सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में प्रकाशित
नैनो दर्शन पत्रिका में प्रकाशित
नैनो दर्शन पत्रिका में प्रकाशित
[बारसूर (दंतेवाड़ा) के सिंगराज तालाब में अवस्थित प्रतिमा पर एक विश्लेषण]
------------
आप बारसूर पहुँचते हैं तो अनेक दर्शनीय स्थलों की भीड़ में आपको जानकारी प्राप्त होती है सिंगराज तालाब में कंठ अवस्था तक जलमग्न एक विष्णु प्रतिमा की। लगभग पाँच फीट आकार वाली यह प्रतिमा भव्य है, दर्शनीय है तथा दुर्लभ है। सौभाग्य से इस बार जब मैं इस प्रतिमा के निकट पहुँचा तो भगवान विष्णु की प्रतिमा वाली ही अवधारणा मेरे मन में भी थी। तालाब के दूसरी ओर खड़े हो कर अपने कैमरे में जूम करते हुए इस प्रतिमा की तस्वीर कैद करने के पश्चात वहाँ अधिक रुकने का कोई कारण नहीं बनता था। लगभग सभी किताबों में, सरकारी बुकलेट तथा बारसूर महोत्सव की प्रचार सामग्रियाँ सभी इस प्रतिमा को विष्णु की घोषित कर चुकी हैं अत: मेरा यह अनुमान था कि निश्चित ही यह शेष शायी विष्णु की ही प्रतिमा होगी। मेरे साथ मित्र चन्द्रा मण्डा तथा संतोश बढई भी थे। मैं किनारे पर ही खडा रहा और चन्द्रा भाई से निवेदन किया कि वे निकट जा कर इस प्रतिमा की एक तस्वीर खीच लें। एकाएक न्यूटन वाला सेव जैसे मेरे सामने ही आ गिरा और मुझे खडी अवस्था में देख कर इसके विष्णु प्रतिमा होने में संदेह हुआ। गर्मी भयानक पड़ी थी इस वर्ष अत: एक गड्ढे में सिमट कर रह गया था। मैं प्रतिमा के सम्मुख आ पहुँचा और कोशिश करने लगा कि समझ सकूं कि यदि यह विष्णु प्रतिमा है तो क्यों है? और यदि मेरी छठी इन्द्री इस तथ्य को नकार रही है तो किस लिये?
कई मोटे मोटे संदेह मेरे सामने थे प्रतिमा के सिर पर पंचमुखी नाग अथवा शेष नाग होने तक तो ठीक है लेकिन उसके बगल में छठा नाग शीष आखिर क्यों है? विष्णु तो नाग धारण नहीं करते? इस छठे नाग की पूँछ पीछे से हो कर प्रतिमा के दूसरे हाथ तक पहुँच रही है। प्रतिमा के दो ही हाथ नज़र आ रहे हैं तथा शंख, हक्र, गदा, पद्म जैसे अन्य पहचान चिन्ह भी नदारद हैं जो किसी विष्णु प्रतिमा की पहचान होते हैं। मैं चूंकि पुरातत्व का जानकार नहीं हूँ अत: इन बहुत सारे सवालों के साथ मैने प्रतिमा की विभिन्न कोणों से फोटोग्राफी की और उन्हें प्रभात सिंह जी के पास भेज दिया। प्रभात सिंह जी पुरातत्वविद हैं तथा सिरपुर के उत्खनन में उनका महति योगदान है। उनसे मेरी मुलाकात भी सिरपुर में हुई थी जहाँ उनकी मेधा तथा उनके द्वारा प्रतिमाओं के बारीक विश्लेषण सुन कर मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ था। प्रभात जी से मुझे दो अलग अलग ई-मेल प्राप्त हुए। पहले ई-मेल में उन्होंने मेरी शंकाओं का बहुत हद तक समाधान किया था और यह समझने में सहायता की कि प्रतिमा विष्णु की क्यों नही है।
