Thursday, September 19, 2013

एक था चेन्द्रू



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चेन्द्रू नहीं रहा। चेन्द्रू जब था तब भी उसके होने से किसी को बहुत फर्क नहीं था। बहुत से गुमनाम नायकों की कतार में एक वह भी था जिसने कभी जीवन में हॉलीवुड की चमक दमक देखी; लाईट. कैमरा और साउंड जैसे सम्मोहित करने वाले शब्दों के आगे वह कभी शेर से खेला तो कभी जंगल के उस स्वाभाविक जीवन को रुपहले पर्दे पर उतारने में सहायक बना जिसमे वह स्वयं जीता रहा था। वर्ष 1988-89 की बात है जब मैने पहली बार चेन्द्रू का नाम सुना था। पत्रकार मित्र केवलकृष्ण को कहीं से यह जानकारी प्राप्त हुई थी कि बस्तर में किसी आदिवासी बालक ने हॉलीवुड की फिल्म में काम किया था। इस सूत्र को पकड कर उसने बस्तर के प्रख्यात रिसर्चर इकबाल से मुलाकात की और वहाँ से पहली बार उसे चेन्द्रू का पता मिला।   

चेन्द्रू होने के क्या मायने हैं? क्या केवलकृष्ण को जब इकबाल भाई ने पहली बार चेन्द्रू का पता बताया और वो उनसे अबूझमाड़ के प्रवेशद्वार पर अवस्थित गाँव ‘गढ-बंगाल’ में मिले तब क्या यह जानते थे कि जिस व्यक्ति पर अखबार के लिये न्यूज फीचर करने जा रहे हैं वह पूरे बस्तर के लिये विरासत है? चेन्द्रू निश्चित ही अमिताभ बच्चन नहीं है और इसलिये उसकी गुमनामी तय है लेकिन यह बताना आवश्यक है कि मोगली और टारजन जैसे काल्पनिक किरदारों की भीड में वह एक जीता जागता नायक था। यह ठीक है कि बात छप्पन साल पुरानी है और वर्ष 1957 में स्वीडिश फिल्मकार अर्न सक्सिडॉर्फ की फिल्म 'एन डीजंगलसागा' ('ए जंगल सागा' या 'ए जंगल टेल' अथवा अंगरेजी शीर्षक 'दि फ्लूट एंड दि एरो') का नायक था चेन्द्रू। फिल्म में वास्तविक शेर से किसी खिलौने सा खेलता हुआ चेन्द्रू अपने नायकत्व से अनेक जंगल आधारित सिनेकारों पर मुस्कुरा कर यह कहता अवश्य प्रतीत होता है कि “नक्कालों से सावधान!!”। 

सिनेकार के लिये चेन्द्रू महज एक किरदार ही तो था जिसकी इतिश्री फिल्म के बनते ही हो गयी। इसके बाद फिल्म की एक डिस्क-प्रति, सिनेकार की हस्ताक्षरित एक किताब जो चेन्द्रू के कार्यों और उसकी अद्भुत तस्वीरों का प्रस्तुतिकरण भर थी, को थमा कर उसने कभी जानने की कोशिश भी नहीं की कि उसका ‘बस्तरिया माडिया नायक’ आगे किस हाल में रहा और कैसा जीवन जीता रहा। यद्यपि यह जानकारी मिलती है कि दस वर्ष के चेन्द्रू को तब फिल्मकार अर्न सक्स डॉर्फ गोद भी लेना चाहते थे किंतु उनका अपनी पत्नी से तलाक होने के पश्चात यह संभव न हो सका। हर नायक ताउम्र चमक-दमक मे नहीं रहता; बहुत से सुपरस्टार राजेशखन्ना बन जाते हैं और उम्र के आखिरी पडाव में दोयम दर्जे की छत्तीसगढी फिल्म में अभिनय करते दिखाई पडते हैं...कितने हैं जो फिर हल उठा लेते हैं; फिर अपनी लंगोट में आ जाते हैं; फिर अपनी झोपडी को घर मानने लगते हैं और फिर अपने गाँव में अपने साथियों के साथ ताड़ी-लांदा से अलमस्त यह भूल पाते हैं कि जीवन में उन्होंने लाईट-कैमरा-एक्शन की चमत्कारी दुनिया भी देखी हुई है? 

केवल कृष्ण ने बताया था कि जब पहली बार चेन्द्रू से मिलने गढबंगाल पहुँचा तो वह किसी बीमार की झाड़-फूंक करने गया था। उसे चेन्द्रू को देख कर यकीन ही नहीं हुआ कि यही व्यक्ति एक हॉलीवुड फिल्म का नायक भी रह चुका है और इसी ने बस्तर के प्रतिनिधित्व को वैश्विक बनाया है। नायक भी कैसा, जो यह जानता ही नहीं कि उसके काम की अहमियत क्या थी? एक फटी-चिटी किताब जिसमे सिनेकार ने अपना हस्ताक्षर कर चेन्द्रू को हस्तगत किया था वस्तुत: वही प्रमाण के रूप में चेन्द्रू के पास उपलब्ध था। इस फटी-मुडी किताब में प्रकाशित चेन्द्रू की तस्वीरें देख कर किसी की भी आँखें फटी रह सकती थी। प्रश्न केवल अभिनय की स्वाभाविकता का नहीं है चूंकि चेन्द्रू पर तो वही फिल्माया जा रहा था जो उसका जीवन है, यहाँ से कई मुद्दे उभर कर आते हैं। स्वीडिश फिल्मकार ने चेन्द्रू का जीवन तो प्रस्तुत किया किंतु उसे पहचान नहीं दी। भारत में उन दिनो भी फिल्म का जुनून था और तब भी यह आवश्यकता नहीं समझी गयी कि स्वीडिश फिल्म ‘जंगल सागा’ या कि अंग्रेजी रूपांतरण 'दि फ्लूट एंड दि एरो' हिन्दी में ‘जंगल गाथा’ बन कर सामने आ पाती। हिन्दी में जंगल पर बनने वाले बदन-दिखाऊ और अश्लील टार्जनों के सामने एक आईना तो होता? जाने दीजिये हम न तब जागरूक थे और न अब हैं। न हमने चेन्द्रू की अहमियत तथा उसके कार्य की महत्ता तब समझी थी न आज ही उसे जानना चाहते हैं। 

