दिल्ली युनिवर्सिटी, जेएनयू और हू-तूतू
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एक नया समय सामने है। कोई आँटो चलाने वाले की लडकी चार्टर्ड एकाउंटेंसी की परीक्षा में सर्वश्रेष्ठ हो कर निकलती है तो किसी बस ड्राईवर का बच्चा भारतीय प्रशासनिक सेवा का देदीप्यमान सितारा बन जाता है। ये वे विद्यार्थी होते हैं जिन्होंने अपने माँ बाप के पेट की बोटियाँ काट कर और रोटियाँ छीन कर उन्हें अपनी पुस्तक बनाया है। उन्होंने दिल्ली युनिवर्सिटी के एडमिशन का कट ऑफ़ लिस्ट नहीं जाना है न ही वे जेएनयू की उच्च-फंतासीय बहसों में उलझते देखे गये हैं। ये एक अरब से अधिक की जनसंख्या वाले देश के लाख सवालाख क्रीमी लेयर वाले विद्यार्थियों का हिस्सा नहीं होते अपितु उन स्कूलों की लाजवाब प्रदर्शनियाँ हैं जिनकी दीवारों पर गोबर के उपले चिपके होते हैं और उन कॉलेजों के प्रतिफल हैं जिन्हे अपनी दीवारों तक को बचाने के लिये संघर्ष करते रहना होता है।
ऐसे समय में दिल्ली युनिवर्सिटी में स्नातक के कोर्स को ले कर बडी मजेदार बहस जारी है। होनी भी चाहिये क्योंकि यह देश की राजधानी में खडी इमारत में चलने वाला संस्थान है और इसलिये यहाँ से पास होने की अहमियत बढ जाती है। यहाँ के विद्यार्थियों को किसी साक्षात्कार में धीमी आवाज में नहीं बोलना पडता कि श्रीमान मैं बस्तर युनिवर्सिटी का पास आउट हूँ या कि मणिपुर के किसी कॉलेज से पढ कर निकला हूँ। पढना तो छोडिये यहाँ नेतागिरी का भी अपना स्तर है। छात्रसंघ का चुनाव जीतने वाले, बडी बडी पार्टी के अध्यक्षों के साथ खडे हो कर अपने चौखटे पर फ्लैश चमकवाते हैं और फिर सीधे ही नेशनल पॉलिटिक्स का हिस्सा बन जाते हैं। इसीलिये अगर किसी छात्र ने अपने राज्य के स्कूल से पढ लिख कर अथवा येन-केन-प्रकारेण भी नब्बे प्रतिशत से अधिक अंक पा लिये हैं तो फिर उसका आगे पढने का ठिकाना दिल्ली ही होना चाहिये? अगर यही सही है तो फिर यह भी ठीक ही होगा कि डीयू-यूजीसी के बीच जारी अहं के टकराव का कोई सम्मानजनक रास्ता निकलते ही देश के शिक्षा बदहालता और नीतिगत अंधत्व से मुक्ति मिल जायेगी?
मैं इस बात से कत्तई प्रभावित नहीं हूँ कि चार साल के कोर्स से चमत्कारिक परिणाम होने वाले हैं जैसा कि दावा है और इस बात से भी अनभिग्य नहीं हूँ कि तीन साल पढ कर हुए ज्यादातर स्नातक सफेद हाथियों की कतार में इजाफा ही करते हैं। ग्लोबल कंपिटेबिलटी का जहाँ तक प्रश्न है तो क्या इस परमसत्य का केवल दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रतिपादन भारत को चीन, जापान और अमेरिका के बराबर खडा कर देगा और टिम्बकटू का विद्यार्थी होनालुलु के छात्र से आँख मिला कर कहेगा “इंडिया हेज चेंज्ड”। हद दर्जे की दकियानूसियत यह है कि ऑटोनॉमी का मतलब कुछ कुतुबमीनार खडे करना मान लिया गया हैं जिसके लिये मैदानों में गड्ढे खोद कर वहाँ के मिट्टी-पत्थर तक उखाड दिये जायेंगे।
अगर कन्याकुमारी का छात्र वही सब कुछ, उसी श्रेष्ठता के साथ अपने पाठ्यक्रम के माध्यम से नहीं पढता अथवा उन सुविधाओं का हकदार नही हैं जो दिल्ली युनिवर्सिटी को राजधानी होंने के विशेषाधिकार के कारण उपलब्ध है तो शिक्षा बजट की अधिकांश राशि के वास्तविक हकदार छोटे छोटे विश्वविद्यालय ही हैं जहाँ मन मार कर विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं और बेमन से पढाने वाले प्राध्यापकों के हवाले कर दिये जाते हैं, प्राथमिकता से ये स्थितियाँ बदलनी चाहिये। वस्तुत: जो