प्रभात जी ने बताया कि “सर्पफणों के पीछे प्रभावली की विद्यमानता प्रथम दृष्टया इसे देव प्रतिमा के रूप में रेखांकित करती है। यदि इसकी सिरोभूशा का अवलोकन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह विष्णु प्रतिमा नहीं हो सकती है क्योंकि वे किरीट मुकुट धारण करते हैं जबकि इस उदाहरण में जटामुकुट का प्रदर्शन है जो कि शिव प्रतिमा का एक अनिवार्य अभिलक्षण है। प्रतिमा द्विभुजी है और संभवतः (क्योंकि प्रतिमा का अधोभाग चित्र में उपलब्ध नहीं है) दोनो हाथ खण्डित हैं। दाहिने हाथ के अवशिष्ट भाग को देखकर अनुमान होता है कि इसकी हथेली अभय मुद्रा में रही होगी। वहीं बांया हाथ देह के समानान्तर लटकता हुआ दिखाई दे रहा है। नीचे का हिस्सा उपलब्ध न होने के कारण हस्तमुद्रा अथवा उसमें धारित आयुध के विषय में निष्चित रूप से कह पाना अभी संभव नहीं है। सिरोभाग के ऊपर पाँच फणयुक्त सर्प का छत्र है। शिव प्रतिमा के साथ सर्प का संयोजन सर्वविदित है किन्तु आम तौर पर शिव प्रतिमा में इस प्रकार सर्पफण के छत्र का अंकन नही मिलता है। वहीं इस प्रतिमा में पृथक से एक सर्प एकदम दाहिनी ओर अंकित किया गया है जिसका पष्चभाग अर्थात पूंछ एकदम बांयी ओर देवता के कंधे से हाथ तक समानान्तर लटकती हुई देखी जा सकती है। इस प्रकार यहाँ दो सर्प उपस्थित हैं। देवता के कर्णाभूषण, वक्षाभूषण और वस्त्र का भी शिव प्रतिमा से सामंजस्य स्थापित नहीं होता। यह भी उल्लेखनीय है कि सर्प का प्रदर्शन जल के देवता वरूण के साथ भी होता है किन्तु जटामुकुट नहीं होना चाहिए। वहीं इस प्रतिमा की योगस्थानक मुद्रा नागपुरूष की प्रतिमा का अभिलक्षण स्वीकार नहीं किया जा सकता है”।
मैने प्रभात जी को प्रतिमा के पृष्ठ भाग सहित आस पास की कई अन्य तस्वीरें भी भेजीं। अब यह स्पष्ट होने के पश्चात कि यह विष्णु प्रतिमा नहीं है जिस नाम से बहुत लम्बे समय से इसे जाना जा रहा है तब इसको नयी पहचान भी प्रदान किया जाना आवश्यक है। प्रभात जी ने विस्तृत अध्ययन के पश्चात मिझे बता कि “आपके द्वारा प्रेषित छायाचित्रों से उक्त प्रतिमा के अभिज्ञान के सम्बन्ध में कुछ लाभ अवष्य प्राप्त हुआ है तथापि अतिम निष्कर्श देना जल्दबाजी हो सकती है। आपके द्वारा भेजे गये छायाचित्र में प्रतिमा के बांये हाथ में धारित वस्तु स्पष्ट दिखलाई पड़ रही है। यह वस्तु वृत्ताकार है और मध्य में गहरा है जो प्याले जैसा पात्र प्रतीत हो रहा है। दाहिना हाथ जैसा की मैने पूर्व में उल्लेख किया है अभय मुद्रा में होना चाहिए। जे. वोगेल ने अपनी कृति (Indian Serpent Lore or the Nagas in Hindu legend and art) में कुकरगम से प्राप्त ऐसी ही एक प्रतिमा का जिक्र किया है जिसका दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है और बांये हथेली में प्याला पकडे़ हुए है तथा पृश्ठभाग में सर्पफणों का छत्र है। उसे उन्होनें नागदेवता का मानुषी रूपाभिव्यक्ति माना है। इस प्रतिमा के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए जे. एन. बनर्जी (The Development of Hindu Iconography, 2002, p. 349) आगे लिखते