छत्तीसगढ राज्य के स्पष्ट भैगोलिक विभाजन क्षेत्र बस्तर की अपनी पहचान तथा राजनीतिक समझ रही है। हाल के दिनो में दिल्ली के बड़े बड़े अखबारों ने बस्तर के पिछडेपन और अबूझियत पर पन्ने काले किये हैं, एक दृश्य उभारा गया है जिसके अनुसार इस क्षेत्र की आदिवासी जनता राजनैतिक समझ नहीं रखती। अब फिर चुनाव सामने हैं और बस्तर ही छत्तीसगढ की राजनीति के केन्द्र में अवस्थित है। रायपुर में वही अपनी सरकार का दावा प्रस्तुत कर सकता है जिसने बस्तर को साध लिया। कोशिश करते हैं यह समझने की कि क्या बस्तर के आदिवासी अपने वोट की कीमत जानते हैं; अथवा दिल्ली के टेलीस्कोप की तस्वीर साफ साफ है?
बस्तर के चुनावी संघर्षो पर बात करने से पूर्व मैं वर्ष 1957 से ले कर वर्ष 2008 तक के परिणामों पर एक वहंगम दृष्टि डालना चाहूंगा। मोटे तौर पर हमें राजनीतिक परिस्थितियो को तीन भागों में विभाजित करना होगा। पहला भाग आरंभ होता है जब स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ बस्तर और कांकेर रियासतों का भारतीय संघ में विलय हुआ और वृहत बस्तर जिला अस्तित्व में आया। इस क्षेत्र की राजनीति को दोनो ही रियासतों के पूर्व शासक किसी न किसी तरह से प्रभावित करते रहे तथा 1957 से 1972 तक के चुनाव परिणामों में लोकतंत्र के शैशव काल का अस्त हो चुके राजतंत्र के साथ संघर्ष स्पष्ट देखा जा सकता है। बदलाव का समय अर्थात दूसरा भाग परिलक्षित होता है वर्ष 1977 के चुनाव परिणामों के साथ जो किसी न किसी तरह छत्तीसगढ राज्य की स्थापना तक राजनैतिक दशा दिशा को अपने नियंत्रण में बनाये रखता है। यह समझना भी आवश्यक है कि बस्तर और कांकर के राजपरिवारों का जैसे ही वर्चस्व समाप्त हुआ यह क्षेत्र नेतृत्व शून्यता के दौर से गुजरा। बस्तर की राजनीति का तीसरा भाग अर्थात छत्तीसगढ राज्य बनने के साथ साथ माओवाद और सलवाजुडुम जैसी गतिविधियों ने बस्तर की राजनीति को बुरी तरह प्रभावित किया। इसके बाद भी वाम दल पूरी तरह हाशिये पर चले गये और चुनावी नूराकुश्ती केवल दो दलों कॉग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी के बीच ही सिमट कर रह गयी। किसी न किसी तौर पर माओवादी बस्तर की सभी बारह सीटों पर अपना प्रभाव रखते हैं परंतु यह भी सत्य है कि उनकी गतिविधियों का चरमकाल वर्ष-2003 और वर्ष-2008 के विधान सभा चुनाव का दौर था जबकि इन समयों में वाल दलों की उपस्थिति बस्तर से नगण्य हो गयी।
चुनावों की तीन अलग अलग परिस्थितियो का विवेचन करते हैं। मुझे यह लिखने में कत्तई संकोच नहीं कि बस्तर की आम जनता अत्यधिक जागरूक है तथा वह राजनैतिक समझ रखती है। महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की अपनी ही सोच थी जिसमे कभी वे गहरे सामंतवादी प्रतीत होते थे तो कभी प्रखर बुद्धिजीवी। बस्तर क्षेत्र में हुए पहले चुनाव में राष्ट्रीय भावना हावी थी किंतु उम्मीदवारों के चयन में प्रवीर फैक्टर का बडा असर रहा। यह सब कुछ प्रारंभ हुआ था जब 13 जून 1953 को उनकी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत ले ली गयी। 1957 में प्रवीर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विजित हो कर विधानसभा पहुँचे; 1959 को उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। 