Friday, January 10, 2014

बस्तर: कुछ समाधान विज्ञान के पास भी हैं



पिछले पृष्ठ से आगे-

[समेकित विकास की अवधारणा के लिये धारण क्षमता अध्ययन आवश्यक]
---------- 

समस्याओं की बात बहुत हो गयी है। बस्तर के संदर्भ में क्या हमारे पास समाधानों पर भी पर्याप्त विमर्श हैं? संसाधनों या कि जंगल और जमीन के लिये होने वाले संघर्षों का एक लम्बा सिलसिला होने के बाद भी बहुधा यह नहीं हुआ है कि सूखते हुए पत्तों के लिये कभी जड़ों की पड़ताल की गयी हो। यह बात इसलिये महत्वपूर्ण हो जाती है चूंकि हमें ज्ञात है कि यहाँ नक्सलवाद लगातार पाँव पसारती हुई समस्या है जिसके साथ साथ व्यवस्थागत खामियों के कारण आज भी यह वनांचल रोटी, कपडा और मकान जैसी बुनियादी आवश्यकातों की पूर्ति में ही लगा हुआ है। सड़क, बिजली और पानी यदि विकास के प्रतिमान हैं तो वे कभी ठेकेदारों की बंदरबाँट में तो कभी माओवादियों के हमलों-धमाकों से पिसते हुए बस्तर संभाग में मध्ययुगीन परिस्थितियाँ पैदा किये हुए हैं। सरकार के लिये भी इस क्षेत्र में कार्य करने के दृष्टिगत व्यावहारिक दिक्कते हैं। 

यह विचारणीय तथ्य है कि स्वतंत्रता के पश्चात अनेकों परियोजनायें घोषित होने के बाद भी यदि उंगलियों पर गिना जाये तो केवल बैलाड़िला लौह अयस्क परियोजना ही अस्तित्व में है। भारत के अनेकों राज्यों से भी बडे भू-भाग बस्तर संभाग में कोई खनन परियोजना नहीं जबकि खनिजों की भरमार है; कोई पनबिजली अथवा सिचाई परियोजना नहीं जबकि विद्युत उत्पादन की क्षमता वाली नदी घाटियाँ यहाँ अवस्थित हैं और एक प्रतिशत भूमि ही सिचाई की सुविधा से युक्त है; कोई औद्योगिक परिक्षेत्र नहीं जब कि परती भूमि की उपलब्धता भी संभाग में अनेक स्थानों पर है। साथ ही साथ शिक्षित बेरोजगार आदिवासी-गैर आदिवासी युवक युवतियों की फौज खड़ी होती जा रही है।

यह सही है कि जल, जंगल और जमीन की लड़ाईयाँ बस्तर क्षेत्र में मुखर हैं। विकास परियोजनायें घोषित होती हैं और इसके साथ ही उनका व्यापक विरोध आरंभ हो जाता है। यह सिलसिला एक समय में बारसूर (दंतेवाड़ा) में अवस्थित बोधघाट जलविद्युत परियोजना के विरोध से आरंभ हुआ था और फिर नगरनार होता हुआ एसी परिस्थिति तक आ पहुँचा है कि संभाग में अब कोई निवेशक कार्य करने में शायद ही रुचि दिखाये। यह भी एक सत्य है कि परियोजनाओं की घोषणाओं का आधार आर्थिक अवश्य है किंतु पर्यावरणीय एवं सामाजिक अवस्थितियों पर इनकी संकल्पना के साथ साथ चर्चा नहीं होती। यह मान लिया जाये कि परियोजनायें अव्यावहारिक हैं तो भी उन कारकों पर कभी बातें नहीं होती जो उनके न निर्मित किये जाने से उत्पन्न हो सकती हैं। उदाहरण के लिये इन्द्रावती नदी बस्तर से बहती हुई जा कर आन्ध्र के गोदावरी में जलवृद्धि करती है। आन्ध्र को अपने किसानों के लिये पानी चाहिये, नहरों के जाल हैं वहाँ। ऐसा क्यों नहीं होता कि जिन वन क्षेत्रों में ‘पर्यावरण और विकास’ की बहसें सिचाई परियोजनायें नहीं बनने देती वहाँ अपने संसाधन न इस्तेमाल करने के एवज में मुआवजा मिले? हमने इन्द्रावती को बहने दिया लेकिन गोदावरी अगर रोक ली गयी तो आन्ध्र मुआवजा दे अथवा केन्द्र क्षतिपूर्ति निर्धारित करे? गोदावरी नदी की बात करें तो उसके जलागम का लगभग चालीस हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र बस्तर के जंगलों से अबाध बहती सहायक नदियों के कारण है। बस्तर का हक है इस पानी पर। बस्तर ने अपनी नदियों से बिजली नहीं बनायी; अगर इन नदी-संसाधनों का उपयोग होता तो लगभग तीन हजार मेगावाट बिजली उत्पादित करने की क्षमता यहाँ की जलधाराओं में है। यह तर्क स्वीकार है कि वृहत भारत के हित में ये नदियाँ इन जंगलों से तो अबाध ही बहेंगी, लेकिन बिजली न बना पाने की क्षतिपूर्ति बस्तर को क्यों न मिले? इस दिशा में भी सोचा जाना आवश्यक है और इसके लिये हमें समेकित अध्ययन करने की आवश्यकता है। 