हैं कि “The type in a modified form was similar to Baldeva, one of whose aspect is based on a trait of this primitive folk cult” ज्ञात रहे कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण में निर्दिश्ट अनंतनाग का प्रतिमालक्षण, बलराम के प्रतिमालक्षण से भी मेल खाता है। अंततः यही कहा जा सकता है कि यह बलराम अथवा नागदेवता की प्रतिमा हो सकती है। किंतु छठे सर्प की तार्किक व्याख्या का आधार अभी भी उपलब्ध नहीं हो सका है। एक छायाचित्र में प्रस्तर स्तंभ भी दिखलाई दे रहा है। प्रतिमा के इर्द-गिर्द बिखरे प्रस्तर खण्डों में जो छिद्र बने हैं वो गिट्टक (Iron Dowel) के प्रयोग की सूचना दे रहे हैं। इन स्थापत्य खण्डों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहाँ पर लगभग 10वीं-11वीं सदी ईस्वी में छिंदक नागवंशीयों के समय का मंदिर रहा होगा और उक्त प्रतिमा संभवतः गर्भगृह में स्थापित रही होगी।“
बस्तर की प्रतिमाओं के बहुत बारीक विष्लेशण की आवश्यकता है अन्यथा हम उनके निहितार्थ नहीं पकड़ सकेंगे। छठे नाग की तार्किक व्याख्या उपलब्ध न होने के बाद भी यह स्पष्ट है कि यह किसी नागदेवता की प्रतिमा हो सकती है, यह प्रतिमा बलराम की भी हो सकती है जिन्हें स्वयं शेषावतार कहा गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात जो सामने आती है कि यह प्रतिमा मंदिर के गर्भगृह में रही होगी। इस दृष्टिकोण से इसका महत्व अधिक बढ जाता है। इस प्रतिमा के आस-पास प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं जो इतिहास की विरासत हैं। बारसूर केवल बत्तीसा, चन्द्रादित्य मंदिर या कि गणेश प्रतिमा ही नहीं है यहाँ छिपा हुआ है कई हजार सालका इतिहास। हमारी हर गलत व्याख्या हमे सच्चाई से परे करती है और बस्तर उतना ही अबूझ होता जाता है। वर्तमान में यदि इंस क्षेत्रों में उत्खनन संभव न भी हों तो भी विषय-विशेषज्ञों को यहाँ आ कर एसी अनेक प्रतिमाओं की समुचित तथा तार्किक व्याख्या कर देनी चाहिये। सबसे महत्वपूर्ण बात कि यह असाधारण प्रतिमा है तथा इसका प्राथमिकता के साथ संरक्षण किये जाने की आवश्यकता है। स्थानीय प्रशासन से मेरी विनम्र अपील है कि इस प्रतिमा को तालाब के किनारे ही संरक्षित करने की व्यवस्था की जाये जिससे कि पर्यटकों के लिये इस प्रतिमा का आकर्षण बना रहे। यदि एसा करना संभव न हो तो इस प्रतिमा को यथाशीघ्र संग्रहालय में स्थानांतरित किया जाना चाहिये। पानी से इस प्रतिमा का तेजी से क्षरण हो रहा है और हमारी यह अमूल्य विरासत मिटती जा रही है।
2 comments:
Sundar aur gyaanwardhak aalekh. Is par aur charchaa aawashyak hai. Puraawidon kaa dhyaan is or jaanaa chaahiye aur sahii nishkarsh nikaale jaane chaahiye.
Shrimaan Yeh nishchit Jain parmpara ke 23 ve tirthankar Parshwanath hein. Jinke rakshak Yaksha Parshwa yaksha ganesh kee saman dikhte hein.
Post a Comment