11 फरवरी 1961 को राज्य विरोधी गतिविधियों के आरोप में प्रवीर धनपूँजी गाँव में गिरफ्तार कर लिये गये। इसके तुरंत बाद फरवरी-1961 में “प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट” के तहत प्रवीर को गिरफ्तार कर नरसिंहपुर जेल ले जाया गया। राष्ट्रपति के आज्ञापत्र के माध्यम से 12.02.1961 को प्रवीर के बस्तर के भूतपूर्व शासक होने की मान्यता समाप्त कर दी गयी। यही परिस्थिति 1961 के कुख्यात काण्ड का कारण बनी जहाँ प्रवीर की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे आदिवासियों को घेर कर लौहण्डीगुडा में गोली चलाई गयी। बस्तर की जनता ने इस बात का लोकतांत्रिक जवाब दिया। फरवरी 1962 को कांकेर तथा बीजापुर को छोड पर सम्पूर्ण बस्तर में महाराजा पार्टी के निर्दलीय प्रत्याशी विजयी रहे तथा यह तत्कालीन सरकार को प्रवीर का लोकतांत्रिक उत्तर था। इस चुनाव का एक और रोचक पक्ष है। कहते हैं कि राजनैतिक साजिश के तहत तत्कालीन जगदलपुर सीट को आरक्षित घोषित कर दिया गया जिससे कि प्रवीर बस्तर में स्वयं कहीं से भी चुनाव न लड़ सकें। उन्होंने कांकेर से पर्चा भरा और हार गये। कांकेर से वहाँ की रियासतकाल के भूतपूर्व महाराजा भानुप्रताप देव विजयी रहे थे।
बस्तर जिले की सभी सीटों पर प्रवीर की जबरदस्त पकड के कारण राजनैतिक साजिशों के लम्बे दौर चले। अंतिम परिणति हुई 1966 में महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की उनके ही महल में गोलीबारी के दौरान नृशंस हत्या। इसके अगले ही वर्ष चुनाव हुए; बस्तर की जनता ने फिर जवाब दिया। कांकेर, चित्रकोट और कोण्टा सीट को छोड कर कॉग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। अंतत: राजनैतिक पासे बाबा बिहारी दास की आड़ में खेले गये। उस दौर में स्वयं को प्रवीर का अवतार घोषित कर बाबा बिहारीदास ने जबरदस्त ख्याति पूरे बस्तर में अर्जित कर ली थी अत: वर्ष 1972 का चुनाव भी प्रवीर फैक्टर के साथ ही लडा गया। बाबा बिहारी दास ने कॉग्रेस के पक्ष में प्रचार किया। बिहारीदास ने चित्रकोट, बकावंड, कोंड़ागाँव, दंतेवाड़ा, केशकाल, नारायनपुर और जगदलपुर विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार किया। इन सभी सीटों पर कॉग्रेस वर्ष-1967 का चुनाव हार गयी थी; अप्रत्याशित रूप से इस बार सभी सीटों पर कॉग्रेस की जीत हुई। लोकतांत्रिक बस्तर के इन आरंभिक चुनावों से यह ज्ञात होता है कि दौर एक एसे नायक का था जिसे व्यापक जनसमर्थन प्राप्त था। अपने जीवनकाल तथा मृत्यु के पश्चात के दो चुनावों तक उसने बस्तर संभाग की राजनीति को अपने अनुरूप बनाये रखा। एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी यह कि वर्ष 1967 के चुनावों में जनसंघ ने भी दो सीटे जीती थी और यही परिणाम उसने 1972 के चुनावों में भी दिखाया।
तालिका – 1: बस्तर में विधान सभा चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि (वर्ष 1957 – 1972 तक)
प्रवीर के अवसान के साथ ही बस्तर नायक विहीनता के अंधकार में जाता हुआ प्रतीत होता है। यदि बस्तर की आदिवासी जनता में चुनावी समझ नहीं होती तो वर्ष 1977 के चुनाव में क्षेत्रवार भिन्न भिन्न परिणाम आने चाहिये थे। यह बस्तर में संकर काल था जो व्यक्ति आधारित राजनीति से बाहर आ कर नयी दिशायें तलाश रहा था। अब आंचलिक समस्याओं के लिये मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य की राजधानी भोपाल तक बस्तरियो का पहुँचना वैसा ही था जितना कि दिल्ली दूर थी। इसी कारण क्या बस्तर देश की राजनीति से सीधे प्रभावित हो रहा था?
