उन्होंने अपनी घुटने तक लपेटी हुई लुंगी के भीतर खोंस कर रखा पासपोर्ट निकाला जिसे पॉलीथीन और उसके उपर कपडे से लपेट कर सुरक्षा प्रदान की गयी थी। दो पासपोर्ट आपस में जुडे हुए थे और पन्ने पलटने पर ज्ञात हुआ कि अनेक देशों का उसमे वीज़ा लगा हुआ है। यह विद्याधर कश्यप थे जो नगरनार में अवस्थित हैं और बस्तर के लौह शिल्प का जाना पहचाना नाम हैं। कलाकार की प्रेरणा उसे मिलने वाला सम्मान और प्रोत्साहन ही होते हैं; यह बात मैं कश्यप जी की आँखों से झांकते गर्व को देख कर महसूस कर रहा था। यह गर्व उस दक्षता और कल्पनाशीलता से उत्पन्न होता है जो बस्तर के कलाकारों में आप देख-महसूस सकते हैं। लौह शिल्प से तात्पर्य आप विशुद्ध लोहार कर्म से नहीं लगा सकते। यह सही है कि परम्परागत रूप से बस्तर में लोहार निवास करते आये हैं तथा रियासत काल से ले कर आज तक वे भांति भांति के लौह औजार बना कर बाजार तक पहुँचाते रहे हैं। इन औजारों में दैनिक उपयोग की वस्तुएं जैसे कुल्हाडी, छुरा, दीपक, सांकल, बड़गी, सिकरा, काटा, आदि रही हैं तो खेती के उपकरण जैसे हल के फाल आदि भी हैं। तीर के आगे का हिस्सा निर्मित किया गया है तो बर्तन और दरवाजे भी बनाये जाते रहे हैं। किसी समय तलवारे, त्रिशूल, भाला, बरछी भी इनकी धौंकनियों से तप कर निकली हैं और बंदूखों की नाल भी इनकी निर्मिति हुआ करती थी।
बस्तर का लौह कर्म जितना पुराना है उतनी ही पुरानी लौह शिल्प कला भी है। धातुयुगीन मानव सभ्यता का काल 1800 ई.पू से 1000 ई.पू माना गया है। इस कालखण्ड तक मध्यभारत, गोदावरी के तटीय क्षेत्रों जिसमे कि वर्तमान बस्तर भी सम्मिलित है निश्चित ही लोहे को गलाने और इस्पात बनाने की विधि सीख ली गयी थी। बैलाडिला क्षेत्र में जहाँ आज विश्व की सर्वाधिक लौह प्रचुरता वाले अयस्क का भंडार है और आधुनिकतम खदाने हैं वहाँ 1065 ई में चोलवंश के राजा कुलुतुन्द ने लोहे को गला कर अस्त्र शस्त्र बनाने का कारखाना लगाया था। यहाँ बने हथियारों को तंजाउर भेजा जाता था। कथनाशय यह है कि आदिवासी परम्परागत रूप से लोहा गलाने और उससे विभिन्न उत्पाद बनाने की विधि को पीढी दर पीढी आगे बढाते रहे और इस तरह लौह कर्म वर्तमान की दहलीज तक पहुँच सका। एक निर्माता वस्तुत अपने भीतर की कल्पनाशीलता को छोड ही नहीं सकता और गाहे-बगाहे उसके भीतर से निकलने वाली सृजन की हूक किसी एसी आकृति के साथ बाहर आती है जिसे देख कर सभी चमत्कृत रह जायें। किसी भी कला की यही आरंभिक अवस्था है और संभवत: लौह शिल्प की भी।
लौह शिल्प का जो कला पक्ष है वह अत्यधिक श्रम से निकल कर बाहर आता है जहाँ धौकनी का ताप, लोहे को गलाने-तपाने का समय और हथौडे की उसपर सही समय और सही मात्रा में की गयी चोट ही आकार देने में सहायक होती है। आज भी लौह शिल्प के कलाकार किसी तरह की ढलाई विधि का प्रयोग नहीं करते अपितु परम्परागत रूप से पीट पीट कर आकार देने की प्रक्रिया का ही निर्वहन किया जाता रहा है। लौह कर्म एक कुटीर उद्योग तो बना ही कला के रूप में आरंभ में लोहारों ने अनेको स्थानीय देवी देवताओं की आकृति को स्वरूप प्रदान किया। गुजरी देवी को देवगुडी में रखा जाता है; इसी तरह देवताओं के वाहन निर्मित किये गये जिनमे रावदेव का घोडा इस तरह बनाया जाता था जिसमे कि कान नहीं होते थे। विभिन्न अनुष्ठानो में देवी-देवता अथवा पशु मूर्तिया चढाना एक विधान की तरह है। मानव आकृतियाँ भी बनाई जाती हैं जिसमे गौर सिंह लगाये हुए दंडामि माडियाओं की अनुकृति प्रमुख है। इसी तरह लौह कर्म से निर्मित सिकरा तीन प्रकार के होते हैं – कपाट सिकरा, बिलाई सिकरा और काटा सिकरा। काटा सिकरा आजब भी देवस्थल पर रखे जाते हैं। चिटकुली को बजाने के लिये प्रयोग में लाया जाता है। लौह कलाकृतियों में अनेक प्रकार के पशु पक्षी जिनमे कि बैल, हिरण, घोडा, भांति भांति के आकार की चिडिया आदि बनाये जाते हैं। लौह कलाकृतियों में घुडसवार गणेश विशेष रूप से दर्शनीय होते हैं। दीपंकर हो अथवा दीवार में सजाने वाली विभिन्न मूर्तियाँ; इन सभी में बस्तर के लौह-शिल्पियों की अद्भुत कलात्मक क्षमता के दर्शन होते हैं।
बस्तर के आदिवासी समाज में प्रचलित एक प्रथा की जानकारी मिलती है जिसमे विवाह में कन्या को लौह दीपक प्रदान किया जाता है। इस प्रथा को दाईज दिया जाना कहते हैं। वस्तुत: यह कला ही है जो लोकजीवन में अपना आलोक विस्तारित करती है, देवताओं के सम्मुख प्रस्तुत की जाती है और समान पूजनीय होती है साथ ही साथ हर आम और खास घरों की सहर्ष शोभा भी बनती है। बस्तर के भीतर लोककला के रूप से एसी एसी विरासतें मौजूद हैं कि यदि इनका सही प्रकार से संरक्षण, संवर्धन तथा प्रसार किया जाये तो रोजगार के उन अवसरों को पुन: हासिल किया जा सकेगा जो धीरे धीरे लुप्त होते जा रहे हैं।
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