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राजपथ पर गुण्डाधुर को देखना कोई साधारण घटना नहीं थी। भव्य गणतंत्र दिवस समारोह में महामहिम राष्ट्रपति सलामी ले रहे थे और उनके सामने से गुजर रही थी छत्तीसगढ की वह झांकी जिसमें वर्ष 1910 की बस्तर में हुई आदिवासी क्रांति – भूमकाल को प्रदर्शित किया गया था। झांकी के केन्द्र में महान आदिवासी नायक गुण्डाधुर थे जिनके एक कंधे पर तीर तथा दूसरे हाथ डालामिरी अर्थात आम की डाम और लाल मिर्च पकड़ाई गयी थी जो कि तत्कालीन क्रांति का प्रतीक चिन्ह थी। डालामिरी को तब गाँव गाँव घुमाया गया था जिसे स्वीकार करने वाले वस्तुत: उस विद्रोह में शामिल होने की समहति देते थे जो फरवरी 1910 को योजना बद्ध रूप से अचानक फैला और उसने ब्रिटिश प्रशासन को लगभग खदेड़ कर कुछ दिनों तक एक बडे क्षेत्र में मुरियाराज स्थापित करने में सफलता पायी थी। यह कहना आवश्यक हो जाता है कि गुण्डाधुर को आज भारत के ज्ञात आदिवासी नायकों के बीच जो स्थान मिलना चाहिये था वह अभी तक अप्राप्य है।
छत्तीसगढ सरकार की झांकी ने गुण्डाधुर को राजपथ तक पहुँचा कर इस नायक को उसका वास्तविक सम्मान दिलाने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है। मैं इस अद्भुत झांकी का पूरा श्रेय छत्तीसगढ के उन अधिकारियों को देना चाहता हूँ जिन्होंने गुण्डाधुर को इस तरह जीवंत करने का विचार किया। उन कलाकारों की भूरि भूरि प्रसंशा करना चाहता हूँ जिन्होंने अपनी संकल्पना से एक गुमनाम नायक को मूर्त रूप दिया। गुण्डाधुर और 1910 की आदिवासी क्रांति पर यह केवल झाँकी भर नहीं है बस्तर और बस्तरियों का सम्मान भी है। सुकून है कि बहुत थोडा योगदान इस झांकी की संकल्पना में मेरा भी है। मेरी दोनो पुस्तकें ‘आमचो बस्तर’ तथा ‘बस्तर के जननायक” से गुण्डाधुर के संदर्भ सम्बन्धित अधिकारियों ने प्राप्त किये साथ ही साथ पुस्तक लेखन के समय मैने जहाँ जहाँ से सम्बन्धित उद्धरण प्राप्त किये थे, अंग्रेजों के समय के गजट, रिपोर्त, पत्र आदि के संदर्भ भी मैने मुझसे संपर्क कर रहे अधिकारियों को उपलब्ध कराये थे।
यह सही है कि गुण्डाधुर पर आज भी बहस जारी है। अंग्रेज कालीन जो भी दस्तावेज उपलब्ध हैं सभी गुण्डाधुर के होने की तस्दीक तो करते हैं किंतु वह कैसा था, वह रहस्यमय तरीके से गायब कैसे हो गया आदि आदि तथ्यों की पुष्टि नहीं हो पाती। जब कहानी का दूसरा सिरा न मिले तो तरह तरह की थ्योरियाँ जन्म लेती है जिसमे से एक के अनुसार राजपरिवार के सदस्य तथा राजा के सौतेले भाई लालकालेन्द्र सिंह भी गुण्डाधुर हो सकते हैं। जगदलपुर में आज भी खडा इमली का पेड उस याद को ताजा करता है जब गुण्डाधुर के साथी रहे डेबरीधुर और माड़िया माझी को भूमकाल (आदिवासी क्रांति) की समाप्ति पर यहाँ सरे-आम फाँसी दी गयी थी। सच तो यह है कि गुण्डाधुर आज भी बस्तर के आदिवासियों का जननायक है यह अलग बात है कि स्वयं को मुख्यधारा कहने वाली दुनियाँ इन कहानियों की अनपढ है।