आपातकाल के बाद चुनावों का दौर आया; बस्तर में भी विधानसभा के चुनाव होने थे। यह समय देश भर में इन्दिरा गाँधी के विरोध का था। यह जनता पार्टी के उत्थान का काल भी था; कई विचारधाराओं और छोटे-बड़े दलों को जोड़कर यह पार्टी बनी थी। क्या बस्तर की आदिवासी जनता ने भी राष्ट्रीय राजनीति के नायक जयप्रकाश नारायण के साथ अपनी सहभागिता दर्शाई थी? वर्ष 1977 के चुनाव तो यही कहते हैं। कोण्डागाँव को छोड कर शेष बस्तर की सभी सीटे जनता पार्टी के हिस्से में आयी थीं। राष्ट्रीय राजनीति के प्रभाव वाले इस दौर में एनएमडीसी की आमद के साथ ही दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में मजदूर राजनीति का उद्भव हुआ। जनता पार्टी से देशभर का मोह भंग हो चुका था और कॉग्रेस का नवोत्थान हो गया था। वर्ष 1980 के चुनाव परिणाम पहली बार बस्तर में खिचडी सिद्ध हुए। एक ओर नारायणपुर से जनता पार्टी का उम्मीदवार विजयी रहा तो कांकेर और कोण्टा से निर्दलीय प्रत्याशियों को विजय हासिल हुई। पांच सीटें कॉग्रेस की झोली में गयीं जबकि तीन सीट भारतीय जनता पार्टी के हिस्से में आयी। इस के साथ ही मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की टिकट से महेन्द्र कर्मा ने दंतेवाडा सीट जीत ली थी। इस जीत के पीछे बैलाडिला लौह अयस्क परियोजना में कार्यरत कम्पनी एनएमडीसी की मजदूर यूनियनों का बहुत बडा योगदान था, साथ ही साथ वर्ष 1978 में हुआ किरन्दुल गोलीकाण्ड भी इस मजदूर बाहुल्य क्षेत्र में वामपंथ की जमीन तैयार करने में मुख्य सहयोगी बना।
पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था, इन्दिरागाँधी की राजनैतिक साख आगामी चुनाव में एक बार फिर दाँव पर थी। इसी बीच वह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी जिसने पूरे देश को आक्रोशित कर दिया था; 31 अक्टूबर 1984 को इन्दिरा गाँधी की हत्या कर दी गयी। वर्ष 1985 में हुए विधानसभा चुनावों में सहानुभूति की वह लहर चली कि बस्तर क्षेत्र में जनता पार्टी ने वर्ष 1977 के चुनावों में जो करिश्मा कर दिखाया था वह कॉग्रेस ने दोहरा दिया। भानपुरी की विधानसभा सीट जो कि भारतीय जनता पार्टी ने जीती इसे छोड कर शेष सभी ग्यारह सीटों पर कॉग्रेस का कब्जा हो गया। कॉग्रेस ने बस्तर क्षेत्र में पहली बार एसा वर्चस्व कायम किया था। इन चुनावों के परिणामों से यह बात तो स्पष्ट है कि वृहद मध्यप्रदेश का भाग बस्तर क्षेत्र अपने राज्य का एसा उपेक्षित हिस्सा था जिसकी स्थानीयता ही चुनावी मुद्दा नहीं बन पाती थी। आश्चर्य की बात यह कि 1977 से ले कर 1993 तक लगभग हर चुनाव परिणाम के पीछे किसी न किसी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य की बडी घटना को देखा जा सकता है।
इसके साथ ही यह बात इनकार करने योग्य नहीं है कि इन समयो में ही आन्ध्रप्रदेश से चल कर माओवाद ने बस्तर के अबूझमाड में अपने पैर रख दिये थे। यद्यपि वामपंथ की लोकतांत्रिक जमीन भी इसी दौर में फैली और मनीष कुंजाम जैसे जमीन से जुड कर संघर्ष करने वाले नेता लाल झंडे को दंतेवाड़ा के साथ साथ बस्तर के दक्षिणी छोर कोण्टा में भी फहराने में सफल हुए; वाम दलों के लिये सीटों की यह स्थिति वर्ष 1990 और 1993 के चुनावों में बनी रही। नब्बे के दशक में राम मंदिर आन्दोलन बहुत तेजी से देश भर को प्रभावित कर रहा था। आश्चर्य यह कि राष्ट्र की मुख्यधारा का यही मुद्दा बस्तर में भी वोटरों को प्रभावित कर रहा था। बलीराम कश्यप जैसे आदिवासी नेताओं ने बस्तर में भारतीय जनता पार्टी के लिये जमीन तैयार की और वर्ष 1990 के चुनाव में इस दल ने बारह में से आठ सीटो पर अपना कब्जा