जब हम बस्तर जैसे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र की बात कर रहे होते हैं तो हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि यहाँ न केवल विशिष्ट इतिहास अपितु जटिल सांस्कृतिक स्थितियाँ भी मौजूद हैं। इसके साथ साथ खनिज भी इसी क्षेत्र में हैं, बहुमूल्य वनोत्पादों के लिये भी यही क्षेत्र पहचाने गये हैं या कि इमारती लकडियों के लिये भी इसी ओर सभी की दृष्टि टिकी होती है। यहाँ महात्मा गाँधी का वह चर्चित वाक्यांश सामने रखना आवश्यक हो जाता है कि धरती प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता तो पूरी कर सकती है किंतु उसके लालच को नहीं। इसे दृष्टिगत रखते हुए यह सोचना समझना आवश्यक है कि बस्तर संभाग क्षेत्र में विकास की क्या दिशा-दशा होनी चाहिये? यहाँ अवस्थित आदिवासी समाज को उनके ही संसाधनों के लिये क्या, कैसा और कितना हक मिलना चाहिये? किन संसाधनों का दोहन होना चाहिये और किनका बिलकुल भी नहीं। पर्यावरणविद होने के कारण मेरी दृष्टि पहले हरीतिमा पर ही जाती है और उसके बाद ही मैं किसी विकास की अवधारणा से सहमत हो पाता हूँ। इसलिये अपने समाधान पर बात करने से पूर्व थोडी चर्चा बैलाडिला की कर लेते हैं। 