बात उस केवल कृष्ण के न्यूज फीचर से ही करना चाहता हूँ जिसने चेन्द्रू से मेरा पहला परिचय करवाया था। उसने बताया था कि चेन्द्रू से बहुत स्वाभाविक रूप से अपनी विरासत अर्थात उसकी फिल्म पर प्रकाशित पुस्तक सौंप दी थी। जब वह पुस्तक लौटाने पुन: गढ-बंगाल पहुँचा तब चेन्द्रू घर पर नहीं था। घर के बाहर ही चन्द्रू की माँ मिल गयी जो अहाते को गोबर से लीपने में लगी हुई थी। बहुत देर तक चेन्द्रू की प्रतीक्षा करने के पश्चात भी जब वह नहीं लौटा तो केवल ने चेन्द्रू की माँ को ही अपने आने का प्रायोजन बताया। बहुत ही स्वाभाविक लेकिन कडुवा प्रश्न उस ग्रामीण महिला ने केवल के सामने रख दिया कि “तुम लोग तो ये खबर छाप के पैसा कमा लोगे? कुछ हमको भी दोगे?” आज भी यह सवाल कायम है। चेन्द्रू ने बस्तर को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी है, केवल कृष्ण तथा आलोक पुतुल को एक दुर्लभ कहानी दी है, पत्रकार हेमंत पाणिग्राही को राज्यस्तरीय पुरस्कार दिलाया है...और मैने भी अपनी पुस्तक “बस्तर के जननायक” में उसकी कहानी को प्रस्तुत किया है। हम सभी बगले झांक सकते हैं क्योंकि यह सवाल कायम है कि चेन्द्रू को क्या मिला? 

पिछले एक माह से चेन्द्रू जिन्दगी और मौत की लडाई लड रहा था। उसका आधा शरीर पक्षाघात का शिकार हो गया था तथा वह कुछ भी बोल पाने अथवा किसी को भी पहचान पाने में असमर्थ था। मैं इस बार जगदलपुर केवल चेन्द्रू से मिलने के लिये गया था चूंकि मैं हर बार इस अपराधबोध के सामने खुद को खडा पाता हूँ कि आखिर चेन्द्रू को क्या मिला? मुझे अस्पताल में यह देख कर हार्दिक प्रसन्नता हुई थी कि बस्तर के ख्यातिनाम साहित्यकारों में गिने जाने वाले मित्र रुद्रनारायण पाणिग्राही चेन्द्रू की स्वयं आगे बढ कर खोज खबर रख रहे थे और चिकित्सकों और चेन्द्रू के परिजनो के बीच होने वाली भाषा-संवाद की समस्या को भी रह रह कर दूर कर रहे थे। मेरे लिये एक अद्भुत नायक की छवि को मरणासन्न देखना हृदयविदारक सा था। मैं जान गया था कि व्यवहारिक रूप से हमने अब चेन्द्रू को खो दिया है लेकिन जब तक सांसे हैं उसका हक बनता है कि वह सम्मान के साथ चिर निद्रा मे लीन हो। उसका हक बनता था कि उसके स्वास्थ्य की चिंता प्रशासन करे। उसका हक बनता था कि उस पर लिखा जाये और न केवल बस्तर अपितु पूरे छत्तीसगढ का ध्यान चेन्द्रू की ओर जाये; उसका हक बनता था कि जिस बस्तर को उसने सात समन्दर पार भी पहचान दी उसे उसकी अपनी मिट्टी भी सगर्व पहचाने। अपने आग्रह पर नारायणपुर में मुझे मित्र संजय महापात्रा के माध्यम से यह सूचना प्राप्त हुई कि आदिमजाति कल्याण मंत्री केदार कश्यप ने चेन्द्रू से मुलाकात की तथा उसका मुफ्त इलाज करने के निर्देश अस्पताल को दिये। 

आज चेन्द्रू हमारे बीच नहीं है। चेन्द्रू की उपलब्धियों पर गर्व करने का हक हम बस्तरियों को तभी होगा जब हम उसकी अहमियत को भी पहचान और सम्मान देंगे। चेन्द्रू को मिलने वाला सम्मान अनेक अबूझमाडियों के लिये वह प्रेरणा बन सकता है कि बारूद की गंध के बीच भी कोई फिर जंगल सागा की गुनगुनाहट बनना चाहे। अलविदा चेन्द्रू....।  
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