ठ शिल्प कलाकारों द्वारा बनायी गयी कई कलाकृतियाँ आपको देखने तथा खरीदने के लिये उपलब्ध मिलेंगीं। बदले समय की मांग के अनुसार इन दिनो काष्ठ शिल्प में गणेश प्रतिमा, महापुरुषों की प्रतिमायें, महाभारत में कृष्ण का अर्जुन को गीताउपदेश प्रदर्शित करती प्रतिमा, बस्तर दशहरे के दृश्य, दण्डामी माडिया युगल, आदिवासी नृत्य, सलफी के पेड की आकृति आदि सहजता से उपलब्ध हो जायेगी। आदिवासी काष्ठ कला अब मध्यम और उच्च वर्ग के घरों में केवल सजावट की वस्तुओं के रूप में ही नही अपितु फर्नीचर में भी दृष्टव्य है। बस्तर में निर्मित दीवान, सोफे, दरवाजे और चौखटों आदि पर की गयी काष्ठ कला इन दिनो चलन में है। यह अलग बात है कि कलाकार और उपभोक्ता के बीच इतने बिचौलिये काम करते है कि हमेशा ही निर्माता को उसका वास्तविक मूल्य नहीं मिल पाता। आवश्यकता है कि कला को सहकारिता के साथ जोडे जाने की जिससे कि कलाकार को सही मूल्य मिल सके तथा काष्ठ कला एक कुटीर उद्योग बन कर बस्तर की पहचान बनी रहे। 

-राजीव रंजन प्रसाद
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