Sunday, July 16, 2017

शरणागत राजा और राजगुरु (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 28)


जीवन के अंतिम दिनों में राजा दिक्पालदेव, अपने पुत्र राजपालदेव (1709 – 1721 ई.) को राजसिंहासन पर बिठा कर सार्वजनिक जीवन से अलग हो गये थे। राजा राजपाल देव के समय के बस्तर को शक्तिशाली कहा जा सकता है। महंत घासी दास स्मारक, रायपुर रखे गये एक ताम्रपत्र में उल्लेख है कि “स्वस्ति श्री वसतरमहानगरे शुभस्थाने महाराजप्रौढ प्रताप चक्रवर्ती श्री राजपाल देव महाराज गोसाईं श्री मानकेश्वरी”। इस ताम्रपत्र से तीन मुख्य अर्थ निकाले जा सकते हैं पहला कि बस्तर की राजधानी में नगरीय व्यवस्था ने स्वरूप लेना आरम्भ कर दिया था, दूसरा कि राजपाल देव स्वयं चक्रवर्ती की उपाधि धारण करते थे तथा तीसरा यह कि राजा मणीकेश्वरी देवी के अनन्य उपासक एवं पुजारी थे। ये स्थितियाँ राज्य की सम्पन्नता का परिचायक हैं सम्भवत: इसी लिये उस दौर में दक्षिण राज्यों में से एक महाशक्ति गोलकुण्डा की दृष्टि बस्तर पर पड़ गयी। 

यह राजा राजपाल देव का ही शासन समय था गोलकुण्डा राज्य के कुतुबशाही वंश के सुलतान ने बस्तर पर हमला बोल दिया था। पुस्तक - लौहण्डीगुडा तरंगिणी (1963) जिसके लेखक महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव हैं, में बस्तर के इतिहास की व्यापक झलकियाँ मिलती हैं। इसी कृति में उल्लेख है कि जब कुतुबशाही सेनाओं ने हमले किया उस समय राजा राजपाल देव, राजधानी में नहीं थे। खतरे को भाँप कर रानी रुद्रकुँवरि ने महल से भाग कर एक ब्राह्मण के घर शरण ली। इस समय वे गर्भवती थीं। शरण प्रदान करने वाले ब्राह्मण की कुटिया में ही उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जिसे दलपत देव के नाम से जाना गया। लूट-खसोट के बाद आक्रमण करने वाले लौट गये। राजा राजपाल देव जब लौटे तो राजधानी की दशा देख कर स्तब्ध रह गये। यद्यपि उन्हें यह जान कर प्रसन्नता हुई कि रानी और राजकुमार सकुशल हैं। वह ब्राह्मण जिसने दोनों की रक्षा की थी, उसे राज्य का राजगुरु नियुक्त किया गया था। इस संदर्भ से एक और बात स्पष्ट है कि गोलकुण्डा से आयी सेनाओं ने आगे बढते हुए बस्तर अंचक की भौगोलिक परिस्थितियों को समझ लिया था तथा वे जान गये थे यदि देर तक इस क्षेत्र में वे रुके तो घेर लिये जायेंगे। उन्होंने केवल लूट-पाट कर वापस लौट जाना श्रेयस्कर समझा।  

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