गीली मिट्टी से खेलने वाला हर बच्चा अपनी कल्पनाओं को कोई न कोई आकार देने की कोशिश अवश्य करता है। बुनियादी रूप से यह कल्पनाशीलता ही मिट्टी शिल्प की कलात्मकता का आधार है। बस्तर में मिट्टी शिल्प देश के किसी भी अन्य भाग के टेर्राकोटा कार्यों से भिन्न है चूंकि इसमे कलाकार की मौलिकता मौजूद है न कि सांचों से इसकी निर्मिति हो रही है। साथ ही साथ जो कुछ बस्तर के कलाकार आज भी गुथी हुई मिट्टी को स्वरूप दे कर बना रहे हैं उसमे क्षेत्र के प्रागैतिहास से ले कर इतिहास के हर बदलते हुए दौर की किसी न किसी रूप में झांकी मिलती है।
मिट्टी शिल्प की बुनियादी जानकारी मुझे धरमपुरा जगदलपुर स्थित मानव संग्रहालय में चल रही एक कार्यशाला के दौरान प्रदान की गयी जहाँ नगरनार से आये मिट्टी शिल्प के कलाकार अपनी कृतियों का न केवल प्रदर्शन अपितु वहीं निर्माण भी कर रहे थे। कलाकारों ने बताया कि यह कला परम्परागत रूप से चाक, उनके हाथों की कारीगरी तथा कल्पनाशीलता का संगम है। मिट्टी मूलरूप से किसी खेत से, नदी-नाले के किनारे नर्म हुई सतह से, तालाब आदि के किनारे से प्राप्त की जाती है जिसे श्रमपूर्वक तथा पैरों से गूंथ कर निर्माण के लिये तैयार कर लिया जाता है। आवश्यकतानुसार थोडी सी रेत मिला कर और पुन: गूंथ कर इस मिट्टी को किसी भी कलात्मक निर्माण के लिये तैयार कर लिया जाता है।
भव्य हाथी बस्तर के मिट्टी शिल्प की सबसे महत्वपूर्ण पहचान है। मिट्टी शिल्प का कलाकार मुझे वह प्रक्रिया समझाने लगा जिस तरह वह हाथी का निर्माण कर रहा था। हाथी के पैरो और सूंड को छोड कर पूरा कार्य हाँथों से ही किया जाता है; इसे सजाने के लिये कल्पना और परम्परागत ज्ञान ही उनके सहयोगी होते हैं। यह भी प्रतीत होता है कि हाथी अथवा बैल पर किये गये अलंकरण संभवत: बस्तर को दक्षिण की देन हैं। बस्तर के कलाकारों द्वारा हाथी के अलावा घोडे, बैल नंदी, बेन्दरी आदि प्रमुखता से बनाये जाते हैं। अपने देवी देवताओं को भी मिट्टी के यही कलाकार अपनी कल्पनाशीलता से आकार देते हैं, मुख्य रूप से दंतेश्वरी, जलनी, भण्डारिनी, माडिन माता, बूढी माई, हिंगलाजिन, बंजारिन, मावली, गोंडिन, डोकरा, राहुर, भीमादेव, लिंगोपेन आदि की मृत्तिका-प्रतिमायें बनायी जाती हैं। केवल यही नहीं मृदभांड आज भी आदिवासी परम्परा का हिस्सा है और मटका, घगरी, कुंडरा, कनजी, रूखी, परई, भांजना सुराही आदि भी बनाये जाते हैं। खिलौने बनाना भी कुम्हारों द्वारा किया जाता है और मुख्य रूप से चकिया, चूल्हा, कोंडी, ढक्कन, चाटू, सिल, गुडिया, घोडा, हाथी आदि बनाये जाते हैं।
कई मिथक कथायें भी उपलब्ध हैं। बस्तर मे यह जनमान्यता है कि तब चारो ओर केवल जल ही जल था और ईश्वर को निर्माण के लिये मिट्टी की आवश्यकता थी। ईश्वर ने केंकडे से कहा कि जाओ पाताललोक में केंचुवे के पास मिट्टी है, उसे ले कर आओ; मुझे उस मिट्टी से दुनिया का निर्माण करना है। केंकडा पाताल लोक पहुँचा और उसके केंचुवे से सृजन के लिये मिट्टी मांगी। इनकार करने पर केंकडे नें अपनी दाढ में केंचुवे को दबा लिया। घबरा कर केंचुवे ने मिट्टी छोड दी, जिसे ले कर केंकडा ईश्वर के पास पहुँचा। ईश्वर नें यह मिट्टी अपने एक गण को दे कर कहा कि जाओ रोशनी के लिये मिट्टी के दीप बनाओ, मिट्टी के पात्र और घट बनाओ। यह गण तथा इसके वंशज कुम्हार बने। इस कहानी से एक और मिथक कथा पूरक की तरह आ जुटती है। कुम्हार ने भगवान से कहा कि मिट्टी के बर्तनों और प्रतिमाओं के