Monday, July 03, 2017

तूम्बा, पालनार और धरती की उत्पत्ति कथा (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 15)


बस्तर में प्रचलित मान्यता तूम्बे को संसार की उत्पत्ति के साथ जोड़ती है। कहा जाता है कि जब कुछ भी कहीं नहीं था तब भी तूम्बा था। बस्तर का पालनार गाँव वह स्थल है जहाँ से धरती के उत्पन्न होने की जनजातीय संकल्पना जुड़ती है। सर्वत्र पानी ही पानी था बस एक तूम्बा पानी के उपर तैर रहा था। इस तूम्बे में आदिपुरुष, डड्डे बुरका कवासी, अपनी पत्नी के साथ बैठे हुए थे। तभी कहीं से भीमादेव अर्थात कृषि के देवता प्रकट हुए और हल चलाने लगे। जहाँ जहाँ वह नागर (हल) चलाते वहाँ वहाँ से धरती प्रकट होने लगती। जब दुनिया की आवश्यकता जितनी धरती बन गयी तब भीमादेव ने हल चलाना बंद कर दिया। अब उन्होंने पहली बार धरती पर अनाज, पेड़-पौधे, लता-फूल, जड़ी -बूटियाँ, घास-फूस उगा दिये। जहाँ मिट्टी हल चलाने से खूब उपर उठ गयी थी, वहाँ पहाड़ बन गये। इसके बाद डड्डे बुरका कवासी ने धरती पर अपनी गृहस्थी चलाई। उनको दस पुत्र और दस पुत्रियाँ हुईं। इस तरह दस गोत्र – मड़कामी, मिड़ियामी, माड़वी, मुचाकी, कवासी, कुंजामी, कच्चिन, चिच्चोंड़, लेकामी और पुन्नेम बन गये  (बस्तर-इतिहास एवं संस्कृति, लाला जगदलपुरी)। इन्ही गोत्रों ने सम्मुलित रूप से पूरी सृष्टि ने निर्माण व संचालन में सहयोग दिया। यही कारण है कि आदिवासी समाज बहुत आदर और सम्मान के साथ तूम्बे को अपने साथ रखता है। एक भतरी कहावत है कि ‘तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी’ अर्थात तूम्बा का फूटना सही नहीं माना जाता है।

- राजीव रंजन प्रसाद 

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