विश्वविद्यालय मठ बन चुके हैं उन्होंने संस्थानों के भीतर चमचम चांदनी तो बहुत बटोर ली है लेकिन चराग तले अंधेरा ही है। रही पढाई की बात तो पास होने की शर्त पर डिग्री देने वाले विश्वविद्यालय अपने छात्रों की अध्ययन प्रणाली की विवेचना कर के देख लें। साल भर छात्र का डब्बा गोल रहता है और परीक्षा का टाईमटेबल आने के बाद रात दिन एक कर दिया जाता है। सेम्पल-पेपर, गैसपेपर छापने वालों यहाँ तक कि पेपर सेट करने वाले अध्यापकों के भी अच्छे दिन आ जाते हैं; परीक्षा खत्म तो फिर गया छात्र सात-आठ महीने की प्रसुप्तावस्था में। यही तीन साल की पढाई है और यही चार साल की भी। यही वार्षिक परीक्षाओं का भी हासिल था और यही सेमेस्टर सिस्टम का भी। यही रविशंकर विश्वविद्यालय का हाल है, यही सिक्किम मनिपाल का तो यही दिल्ली युनिवर्सिटी का भी, आप मानो या न मानो।
मेरा स्पष्ट मानना है कि यदि शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूक परिवर्तन करने हैं तो सबसे पहले विशेषाधिकार प्राप्त संस्थानों को उनके ही हाल पर छोड देना होगा। नीति निर्धारकों तथा शिक्षाविदों को अपना ध्यान क्षेत्रीय संस्थानों को समुचित पंख प्रदान करने पर लगाना होगा। कोर्स के तीन और चार साल जैसी बहसों के खोखलेपन को राष्ट्रीय मीडिया के लिये छोड दिया जाना चाहिये लेकिन जमीन पर काम तो तभी माना जायेगा जब झारखण्ड का छात्र रांची को और ओडिसा का छात्र भुवनेशवर को भी दिल्ली जैसा मान दे और अपनी युनिवर्सिटी में भी नवीनतम मापदंड तथा श्रेष्ठतम सुविधायें हासिल करे। पटना से भाग कर दिल्ली जायेंगे और वहाँ के विश्वविद्यालय की हर शर्त पर जी हाँ कर के प्रवेश हासिल कर लेंगे तो आपका योगदान अपनी आंचलिकता के लिये क्या रहा? एक देश के मापदंड पर आंचलिकता की बात बौनी लग सकती है लेकिन यह एसा ही है जैसे सभी अपना-अपना घर साफ कर लें तो पूरा देश दमकने लगे।
यह गलतफहमी भी दूर होनी चाहिये कि बडे शिक्षा संस्थान वास्तव में राष्ट्र निर्माण के आधारस्तंभ है। क्या देश भूल गया कि जब बस्तर में छियत्तर जवान नक्सलियों ने मार दिये थे तब नयी दिल्ली के ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हर्ष प्रकट करने के लिये जाम से जाम टकराये गये थे और इस कृत्य को बौद्धिकता और प्रगतिशीलता की चाशनी से पोता भी गया था। इन दिनो दिल्ली युनिवर्सिटी के कतिपय छात्र और अध्यापक एक दूसरे की नाक और माथा जिस तरह तोडने फोडने मे लगे हैं वह भी निंदनीय और शर्मनाक है। ये सभी कृत्य कथित रूप से देश की श्रेष्ठतम मानी जाने वाली शिक्षा संस्थाओं की एक अन्य हकीकत भी है जिस तथ्य को बहस के साथ ही रखना पडेगा। दिल्ली बहुत दूर है और यह बात इस देश को अब समझ आनी चाहिये। पहली बात तो शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूक परिवर्तन चाहिये और उसके लिये देश के शिक्षाविद एकजुट हो कर काम करें न कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी हिट एण्ड ट्रायल पॉलिसी का प्रयोग किया जाये। दूसरा यह कि वह चाहे 10+2+3 हो या 10+2+4 या कोई और फॉर्म्यूला लेकिन देश भर में एक ही तरह का मानकीकरण अवश्य होना चाहिये। फिलहाल तो एकरूपिता ही बहाल रखिये, वह दिन भी जल्दी ही आयेगा जब बस्तर का सोमारू दिल्ली के दिलबाग के साथ कंधा मिला कर खडा मिलेगा। सपना तो यही होना चाहिये बाकी सारी शिक्षा विषयक बहसें केवल हू-तूतू है।
- राजीव रंजन प्रसाद
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