कर लिया। कॉग्रेस को केवल एक सीट हासिल हुई जबकि भानुप्रतापपुर से निर्दलीय उम्मीदवार झाडूराम रावटे ने जीत हासिल की। यह कहना होगा कि वर्ष 1972 और उसके बाद के चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवारों की जीत लगभग असंभव हो गयी थी यद्यपि इक्का-दुक्का प्रभावी अथवा बागी उम्मीदवार अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे। आंकडे यह भी तस्दीक करते हैं कि वर्ष 1980 से ही बस्तर के विधानसभा चुनावों में मुख्य मुकाबला कॉग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच होने लगा था। वर्ष 1993, एक स्थिर राजनीति और लगभग मुद्दाविहीन चुनाव का दौर था। बस्तर में कॉग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी ने पाँच पाँच सीटों पर जीत हासिल की जबकि दो सीटें भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के हिस्से गयीं।
तालिका – 2: बस्तर में विधान सभा चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि (वर्ष 1977 – 1993 तक)
छत्तीसगढ राज्य निर्माण के आश्वासनों के बीच वर्ष 1998 के चुनाव हुए। कॉग्रेस ने वर्ष 1985 के चुनाव परिणामों वाला अपना करिश्मा दोहरा दिया। भारतीय जनता पार्टी को केवल कांकेर सीट से ही संतोष करना पडा जबकि शेष सभी ग्यारह सीटे कॉग्रेस के हिस्से में गयीं। वायदों पर अमल हुआ और 1 नवम्बर 2000 को मध्यप्रदेश से पृथक हो कर छत्तीसगढ राज्य अस्तित्व में आया। राज्य बनने का परिणाम यह हुआ कि बस्तर की राजनीति में स्थानीय मुद्दों की पुन: जगह बनने लगी। छत्तीसगढ राज्य के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी बने जबकि विद्याचरण शुक्ल की ताजपोशी तय मानी जा रही थी। सतारूढ कांग्रेस पार्टी के बीच हो रही अनेक तरह की अंदरूनी खीचतानों के बीच अगला विधान सभा का चुनाव वर्ष 2003 में हुआ जिसमे भारतीय जनता पार्टी ने अब तक का अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिखाते हुए नौ सीटों पर जीत हासिल कर ली, कॉग्रेस को केवल तीन सीटों से संतोष करना पडा जो कि दक्षिण बस्तर में अवस्थित थीं।
राज्य में अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी। इस समय तक नक्सलवाद छत्तीसगढ में प्राथमिक समस्या बन कर उभर आया था; क्या इस कारण जमीनी वामपंथ की हत्या हो गयी? यह सवाल आगे और बढता है चूंकि वर्ष 2004 से 2006 के बीच की ही बात है जब कई माओवादी धड़े संगठित हुए। इसी दौरान आन्ध्रप्रदेश में भीषण दमनात्मक कार्यवाईयों के फलस्वरूप अपने काडर के अठारह सौ से भी अधिक कार्यकर्ताओं को माओवादियों ने खो दिया था। अत: यही समय बस्तर के प्रवेश करने तथा स्वयं को संरक्षित करने की दृष्टि से माओवादियों के लिये सबसे मुफीद था। इसी समय अबूझमाड़ माओवादी गतिविधियों का केन्द्रीय स्थल बना। यही वह समय है जब बस्तर में कई विकास परियोजनायें घोषित हुई। यही वह समय है जब सलवा जुडूम आरंभ हुआ। यही वह समय है जब सैंकडों राहत शिविरों में लाखों विस्थापित रहने लगे और गाँवों में सन्नाटों ने बस्तियाँ बसायीं। यही वह समय है जब सलवा जुडुम का जवाब देने के लिये माओवादियों ने ‘कोया भूमकाल मिलीशिया’ का गठन किया और अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों के हजारों आदिवासियों को गृह युद्ध की आहूति बनाया। इस सभी हलचलों के बीच देश-विदेश का मीडिया, मानवाधिकार कार्यकर्ता और एनजीओ बस्तर में सक्रिय हुए। सलवाजुडुम को ले कर देश भर में सरकार विरोधी मुहिम चलाई गयी। नतीजा यह हुआ कि वर्ष-2006 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सलवा जुडुम को गैर-वैधानिक करार दिया गया।
