दैनिक छत्तीसगढ में 14.08.2013 को प्रकाशित |
आंत्रशोध, अबूझमाड़ और दो व्यवस्थायें
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अबूझमाड़ में आंत्रशोध
से हो रही मौतों पर किससे प्रश्न किया जाये? क्या इस व्यवस्था से जिसने तीन दशक
पहले ही अबूझ जमीन का लाल सलाम कर दिया अथवा उस व्यवस्था से जो क्रांति का
झुन्झुना बजाते अपना सिर छुपाने के लिये तम्बू मे घुसी थी और अंतत: तम्बू का मालिक
ही बेदखल कर दिया गया? लगातार बस्तर के इस दुर्गम क्षेत्र में आंत्रशोध से होने
वाली मौतों की खबरें आ रही हैं। यह आंकडा जितना सामने आया है उससे कई गुना अधिक हो
सकता है लेकिन दुर्भाग्य यह कि हर ओर केवल मूक दर्शक ही प्रतीत हो रहे हैं। जिन
क्षेत्रों में यह बीमारी घर कर गयी है वे विशुद्ध माओवादी आधार इलाके अथवा लाल-आतंकवाद
प्रभावित क्षेत्र हैं। समस्या यह है कि आदिवासियों को बन्दूखों के रहमोकरम पर नहीं
छोडा जा सकता और किसी भी कीमत पर प्रशासन का भीतर पहुँचना एक दायित्व है जो आसान
नहीं है। कौन जाये भीतर और कैसे जाया जाये? सत्तर के दशक में तत्कालीन कलेक्टर
ब्रम्हदेव शर्मा का अबूझमाड़ को मानव संग्रहालय बना कर शेष बस्तर से अलग-थलग कर
देने का फैसला तथा उनके ही द्वारा इन क्षेत्रों में सड्क निर्माण की योजनाओं को
ठंडे बस्ते में डाल देना, आज अपने दुष्परिणाम दिखा रहा है। यह प्राथमिक कारण है कि
कैसे बस्तर में माओवाद के अपनी जडें गहरी कीं। बस्तर के संदर्भ में बहुत समय तक इन
विषयों पर बहस हुई है कि सड़क क्यों नहीं बनने दी जा रही, स्कूल किस लिये तोड़ दिये
गये, पंचायत भवन क्यों उडा दिये गये, अस्पतालों में डॉक्टर क्यों नहीं पहुँचते आदि
आदि। बहुत से तर्क-वितर्क भी सामने आये हैं जिनमे सुरक्षाबलों और नक्सलियों के
द्वन्द्व को बहाना बना कर इन कारकों को सही ठहराने की कोशिश की जाती रही है। इधर
इन्द्रावती तथा गोदावरी में बाढ के हालात हैं, शबरी खतरे के निशान पर है साथ ही
साथ इन सरिताओं के सहायक नदियाँ-नाले भी उफान पर हैं। जो क्षेत्र मुख्य अथवा
सहायक सड़कों के किनारे हैं उनतक तो प्रशासन अथवा चिकित्सा दल किसी तरह पहुँच सकता
है किंतु उन स्थलों का क्या जहाँ सडकों को बनने ही नहीं दिया गया, जहाँ अस्पतालों
को साँस लेने ही नहीं दिया गया और जहाँ के जनजीवन को घेर कर अलग थलग कर दिया गया
है चूंकि एसा तथाकथित क्रांति को जीवित रखने के लिये आवश्यक था?
आज हालात यह हैं कि
भैरमगढ ब्लॉक के माड़ इलाके में उनत्तीस मौते उलटी और दस्त के कारण हो चुकी हैं
जबकि अनेक आदिवासी जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे हैं। ये तो बहुत छन कर सामने आयी
जानकारियाँ हैं चूंकि इन्द्रावती नदी में आयी बाढ के कारण स्वास्थ्य अमला उन
क्षेत्रों में नहीं पहुँच पाया है जहाँ आंत्रशोध की विभीषिका सर्वाधिक है यद्यपि
यहाँ से निकटतम क्षेत्र कालेर के प्राथमिक स्कूल में स्वास्थ्य कैम्प अवश्य लगाया
जा सका है। अबूझमाड़ के दूसरे प्रवेशद्वार नारायणपुर के निकट ओरछा के सामुदायिक
स्वास्थ्य केन्द्र में ही बेहतर इलाज संभव हो पा रहा है अन्यथा तो आवागमन की
बुनियादी सुविधा भी उपलब्ध न होने के कारण मौतों का आंकडा बढता जा रहा है।
स्वास्थ्य टीमों को भीतर जाने के निर्देश दे दिये गये हैं लेकिन प्रश्न यह है कि
किस पहुँच मार्ग से?
