जब मैं स्कूल में था उन दिनो बचेली नगर के लिये आकाशनगर एसा ही था
जैसे कि देहरादून के लिये मसूरी। मैदानी नगर से लग कर अचानक उँचाई लेती हुई दो
समानांतर पहाडियाँ जिनके बीचोबीच विभाजनकारी रेखा की तरह बहता है गली नाला। यह
बैलाडिला पर्वत श्रंखला है जो स्वयं में समाहित विश्व के सर्वश्रेष्ठ स्तर के लौह
अयस्क के लिये जानी जाती है। यही वह पर्वत श्रंखला है जिसके लिये एक समय में जमशेद
जी टाटा ने रुचि दिखाई थी तथा सर्वप्रथम उनके भूवैज्ञानिक पी एन बोस ने प्राथमिक
सर्वे पूरा किया था। जैसे ही इस लौह-अयस्क की जानकारी तत्कालीन अग्रेजी शासकों को
मिली तुरंत ही भूवैज्ञानिक क्रूकशैंक के नेतृत्व में इस क्षेत्र का भारतीय
भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग ने विस्तृत सर्वे किया और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
इस रिपोर्ट के अनुसार लौह के चौदह भण्डारों को चिन्हित किया गया। बस्तर अचानक एक
अत्यंत गरीब से बेहद अमीर रियासत हो गयी तथा यहाँ के शासकों पर दबाव बनाया जाने
लगा कि बैलाडिला पर्वत श्रंखलाओं वाले क्षेत्र को हैदराबाद के निजाम को सौंप दिया
जाये। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनथिनगो ने तब बस्तर की शासिका रही महारानी
प्रफुल्ल कुमारी देवी से इस सम्बन्ध में मुलाकात भी की थी। कहते हैं महारानी अपने
पति प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव से प्रभावित थी जो कि राष्ट्रीयता की भावना से भरे हुए
थे, उनकी ही सलाह पर महारानी ने बैलाडिला पर अपनी असहमति जाहिर कर दी थी। एक
प्रचलित मान्यता के अनुसार महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की मौत स्वाभाविक नहीं थी
अपितु उनकी हत्या अंग्रेजों के द्वारा बैलाड़िला को हथियाने की दृष्टि से की गयी
थी। बाद में यही दबाव प्रवीर पर भी बनाया जाने लगा और स्वतंत्रता प्राप्ति के एन
पहले प्रवीर को सभी राज्याधिकार केवल इसी लिये प्रदान किये गये थे जिससे कि वे निजाम
के हाथों इन खदानो वाले क्षेत्रों को सौंप सकें। यह प्रवीर की समझ थी कि उन्होंने
एसा नहीं किया यद्यपि खदानों के कुछ हिस्सों को वे सशर्त लीज पर निजाम को देने के
लिये तैयार हो गये थे। यह सारी रस्साकशी केवल इसलिये हो रही थी चूंकि हैदराबाद का
निजाम स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय संघ में नहीं रहना चाहता था और एक
स्वतंत्र देश की संकल्पना कर रहा था। बैलाडिला की इन खदानों पर भारत सरकार द्वारा
वर्ष 1968 से कार्यारंभ किया गया। वैसे इतिहास मे रुचि रखने वालों के लिये यह
जानकारी महत्व की हो सकती है कि यहाँ से लौह उत्खनन पहली बार नहीं किया गया अपितु 1065
ई में चोलवंश के राजा कुलुतुन्द ने यहाँ लोहे को गला कर अस्त्र शस्त्र बनाने का
कारखाना लगाया था। यहाँ बने हथियारों को तंजाउर भेजा जाता था।
बस्तर क्षेत्र में आज यही एक मात्र ऑरगेनाईज्ड माईनिंग है इसके अलावा
किसी भी खदान में कोई काम नहीं हो रहा। असंगठित खदानों के रूप में ग्रेनाईट और
लाईमस्टोन क्रशिंग और माईनिंग कई स्थानों पर सक्रिय है। संभावित खदानों में रावघाट
परियोजना हो सकती है जिसका भविष्य अधर में ही लटका हुआ है। केरल राज्य से भी बडे
इस संभाग में इससे अधिक कोई माईनिग कहीं भी नहीं हो रही है यद्यपि यहाँ खनिजों के
अपार भण्डार उपस्थित हैं। तोकापाल के पास ही एक बडे किम्बरलाईट पाईप को खोजा गया
था जहाँ से हीरे उत्खनित करने की अभी कोई योजना नहीं है। हालाकि सारी बहसें जो
दिल्ली में बैठ कर बस्तर के नाम पर हो रही हैं वे खदानों को ही केन्द्र में रख कर
हो रही हैं। कभी कभी मैं दिल्ली के अखबार पढ कर हँसता हूँ कि क्या समाचार बिना
जमीनी जानकारी के लिखे अथवा तैयार किये जाते हैं? बैलाडिला खदानो के अपने फायदे और
नुकसान हैं साथ ही अन्य खदाने अगर अस्तित्व में आयीं निश्चित ही उनके अपने फायदे-नुकसान
सन्निहित होंगे। तथापि दक्षिण बस्तर में एसा कोई परियोजना मेरी जानकारी में नहीं
है जिसके हाल में अस्तित्व में आने की संभावना भी दूर दूर तक है। रावघाट पहाडियों
से भी उत्खनन इतनी आसानी से संभव हो सकेगा मुझे नहीं लगता।
आज इस लेख में मेरा
उद्देश्य बस्तर के खनिजों को ले कर कोई बहस खडी करने का नहीं है। इस पर तथ्यों के
साथ विस्तृत परिचर्चा फिर कभी। आज बात उजडे आकाश नगर की। यह पूरा नगर अब बचेली ला
कर बसा दिया गया है। कभी घुमावदार सड़कों से हो कर आकाश नगर पहुँचने का आनंद और
उसकी नैसर्गिकता ही अब समाप्त नहीं हो गयी अपितु लाल-आतंक के साये में यह पूरा
इलाका गहरी गहरी सांस लेता प्रतीत होता है। आकाश नगर में मुट्ठी भर सिपाही सुरक्षा
के नाम पर तैनात हैं लेकिन उन्हें सारा जोर स्वयं को ही सुरक्षित रखने पर लगाना
होता है। वह आकाश नगर जो मानसून आते ही बादलों के स्पर्श से मुस्कुराता था आज
खामोशी और दहशत यहाँ की पीड़ा है। जिन रास्तों से हो कर कभी हम एतिहासिक राजा बंगला
जाते थे वहाँ कदम रखने की भी अघोषित मनाही है, किस कदम पर क्या हो जाये कहा नहीं
जा सकता। ऊँचाई पर खडा हो कर मैं देख रहा था एक ओर घना जंगल जिसके भीतर भीतर आ घुसा
नक्सलगढ। दूर दूर तक दिखने वाला एक व्यक्ति भी नहीं। कहीं कोई जिन्दादिली नहीं।
हवा भी सहम कर कहती है कि यहाँ कहाँ आ गये पागल!! जल्दी निकलो यहाँ से।
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