अपनी गुमनामी के सौ साल से अधिक बीत जाने के पश्चात राजपथ से गुजरने वाले गुण्डाधुर पर आज चर्चाओं को पुनर्जीवित करना अवश्यम्भावी हो जाता है। बात 1910 की है; अंग्रेजी प्रशासन निरंतर हावी होता जा रहा था जिसके दबाव में भांति भांति के वन कानून लागू किये जा रहे थे जो आदिवासी असंतोष को उकसा रहे थे। बस्तर राजपरिवार के भीतर भी फूट पडी हुई थी और उसका एक धडा भी आदिवासियों के साथ उस भूमकाल का हिस्सा बन गया जिसका उद्देश्य एसी क्रांति था जिसके द्वारा मुरियाराज की स्थापना की जाये। गुण्डाधुर को वर्ष-1910 की जनवरी में ताड़ोकी की एक जनसभा में लाल कालिन्द्र सिंह की उद्घोषणा के द्वारा सर्वमान्य नेता चुना गया (फॉरेन डिपार्टमेंट सीक्रेट, १.०८.१९११)। इसके साथ ही गुण्डाधुर ने अपने भीतर छिपी अद्भुत संगठन क्षमता का परिचय दिया और उसने सम्पूर्ण रियासत की यात्रा की। वह एक घोटुल से दूसरे घोटुल भूमकाल का संदेश प्रसारित करता घूमता रहा। डेबरीधूर उत्साही युवकों का संगठन तैयार करने में लग गया था। इतनी बड़ी योजना पर खामोशी से अमल हो रहा था। इसके पीछे गुण्डाधुर और लाल कालिन्द्रसिंह, दोनों का ही बेहतरीन नेतृत्व कार्य कर रहा था। 'आदिवासी और गैर-आदिवासी' जैसे शब्द मायनाहीन हो गये और "बाहरी" शब्द की परिभाषा ने स्पष्टाकार ले लिया। बाहरी अर्थात अंग्रेज, अंग्रेज अधिकारी, दीवान पण्डा बैजनाथ, पुलिस, डाक कर्मचारी, अध्यापक, मिशनरी। जन-जन तक उसकी अविश्वसनीय तरीके से पहुँच ने किंवदंती प्रसारित कर दी कि गुण्डाधुर को उड़ने की शक्ति प्राप्त है। गुण्डाधुर के पास पूँछ है। वह जादुई शक्तियों का स्वामी है। जब भूमकाल शुरु होगा और अंग्रेज बंदूक चलायेंगे तो गुण्डाधुर अपने मंतर से गोली को पानी बना देगा। आज यह बात आश्चर्य से भर देती है कि तब संचार के उन्नत साधन नहीं थे तब भी डालामिरी संकेत के साथ ही गुण्धाधुर ने इसतरह से भूमकाल आन्दोलन को जोडा था कि ठीक 2 फरवरी 1910 को एक साथ एक ही समय पर पूरी रियासत में विद्रोह प्रारम्भ हो गया और फिर देखते ही देखते इन्द्रावती नदी घाटी के अधिकांश हिस्सों पर दस दिनों में मुरियाराज का परचम बुलन्द हो गया।
तिथिवार भूमकाल को इस तरह समझा जा सकता है - "२५ जनवरी को यह तय हुआ कि विद्रोह करना है और २ फरवरी १९१० को पुसपाल बाजार की लूट से विद्रोह आरंभ हो गया। इस प्रकार केवल आठ दिनों में गुण्डाधुर और उसके साथियों ने इतना बड़ा संघर्ष प्रारंभ कर के एक चमत्कार कर दिखलाया। ७ फरवरी १९१० को बस्तर के तत्कालीन राजा रुद्रप्रताप देव ने सेंट्रल प्राविंस के चीफ कमिश्नर को तार भेज करविद्रोह प्रारंभ होने और तत्काल सहायता भेजने की माँग की। (स्टैण्डन की रिपोर्ट, २९.०३.१९१०)। विद्रोह इतना प्रबल था कि उसे दबाने के लिये सेंट्रल प्रोविंस के २०० सिपाही, मद्रास प्रेसिडेंसी के १५० सिपाही, पंजाब बटालियन के १७० सिपाही भेजे गये (फ़ॉरेन डिपार्टमेंट फाईल, १९११)। १६ फरवरी से ३ मई १९१० तक ये टुकड़ियाँ विद्रोह के दमन में लगी रहीं। ये ७५ दिन बस्तर के विद्रोही आदिवासियों के लिये तो भारी थे ही, जन साधारण को भी दमन का शिकार होना पड़ा। अंग्रेज टुकड़ी विद्रोह दबाने के लिये आयी, उसने सबसे पहला लक्ष्य जगदलपुर को घेरे से मुक्ति दिलाना