अब बात दो
व्यवस्थाओं के बीच पिसते आदिवासियों की कर लेते हैं। नक्सलियों के पास बन्दूखें
चाहे कितनी भी आधुनिक हों लेकिन चिकित्सक न के बराबर हैं। जो चिकित्सा व्यवस्था
उनके पास उपलब्ध भी है वह किसी महामारी से लडने में कदाचित सहायक नहीं हो सकती।
समस्या दूसरी ओर भी है कि चिकित्सा अधिकारी खुद को संगीनों के सामने खडा कर के तो
अपनी सेवायें प्रदान नहीं कर सकते। सामान्य परिस्थितियों में तो इन बाढ प्रभावित
इलाकों में किसी न किसी तरह सेवायें पहुँचाई भी जा सकती थी लेकिन आप आपने
चिकित्सकों को उस युद्ध भूमि में कैसे भेज सकते हैं जहाँ कोई कदम लैंडमाईन पर पड
सकता है या कार्य करने पर वे बंधक भी बनाये जा सकते हैं, मुखबिर बता कर मार डाले
जा सकते हैं? एसा कह कर मैं प्रशासन के लिये सेफ पैसेज नहीं बनाना चाहता, प्रशासन
को किसी भी तरह इन अबूझ आदिवासी क्षेत्रों में पहुँचना ही होगा। यद्यपि मेरा
प्रश्न बस्तर में कार्य करने का तमगा लगा कर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले स्वनामधन्य
डॉक्टरों से भी है कि एसे समय में आप किन सेमीनारों, जुलूस-जलसों में व्यस्त हैं
भाई? वे माओवादियों के मध्यस्त लोग कहाँ हैं जिनकी आवश्यकता है अभी, वे ही बीमार
और दवा के बीच की मध्यस्तता भी कर लें? महामारी से लडने के पश्चात फिर से लाल-पीला
सलाम होता रहेगा?
हमें यह स्मरण रखना
चाहिये कि अबूझमाड़ भारत का विशिष्ठ क्षेत्र है जहाँ आज भी वे आदिवासी जनजातियाँ
विद्यमान हैं जिनकी जीवन शैली तक में प्रागैतिहासिक अतीत के चिन्ह देखे जा सकते
हैं। ये वास्तविक मूल निवासी हमेशा ही संघर्ष करने वाली जीवित कौम रही है तथा अपनी
नैसर्गिकता और विरासत को समेटे हुए भी इन्होंने लगभग सत्तर के दशक तक मुख्यधारा से
स्वयं को जोडे रखा था। यह तो हमारे नीति-निर्धारकों की अदूरदर्शिता का नतीजा है जो
आदिवासी संस्कृति संरक्षण के नाम पर यहाँ जीवित मानव-संग्रहालयों का निर्माण कर
गये। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि अबूझमाडिया नारायणपुर, दंतेवाडा या कि
जगदलपुर से भी कट गया। माओवादियों के लिये अबूझमाडिया एक ढाल थे और पिछले तीन
दशकों से वे ढाल ही बने हुए हैं। सामूहिक जीवन जीने वाले, सामूहिक खेती करने वाले,
सामूहिक शिकार करने वाले तथा एक समान जीवन स्तर वालों के बीच किस साम्यवाद की स्थापना
हो रही है, क्या कोई बता सकता है? यहाँ केवल बंदूख बोई जा रही है और उसी की फसल
काटी जा रही है। इस गलतफहमी में भी रहने की आवश्यकता नहीं कि माओवादी दखल के बाद
तीन दशकों ने आदिवासी जीवन मे ही कोई क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है अपितु वे
लगभग सौ साल और पीछे खदेड़ दिये गये हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण आंत्रशोध फैलने के बाद
उत्पन्न हुई परिस्थितियाँ हैं।
पीपली लाईव एक
कालजयी फिल्म है जिसने मीडिया की कार्यशैली को उसकी नग्नता के साथ दिखाया है।
नक्सली हत्याओं पर रात दिन डेरा जमा कर लाईव-कैमरा लिये घूमने वाले पत्रकारों की
इन विकट परिस्थितियों के क्या बिजली सप्लाई रुक जाती है अथवा फोकस बिगड़ जाता है?
अगर माओवादी परचे और गुडसा उसेंडी की प्रेसवार्ताओं को ही सम्पादकीय पन्नों पर
छापने के लिये अखबार हैं तो स्वाभाविक ही है कि अबूझमाड़ की इस पीडा पर खामोशी बनी
रहेगी। कुछ सौ-पचास जाने और चली जायेंगी और इससे भला किसको फर्क पड़ जाने वाला है?
अबूझमाड़ तक यथासंभव चिकित्सा सहायता तथा प्रभावित परिवारों तक मदद पहुँचाये जाने
की आवश्यकता है। माओवादियों को भी इस समय मानवता दिखानी चाहिये तथा कोशिश होनी
चाहिये कि प्रभावित ग्रामीणों को निकटतम चिकित्सा केन्द्रों में लाया जा सके।
सडकों के अभाव में 108 एम्बुक्लेंस आदि यहाँ किसी काम की सिद्ध नहीं हो सकती, उसपर
प्राकृतिक अवरोध तथा जल-प्लावन की स्थितियाँ भी बाधक बनी हुई हैं। यदि संचार
माध्यम अबूझमाड़ की इन परिस्थितियों को बडी खबर मानेंगे तभी एक दबाव दोनो ही
व्यवस्थाओं पर निर्मित हो सकता है तथा इस महामारी से अबूझमाडिया साथियों की जान
बचाई जा सकती है।
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