मैने सुदूर संवेदन विषय में एमटेक करने के दौरान बैलाडिला लौह अयस्क खदानों की पर्यावरणीय परिस्थितियों पर अध्ययन किया था। यह बात वर्ष 1996 की है; उस दौरान के सेटेलाईट चित्रों का गंभीरता से अध्ययन करते हुए मलबा निस्तारण और लाल पानी की समस्या की ओर मेरा ध्यान विशेष रूप से गया था। सेटेलाईट चित्रों में यह स्पष्ट होता था कि वे स्त्रोत कौन से हैं जो बहते हुए पानी को निरंतर लाल कर रहे हैं। नदी-नालों की एक सामान्य वृत्ति होती है कि वे एक ओर से मिट्टी काटते हैं और दूसरी ओर अपर्दित सामग्री को जमा करते जाते हैं। चूंकि नदी नाले अपने साथ भारी लौह अयस्क का बुरादा अथवा चूर्ण निरंतर ढोते हुए आगे बढ रहे थे अत: जितना हेमेटाईट अयस्क चूर्ण अपनी रासायनिक अभिक्रियाओं से पानी को लाल रंग दे रहा था उतना ही खतरा नदी-नालों द्वारा उनके तटों पर जमा होने वाली नीली-मिट्टी से भी था। अयस्क धारिता होने के कारण मृदा की उर्वरता बहुत तेजी से नष्ट हो रही थी। परियोजना द्वारा अनेक उपाय किये गये हैं, अनेक चैकडैम आदि बनाये गये हैं जिसके कारण बहुत हद तक इस समस्या का निदान देखा गया है तथापि यदि हम सतत विकास की अवधारणा के साथ एक व्यावहारिक समाधान देखें तो जलागम क्षेत्र प्रबन्धन में इस विकराल और जटिल समस्या का समाधान सन्निहित है। परियोजना क्षेत्र और उसके दस किलोमीटर की परिधि में आने वाले सभी नाले वस्तुत: अनिवार्य उपचार मांगते हैं। इन स्त्रोंतों के उद्गम से ले कर मुख्य सरित में विलीन होने तक यदि स्थान स्थान पर अवरोध खडे किये जायें तो आरंभिक कुछ किलोमीटर में ही लालपानी को निर्मल प्राकृतिक रूप से ही किया जा सकता है। उपाय तो बहुत से हैं लेकिन केवल बोल्डर चैक डैम को उदाहरण की तरह लेते हैं। जैसे जैसे समान अंतराल पर बोल्डर चैक डैम पानी की प्राकृतिक गति के अवरोधक बनेंगे वैसे वैसे साथ बह आने वाली अयस्क मिश्रित अपर्दित सामग्री तल पर जमा होने लगेगी। जितनी पहले यह सामग्री जमा होगी उसे निकाल लेने पर उसके अयस्क तत्व उतने ही अधिक संरक्षित तथा पुनर्प्रयोग में आने योग्य मिलेंगे और इस तरह उपयोगी मृदा का अपरदन भी तत्क्षण ही रुक सकेगा, लाल पानी समस्या का निदान तो इससे होगा ही।

लाल पानी की समस्या का उल्लेख करने के पीछे यह बताना मेरा उद्देश्य है कि विज्ञान और समाजशास्त्र समाधानों के द्वार हैं; केवल उन्हें खटखटा कर देखने की आवश्यकता है। क्या एसा नहीं हो सकता कि हम पहले ज्ञान चक्षु खोलें और उसके पश्चात कोई एसी योजना बनायें जिससे कि बस्तर क्षेत्र का समेकित विकास हो सके? विज्ञान की भाषा में इस तरह के समेकित अध्ययन को धारण क्षमता अध्ययन (कैरिंग कैपेसिटी स्टडी) कहा जाता है। किसी क्षेत्र की धारण क्षमता का अर्थ है उसमे अवस्थित सभी प्रकार के प्राकृतिक, खनिज तथा मानव संसाधनों का समग्रता से अध्ययन कर यह जानना कि कोई भी योजना-परियोजना वहाँ कितनी उपयुक्त सिद्ध हो सकती है। एक एसा ही अध्ययन किया जा सकता है जिसमे क्षेत्र का भूविज्ञान, भू-आकृति, वानस्पतिकी, जीवजगत, समाजशास्त्र, इतिहास आदि आदि सम्मिलित हों। सबसे महत्वपूर्ण है यह कि समाजशास्त्र आधारित अध्ययन का महत्वपूर्ण हिस्सा जनजातीय समीकरण होने के साथ साथ आदिवासियों की आर्थिक अवस्थिति, जीविकोपार्जन के वर्तमान आधार, उनकी सांस्कृतिक विरासतें, उनके रहन-सहन-रिवाज, उनके देवी-देवता, उनके परम्परागत पर्व-तिहार, इलाज-उपचार आदि आदि भी बनेंगे। इस तरह क्षेत्रवार वे संसाधन जिसमे कि मानव भी सम्मिलित है उनके सतत विकास की अवधारना के अनुरूप उपयोग की एक रूप रेखा तैयार की जा सकेगी। इस आधार पर यह सोचा जा सकता है कि वे कौन कौन से खनिज हैं जिनका हमें दोहन करना है तथा कौन से एसे है जिन्हें आगामी पीढी की विरासत के रूप में संरक्षित रखना है। कहाँ परियोजनायें बनाना व्यावहारिक है और कहाँ इनका विरोध समुचित है। यदि कहीं परियोजनाओं को लगाये जाने की संस्तुति है तो उसके साथ साथ क्या क्या सुधारात्मक कार्य होने अवश्यंभावी हैं। विस्थापन और पुनर्वास जैसे संदर्भों को किस प्रकार पूरा किया जायेगा इसका खाका भी पहले ही अध्ययन के माध्यम से बना लिया जा सकता है जो कि नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा बन सकता है। 