निर्माण के लिये मुझे साधन चाहिये। विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र जिससे चाक बना, शिव ने पिण्डी दी जिससे चाक की धुरी बनी तथा ब्रम्ह ने अपनी जनेऊ प्रदान की जिससे मिट्टी काटने की रस्सी बनी। प्रगतिशील समाज इस कहानी को नकार दे इससे पहले मेरा अनुरोध होगा कि इस मिथक कथा को किसी कविता की तरह पढा जाये। सृजन करने वाला हर व्यक्ति वस्तुत: इश्वर का गण ही तो है? इतिहास को भी देखे तो दुनिया के सारे आविष्कार अकस्मात हुए हैं चाहे वह चक्के की खोज हो अथवा आग की; कालांतर में उन्हें किसी न किसी तरह ईश्वरीय सत्ता के साथ उस काल के मानव ने जोड कर अपनी जिज्ञासाओं के सामाधान प्राप्त किये हैं। बस्तर में मिट्टी की किसी कृति के निर्माण के पश्चात उसे आग/भट्टी में पका कर पक्का कर लिया जाता है। बसंत निर्गुणे की पुस्तक “मिट्टी शिल्प” के अनुसार उन्हें कोण्डागाँव के एक कुम्हार बनऊ राम नाग ने यह मिथक कथा बताई थी कि एक बार किसी हाथी के सिर पर मिट्टी चिपक गयी। यह मिट्टी सूख कर किसी पपडी की तरह जमीन पर गिर गयी। बस्तर का पुरा-मानव इस मिट्टी की पपडी को अपनी झोपडी में ले आया। किसी कारण वश झोपडी में आग लग गयी। मिट्टी की यह अर्धचन्द्राकार पपडी जो आकार में किसी पात्र की तरह थी इस आग में पक गयी और ठोस हो गयी। बरसात में पुरा-मानव ने पाया कि इस मात्र में तो वह जल को संचित कर रख सकता है। यही नहीं इस प्रक्रिया से वह अपने उपयोग के योग्य पात्र भी बना सकता है। कहते हैं इसी घटना के फलस्वरूप मिट्टी शिल्प का जन्म हुआ। यह कारण भी है कि हाथी बस्तर में कुम्हारों की निर्मिति में प्राथमिकता से आते हैं और उनकी पूजा भी होती है। यह कथा मनुष्य सभ्यता के विकास की भी परते खोलती हुई भी प्रतीत होती है।
आज भी बस्तर में नगरनार, कोण्डागाँव, कुम्हारपारा (जगदलपुर) तथा एडका (नारायणपुर) में बस्तर की मिट्टी शिल्प कला स्वांस ले रही है। अद्भुत कलात्मकता और कल्पनाशीलता के साथ अब इसमे आधुनिकता का भी समावेश होने लगा है। समय के साथ साथ कलाकार गमले, पेनस्टेंड, दीवार पर लगाये जाने वाली सजावटी कलाकृतियाँ आदि भी बना रहे है। इन सबके बाद जिस बात ने मुझे सर्वाधिक आकर्षित किया वह था “पुरातन और आधुनिकता का फ्यूजन”। कलाकारों से बुनियादी जानकारी ले कर मैं आगे बढा ही था कि मेरी दृष्टि बडे कॉफी कप तथा पेन स्टेंड जैसी कुछ मिट्टी की आकृतियों पर पड़ी। इससे भी बडा और सु:खद आश्चर्य मुझे तब हुआ जब एक नौजवान मेरे सामने आ खडा हुआ और उसने सगर्व बताया कि यह उसका बनाया हुआ है। यह आदिवासी लडका बारहवी पास कर चुका है और अपने पेशे के प्रति भी समर्पित है। उसकी शिक्षा ने ही उसे परम्परा और आधुनिकता को जोड कर नयी कलात्मकताओं को प्रदर्शित करने की प्रेरणा दी है। यह बदलते बस्तर की एक बानगी भर है। हममे से बहुत से लोग जो यह मानते हैं कि रोजगार निर्माण के परम्परागत स्त्रोतों की ओर भी लौटना चाहिये, उन्हें यह प्रयास करने की आवश्यकता है कि एसी कलाकृतियों को बाजार भी उपलब्ध हो। यदि इन कलाकारों को उनके श्रम का वास्वविक मूल्य तथा जीवन यापन योग्य समुचित आय प्राप्त होने लगेगी तो यकीन मानिये बस्तर की यह पारम्परिक कला विश्वमानचित्र पर अपना महत्वपूर्ण दखल रख सकती है। बस्तर में बदलाव के बीज यहीं मौजूद हैं केवल उन्हें सही खाद-पानी और रोशनी प्रदान करना है हमें।
-राजीव रंजन प्रसाद
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