निर्धारित किया। नेतानार के आसपास के ६५ गाँवों से आये बलवाइयों के शिविर को २६ फरवरी को प्रात: ४:४५ बजे घेरा गया; ५११ आदिवासी पकड़े गये जिन्हें बेंतों की सजा दी गयी (फ़ॉरेन डिपार्टमेंट फाईल, १९११)। नेतानार के पास स्थित अलनार के वन में हुए २६ मार्च के संघर्ष में २१ आदिवासी मारे गये। यहाँ आदिवासियों ने अंग्रेजी टुकड़ी पर इतने तीर चलाये कि सुबह देखा तो चारो ओर तीर ही तीर नज़र आये (फ़ॉरेन डिपार्टमेंट फाईल, १९११)। अलनार की इस लड़ाई के दौरान ही आदिवासियों ने अपने जननायक गुण्डाधुर को युद्ध क्षेत्र से हटा दिया, जिससे वह जीवित रह सके और भविष्य में पुन: विद्रोह का संगठन कर सके। ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि १९१२ के आसपास फिर सांकेतिक भाषा में संघर्ष के लिये तैयार करने का प्रयास किया गया (एंवल एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट ऑफ बस्तर फ़ोर द ईयर १९१२)। उल्लेखनीय है कि १९१० के विद्रोही नेताओं में गुण्डाधुर ही न तो मारा जा सका और न अंग्रेजों की पकड़ में आया। गुण्डाधुर के बारे में अंग्रेजी फाईल इस टिप्पणी के साथ बंद हो गयी कि "कोई यह बताने में समर्थ नहीं है कि गुण्डाधुर कौन था? कुछ के अनुसार पुचल परजा और कुछ के अनुसार कालिन्द्र सिंह ही गुण्डाधुर थे (फॉरेन पॉलिटिकल सीक्रेट, १.०८.१९१०) बस्तर का यह जन नायक अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण इतिहास में सदैव महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता रहेगा"।
पूरे आन्दोलन को समग्रता से देखा जाये तो नेतानार का एक साधारण धुरवा आदिवासी अद्धभुत संगठनकर्ता सिद्ध हुआ था। भूमकाल एक बहुत बडा आन्दोलन था जिसने अनेक पक्षों पर विस्तार से किसी एक लेख में बात करना संभव नहीं है। यह समझने की अवश्य कोशिश की जा सकती है कि भूमकाल का अंतत: दमन कैसे हुआ। कहते हैं कि कोण्टा से ले कर कोण्डागाँव तक लड़ी गयी हर बड़ी लड़ाई में गुण्डाधुर स्वयं उपस्थित था। यहाँ तक कि सीधी लडाई में असफल हो रहे अंग्रेजों को इस विद्रोह का दमन करने के लिये षडयंत्र का रास्ता लेना पडा जब अंग्रेज अधिकारी गेयर और दि ब्रेट के साथ सेना की एक टुकडी जगदलपुर पहुँच गयी थी तब तक आदिवासी विद्रोही संख्या और ताकत में अधिक थे। समझौते का बहाना बना कर और आदिवासियों के सामने खुद मिट्टी की सौगंध खा कर गेयर ने मनोवैज्ञानिक अस्त्र साधा था। उसने आदिम समूहों को भी मिट्टी की कसम उठाने के किये बाध्य कर दिया कि जब तक बातचीत की प्रक्रिया चलेगी, विद्रोही आक्रमण नहीं करेंगे। यह चालाकी केवल समय गुजारने भर की थी जिससे कि बहु प्रतीक्षित पंजाबी बटालियन सहित जबलपुर, विजगापट्टनम, जैपोर और नागपुर से भी २५ फरवरी 1910 तक सशस्त्र सेनायें जगदलपुर पहुँच सकें। जैसे ही अंग्रेज शक्ति सम्पन्न हुए तुरंत ही राजधानी से विद्रोहियों को खदेडने की कार्यवाही प्रारंभ कर दी गयी। अब सरकारी सेना आगे बढ़ती जा रही थी और विद्रोही जगदलपुर से खदेड़े जा रहे थे। कई विद्रोही गिरफ्तार कर लिये गये और कई बस्तर की माटी के लिये शहीद हो गये।
२५ मार्च २०१०; उलनार भाठा के निकट सरकारी सेना का पड़ाव था। गुण्डाधुर को जानकारी दी गयी कि गेयर भी उलनार के इस कैम्प में ठहरा हुआ है। डेबरीधुर, सोनू माझी, मुस्मी हड़मा, मुण्डी कलार, धानू धाकड, बुधरू, बुटलू जैसे राज्य के कोने कोने से आये गुण्डाधुर के विश्वस्त क्रांतिकारी साथियों ने अचानक हमला करने की योजना बनायी। विद्रोहियों ने भीषण आक्रमण किया। गेयर के होश उड़ गये। एक घंटे भी सरकारी सेना विद्रोहियों के सामने नहीं टिक सकी और भाग खड़ी हुई। उलनार भाठा पर अब गुण्डाधुर के विजयी वीर अपने हथियारों को लहराते उत्सव मना रहे थे। नगाडों ने आसमान गुंजायित कर दिया। मुरियाराज की कल्पना ने फिर पंख पहन लिये थे।
इस विजयोन्माद में सबसे प्रसन्न गुण्डाधुर का एक साथी सोनू माझी लग रहा था। कोई संदेह भी नहीं कर सकता था कि वह अंग्रेजों से मिल गया है। महीने भर बाद मिली इस बड़ी जीत से सभी विद्रोही उत्साहित थे। सोनू माझी ने स्वयं आगे बढ़ बढ़ कर शराब परोसी। सभी ने छक कर शराब और लाँदा पिया। जब निद्रा और नशा विद्रोही दल पर हावी होने लगा तब सोनू माझी दबे पाँव बाहर निकला। वह जानता था कि इस समय गेयर कहाँ हो सकता है। उलनार से लगभग तीन किलोमीटर दूर एक खुली सी जगह पर गेयर सैन्यदल को एकत्रित करने में लगा था। सोनू माझी के यह बताते ही कि विद्रोही इस समय अचेत अवस्था में हैं तथा यही उनपर आक्रमण करने का सही समय है, गेयर को अपनी कायरता दिखाने का भरपूर मौका मिल गया। गेयर ने संगठित आक्रमण किया। गोलियों की आवाज ने अचेत गुण्डाधुर में चेतना का संचार किया। वह सँभला और आवाज़ें दे-दे कर विद्रोहीदल को सचेत करने लगा। नशा हर एक पर हावी था। कुछ अर्ध-अचेत विद्रोहियों में हलचल हुई भी किंतु उनमें धनुष बाण को उठाने की ताकत शेष नहीं थी। हर बीतते पल के साथ गेयर के सैनिक कदमताल करते हुए नज़दीक आ रहे थे। कहते हैं कि इस परिस्थिति को समझ कर गुण्डाधुर ने कमर में अपनी तलवार खोंसी और भारी मन तथा कदमों से घने जंगलों की ओर बढ़ गया। वह जानता था कि उसके पकड़े जाने से यह महान भूमकाल समाप्त हो जायेगा। अभी उम्मीद तो शेष है। कोई विरोध या प्रत्याक्रमण न होने के बाद भी क्रोध से भरे गेयर ने देखते ही गोली मार देने के आदेश दिये थे। सुबह इक्क्सीस लाशें माटी में शहीद होने के गर्व के साथ पड़ी हुई थी।
छत्तीसगढ सरकार की झांकी वास्तव में गुण्डाधुर पर नयी बहस की शुरुआत बन सकती है। राजपथ पर गुण्डाधुर का सौ साल बाद लाया जाना एक आरम्भ होना चाहिये जहाँ से हम कोशिश करें कि आदिवासी नायक को उसका वस्तविक सम्मान मिल सके जो तीस से अधिक जनजातियों का ही नहीं अपितु गैर आदिवासियों का भी सर्वमान्य नायक था। जिसके प्रभाव का दायरा एक पूरी रियासत थी जो वर्तमान के कई राज्यों से भी बडी भूमि है। गुण्डाधुर भी उसी सम्मान का हकदार है जो झारखण्ड में बिरसा मुण्डा और बिहार में तिलका माझी को हसिल है। हमारा गणतंत्र उन्हीं गुमनाम शहादतों की बुनियाद पर मजबूती से खडा है जिसमें से एक नाम गुण्डाधुर का भी है।
- राजीव रंजन प्रसाद
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