हालाकि समानांतर रूप से प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने पब्लिक डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम जैसे उपाय ग्रामीण क्षेत्रों से जुडने के लिये तलाश लिये। वर्ष 2008 का विधान सभा चुनाव परिणाम भारतीय जनता पार्टी की बस्तर में सबसे बडी जीत का कारण बना। केवल कोण्टा की सीट जो कि कॉग्रेस के कवासी लकमा के हिस्से आयी थी को छोड कर शेष सभी ग्यारह सीटों में भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशियों को जीत हासिल हुई। इस जीत के कई प्रकार के विश्लेषण संभव है लेकिन स्पष्ट तौर पर नक्सली रणनीति और लोकतंत्र को धत्ता बताने के लाल-प्रयासों की पराजय के रूप में भी इसे देखना चाहिये। लोकतंत्र में अनेक खामियाँ है लेकिन वह आम जन का स्वीकार्य तंत्र भी है यदि एसा न होता तो बस्तर के चुनाव परिणाम के पैटर्न बिलकुल विपरीत होते। आदिवासी बस्तर ने झारखण्ड होने जैसी अदूरदर्शिता नहीं दिखाई तथा अपनी सरकार चुनने और बदलने का हक अपने पास रखा है। यही कारण है कि सभी राजनैतिक दल बस्तर की ओर अपेक्षा की निगाह से आज देख रहे हैं।
तालिका – 3: बस्तर में विधान सभा चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि (वर्ष 1998 – 2008 तक)
नया इतिहास बनने का द्वार बस खुलने को है। कई चुनावी सर्वेक्षण यह बता रहे हैं कि राज्य में कांटे का संघर्ष होगा तथा संभावना है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार ही तीसरी बार भी सत्ता हासिल कर सकेगी। सर्वेक्षणों से इतर यदि देखा जाये तो हाल ही में माओवादियों ने मई 2013 को बस्तर की दरभा घाटी में कॉंग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला कर महेन्द्र कर्मा, नंद कुमार पटेल और विद्याचरण शुक्ल जैसे कद्दावर नेताओं की हत्या कर दी। महेन्द्र कर्मा इस चुनाव को बहुत गंभीरता से ले रहे थे तथा उनका व्यापक चुनाव प्रचार अभियान परिवर्तन यात्रा के बहुत पहले से ही आरंभ हो गया था। उनकी हत्या के पश्चात यह देखना आवश्यक है कि सहानुभूति की जो लहर दंतेवाडा-बीजापुर जैसे क्षेत्रों में विद्यमान है क्या वह कॉग्रेस के पक्ष में वोट बन पाती है? कोण्टा सीट कई सालों से कॉंग्रेस के पास ही है; कवासी लकमा पर उठ रही उंगलियों और मनीष कुंजाम की जबरदस्त सक्रियता के बीच यह भी देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या कॉग्रेस अपनी यह परम्परागत सीट बचा पाती है? क्या बस्तर के माओवाद प्रभावित क्षेत्रो में ठीक तरीके से मतदान हो पाता है इसपर भी पार्टियों का भविष्य निर्भर करेगा। हालाकि भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में जो बात जाती है वह है पिछले चुनावों में जीत का प्राप्त प्रतिशत को कि सवा ग्यारह के लगभग है। किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिये यह दूरी पाटना बड़े संघर्ष का कार्य है। बस्तर को ले कर कोई भी राजनीतिक दल यह गलतफहमी नहीं पाल सकता कि यहाँ के वोटर राजनैतिक पैतरेबाजी नहीं समझते, यही कारण है कि बस्तर किसी भी एक पार्टी का गढ बन कर नहीं रहा। नक्सलियों की धमकी, चुनाव आयोग की सक्रियता, पोलिंग स्टेशन पर वीडियोग्राफी, कडी सुरक्षा व्यवस्था आदि से संभव है बस्तर के अंदरूनी इलाकों में वोट के प्रतिशत में कमी आये; यह भी चुनाव परिणामों पर असर डालने वाला कारक है। अब चुनाव बहुत दूर नहीं किंतु अभी से कहा जा सकता है कि दिलचस्प होंगे छत्तीसगढ के विधानसभा चुनाव जिसमे बस्तर सरकार बनाने की निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है।
===========
No comments:
Post a Comment