सुदूर संवेदन तकनीक का विशेषज्ञ होने के कारण यह बात बहुत जोर दे कर कहना चाहूँगा कि क्षेत्र के वे हिस्से जो दुर्गम हैं, जहाँ लाल-आतंकवाद की समस्या मौजूद है तथा जहाँ सीधे तौर पर पहुँच कर वैज्ञानिक अन्वेषण करना संभव नहीं है वहाँ अंतरिक्ष से हमारे भेजे गये उपग्रहों की सजग निगाहें हैं। भांति भांति के उपग्रह आज भारत के पास हैं जिनके चित्र वनों के प्रकार, खनिजो के प्रकार, मृदा के भीतर की अवस्थितियाँ, भूजल की किसी क्षेत्र में स्थिति, जलागम क्षेत्र का घाटीवार विस्तार, प्राणीजगत आदि की जानकारी बखूबी प्रदान कर सकता है। कथनाशय यह है कि यदि परियोजनाओं की घोषणा अथवा बस्तर के विकास पर किसी निर्णय के प्रतिपादन से पहले एक विशेषज्ञ टीम गठित कर एक अथवा दो वर्ष का समय लगा कर व्यापक रूप से इन वनांचल की धारण क्षमता का अध्ययन करा लिया जाये तो सरकार एवं प्रशासन को एक सकारात्मक दिशा प्राप्त हो सकती है। इस अध्ययन में न केवल वनस्पति शास्त्री, जीव विज्ञानी, रसायन शास्त्री, भूगर्भ शास्त्री, सांख्यिकी विशेषज्ञ, समाजशास्त्री, पुरातत्वविद आदि विषय विशेषज्ञ सम्मिलित हों अपितु प्रशासनिक अधिकारियों के साथ साथ अंचल में कार्य करने वाली गैर सरकारी संस्थाओं का भी सहयोग लिया जा सकता है। इस प्रकार के अध्ययनों में उन ख्यातिनाम संस्थाओं और व्यक्तियों से भी राय ली जा सकती है जो समाज से जुडे मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। 

इस तरह एक वैज्ञानिक तरीके से किया गया धारण क्षमता अध्ययन यह तथ्य बाहर लाने में सहायक हो सकता है कि किन स्थानों को हमें औद्योगिक विकास के लिये चुनना है, किस स्थानों पर खनन की स्वीकृति दी जा सकती है, किन स्थानों पर दुर्लभ प्रजाति के वन व जीव हैं और उन्हें किसी भी कीमत पर बचाना है, आदिवासी समाज के समेकित विकास के लिये किन स्थानों से उनके खेतों तक पानी पहुँचाया जा सकता है, भूजल का उत्थान कैसे हो सकता है, परम्परागत आजीविका के साधनो को कैसे बचाया और बेहतर बनाया जा सकता है, किस तरह आदिवासी संस्कृति का संरक्षण, प्रोत्साहन और उत्थान हो सकता है, आदिवासी नृत्य संगीत और कला को किस तरह दिशा और प्रसार प्रदान किया जा सकता है, आदिवासी उत्पादों को किस तरह समुचित मूल्य और बाजार उपलब्ध कराया जा सकता है। बस्तर एसा सवाल नहीं है जिसका उत्तर ही न हो; हमें अब समस्या नहीं समाधानों पर केन्द्रित होना होगा।

-राजीव रंजन प्रसाद
===========

No comments: