“एनबीटी की बस्तर में हलबी अनुवाद कार्यशाला के बहाने एक विमर्श”
[कार्यशाला दिनांक 24-26 सितम्बर को जगदलपुर में]
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बस्तर में दो वृहद रूप से पहचानी जाने वाली संस्कृतियाँ हैं – गोंड़ी तथा हलबी-भतरी परिवेशों में। भूतपूर्व बस्तर रियासत ने इन दोनों संस्कृतियों को भाषाई एकता के सूत्र में बाँधा था। एक लम्बे समय तक ‘हलबी’ बस्तर रियासत की राज भाषा रही किंतु इसका कारण किसी संस्कृति विशेष को महत्व दिया जाना अथवा जिसी जनजाति विशेष का वर्चस्व दिखाना नहीं था अपितु यह इस लिये किया गया था चूंकि रियासत में अवस्थित सभी जनजातियों की संपर्क भाषा तब हलबी ही थी। लाला जगदलपुरी की पुस्तक “बस्तर- लोक कला, संस्कृति प्रसंग” के पृष्ठ-17 मे उल्लेख है कि – “बस्तर संभाग की कोंडागाँव, नारायनपुर, बीजापुर, जगदलपुर और कोंटा तहसीलों में तथा दंतेवाडा में दण्डामिमाडिया, अबूझमाडिया, घोटुल मुरिया, परजा-धुरवा और दोरला जनजातियाँ आबाद मिलती हैं और इन गोंड जनजातियों के बीच द्रविड मूल की गोंडी बोलियाँ प्रचलित है। गोंडी बोलियों में परस्पर भाषिक विभिन्नतायें विद्यमान हैं। इसी लिये गोंड जनजाति के लोग अपनी गोंडी बोली के माध्यम से परस्पर संपर्क साध नहीं पाते यदि उनके बीच हलबी बोली न होती। भाषिक विभिन्नता के रहते हुए भी उनके बीच परस्पर आंतरिक सद्भावनाएं स्थापित मिलती है और इसका मूल कारण है – हलबी। अपनी इसी उदात्त प्रवृत्ति के कारण ही हलबी, भूतपूर्व बस्तर रियासत काल में बस्तर राज्य की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही थी।….और इसी कारण आज भी बस्तर संभाग में हल्बी एक संपर्क बोली के रूप में लोकप्रिय बनी हुई है।”
डॉ. हीरा लाल शुक्ल की पुस्तक “बस्तर का मुक्तिसंग्राम” के पृष्ठ -6 में उल्लेख मिलता है कि – ‘वर्तमान में निम्नांकित मुख्य जातियाँ बस्तर के भूभागों में रहती हैं – 1. सुआर ब्रामन, 2. धाकड, 3. हलबा, 4. पनारा, 5. कलार, 6. राउत, 7. केवँटा, 8. ढींवर, 9. कुड़्क, 10. कुंभार, 11. धोबी, 12. मुण्डा, 13. जोगी, 14. सौंरा, 15. खाती, 16. लोहोरा, 17. मुरिया, 18. पाड़, 19. गदबा, 20. घसेया, 21. माहरा, 22. मिरगान, 23. परजा, 24. धुरवा, 25. भतरा, 26. सुण्डी, 27. माडिया, 28. झेडिया, 29. दोरला तथा 30. गोंड। उपर्युक्त मुख्य जातियों में 1 से 22 तक की जातियों की “हलबी” मातृबोली है और शेष जातियों की हलबी मध्यवर्ती बोली है। कुछ जातियों की अपनी निजी बोलियाँ भी हैं जैसे क्रम 23 और 24 में दी गयी जातियों की बोली है परजी जबकि 25 और 26 की बोली है भतरी। क्रम 27 से 30 तक की बोलियाँ हैं माडी तथा गोंडी।”
उपरोक्त उद्धरणों से यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि आज भी हलबी बोली बस्तर की एक मान्य और कोंटा से ले कर कांकेर तक बोली-समझी जानेवाली भाषा है। हलबी बस्तर के साहित्य की भी भाषा है और सौभाग्य से इसका अपना व्याकरण और शब्दकोश भी है। यह प्रसन्नता का विषय है कि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एनबीटी) द्वारा बस्तर की आदिवासी भाषा-बोलियों में मुख्यधारा की पुस्तकों के अनुवाद किये जाने की दूसरी कार्यशाला जिसका आयोजन दिनांक 24-26 सितम्बर को जगदलपुर में किया जा रहा है; इसमे हलबी भाषा में अनेक पुस्तकों का अनुवाद, तत्पश्चात प्रकाशन किया जायेगा। हलबी में हो रहे इस कार्य की महत्ता इस बात से भी है कि एक बडा पाठक वर्ग होने के बाद भी पुस्तकों की उपलब्धता का अभाव होने के कारण भाषा का ह्रास हो रहा था तथा साहित्यकारों की भी हलबी में रचनाकर्म करने की अभिरुचि टूट रही थी। मैं एनबीटी तथा श्री पंकज चतुर्वेदी जी का हृदय से आभार करता हूँ जिनकी संकल्पना से यह आयोजन संभव हो पा रहा है।
इस आयोजन के साथ मुझे महाराजा प्रवीर याद आ रहे हैं। वर्ष-1950 में 21 से 23 अक्टूबर तक चलने वाले मध्य-प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन जगदलपुर के राजमहल परिसर में हुआ था। तत्कालीन गृह मंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र इस सम्मेलन के अध्यक्ष थे। अधिवेशन में पं सुन्दर लाल त्रिपाठी, सुनीत कुमार चटर्जी, आचार्य क्षिति मोहन सेन, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, भदंत आनंद कौशल्यान, बाबूराम सक्सेना, दादा धर्माधिकारी, डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, भवानी प्रसाद मिश्र, भवानी प्रसाद तिवारी, प्रो. अंचल आदि मनीषी उपस्थित थे। प्रवीर ने तब शिक्षा और भाषा-बोली के समन्यवय को ले कर एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि - “हिन्दी में पढ़ाने के लिये हमारी प्रारंभिक पाठ्य पुस्तकें बेकार हैं, इनमें हमें चित्रों की भी आवश्यकता है। प्रत्येक अक्षर को एक जानवर की तस्वीर लगा कर समझाया जाये और उस जानवर का नाम हिन्दी, हल्बी और गोंडी में लिखा जाये।” अर्थात यह कि हिन्दी और स्थानीय भाषाओं के बीच एक सेतु बनाने की आवश्यकता है चाहे हम आदिवासी भाईयों को मुख्यधारा से जोडने का स्वप्न देखें अथवा उनकी नयी पीढी के लिये शिक्षा का।
एनबीटी जैसे प्रकाशन संस्थान यदि इसी तरह अपना दायित्व निर्वहन करेंगे तो निश्चित ही बडे बदलाव बस्तर के सामाजिक परिदृश्य में देखने को मिलेंगे। मेरा यह अनुरोध भी होगा कि इस तरह की कार्यशालायें लगातार आयोजित की जानी चाहिये। अगली कार्यशाला गोंडी में होनी चाहिये जिससे कि दक्षिण बस्तर और अबूझमाड क्षेत्र के लिये भी एसी ही पुस्तके द्विभाषा में प्रकाशित की जा सकें शिक्षक सीधे ही इन पुस्तकों को पढ कर बच्चों तथा ग्रामीणों को सुना सकेंगे तथा उनमें सोच और दृष्टिकोण के बीच बोने में सहायक हो सकेंगे।
इस आयोजन के लिये पुन: शुभकामनायें।
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