Saturday, March 22, 2014

नाग हैं शहीद गेंदसिंह की विरासत के पहरेदार।



बात सितरम गाँव की है जिसके निकट एक पहाड़ी टीले पर बस्तर की एक चर्चित प्राचीन परलकोट जमींदारी का किला अवस्थित था। यह स्थान वीर गेन्दसिंह की शहादत स्थली के रूप में भी जाना जाता है चूंकि यहीं एक इमली के पेड़ पर लटका कर आंग्ल-मराठा शासन (1819 से 1842 ई.) के दौरान आदिवासी विद्रोह का दमन करते हुए कैप्टन पेव ने उन्हें 20 जनवरी 1825 को फाँसी पर चढा दिया था। हमारा अपनी विरासतों के प्रति नजरिया बहुत ही निन्दनीय है चूंकि अगर एसा न होता तो कदाचित परलकोट किले के भग्नावशेषों को संरक्षित रखने के प्रयास किये गये होते। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस इमली के पेड पर गेंद सिंह को फाँसी दी गयी थी वह सदियों जीता रहा लेकिन हाल ही में जंगल की आग की भेंट चढ गया। यथार्थ यही है कि सितरम गाँव तक मैं इसी इमली के पेड़ को छूने और महसूस करने आया था। 

केवल इमली का पेड़ ही क्यो? गेंदसिंह के नाम पर हम आज बस्तर में अनेक प्रतिमाओं और स्मारकों का निर्माण कर रहे हैं। कुछ स्कूल कॉलिज के नाम भी शहीद गेंदसिंह कर केन्द्रित रखे गये हैं किंतु इन कोशिशों में एक खोखलापन है चूंकि ये तुष्टीकरण के प्रयास सदृश्य ही प्रतीत होते हैं। यदि हमारी नीयत में विरासत का संरक्षण करने की इच्छा भी होती तो जो कुछ उस कालखण्ड का बचा हुआ है कमसेकम उसे तो आज हम बचाने का यत्न करते? 

सौभाग्य से परलकोट में गेंदसिंह के समय की एक इमारत आज भी शेष है। मुझे गेन्दसिंह के ही वंशजों ने बताया कि लगभग ध्वस्त होने की स्थिति में खड़ा प्राचीन मंदिर माँ दंतेश्वरी का है। मंदिर के ठीक सामने गेंदसिंह के स्मृति स्मारक अवस्थित हैं किंतु किसी के भी ध्यान-संज्ञान में भी नहीं आया कि उनके समय के इस मंदिर को बचाने की कोई कोशिश ही कर ली जाये। मैं मंदिर को देखने के लिये उत्सुक हो उठा था और जैसे ही मुख्यद्वार तक पहुँचा चौंक उठा। मंदिर का मुख्यद्वार बहुत छोटा था जिसमे से झुक कर ही भीतर जाया जा सकता था। दरवाजे के निकट की दीवारों में दरारें ही दरारें थी और मुझे एकाएक बडा सा नाग दिखाई पडा जो बहुत इत्मीनान से दरार छिद्र में बाहर की ओर अपना मुँह निकाले विश्राम की मुद्रा में था। मेरे साथकम इस समय पत्रकार मित्र कमल शुक्ला भी थे और हम दोनो ही इस दृश्य को देख कर अत्यधिक रोमांचित से हो गये थे। हमारे गाईड बने शहीद गेंदसिंह के परिजनों ने बताया कि मंदिर में बहुत साँप हैं। कई बार तो छ: से सात साँप तक मंदिर के अंदर कभी दीवार पर चढते तो कभी दरवाजे पर लटके दिखाई पड़ते हैं। मेरे भीतर भय प्रवेश कर गया था और अब मंदिर के भीतर घुसने में हिचकिचाहट हो रही थी। 

हमें बताया गया कि ये साँप किसी को काटते नहीं हैं बल्कि बहुत आराम से और बहुत लम्बे समय से यहीं रह रहे हैं। कई बार शिवरात्री में स्थानीयों ने निकटस्थ मंदिरों में भी इन साँपो को देखा है तथा उनकी पूजा अर्चना की है। मैने एक बार पुन: दीवार की दरार से झांकते उस साँप की ओर देखा और एसा प्रतीत हुआ जैसे उसे मेरी उपस्थिति से कोई मतलब नहीं। वह निश्चित रूप से मेरी ओर देख रहा था लेकिन संभवत: मैं उसके लिये कोई अस्वाभाविक अथवा खतरा तत्व नहीं था। इस बात से मुझमें साहस बढा और मैं दरवाजे से भीतर आ गया। भीतर अंधेरा था और इस बात को सत्यापित किया जा सकता था कि भीतर अनेक नागों ने अपना घर बना लिया है। मंदिर दो हिस्सों में विभक्त है जिसमे सामने का कक्ष अपेक्षाकृत छोटा है। 

भीतर कुछ दुर्लभ व अनूठी प्रतिमाओं की तस्वीरों को फ्लैश के माध्यम से कैमरे में कैद करने का अवसर प्राप्त हुआ। एक काले पत्थर पर निर्मित प्राचीन देवी प्रतिमा थी जबकि दो सफेद ग्रेनाईट पर गढी गयी प्रतिमायें थीं। चूंकि स्थानीय मान्यतायें इन प्रतिमाओं को माँ दंतेश्वरी का निरूपित करती थी अत: इनका समुचित अंवेषण होने तक ग्रामीण मान्यताओं के ही साथ चलना उचित होगा। मंदिर के बाहर एक पुरुष प्रतिमा है जिसे शीतला माता के रूप में मान्यता मिली हुई है। इन प्रतिमाओं पर विस्तार से अलगे लेख में चर्चा करूंगा। अभी यह कहना अधिक प्रासंगिक होगा कि ग्रामीण परम्पराओं ने अपने ही तरीके से इतिहास के कुछ हिस्सों को सुरक्षित तो रखा ही हुआ है। 

यह प्राचीन मंदिर बहुत लम्बे समय तक सुरक्षित नहीं रहेगा और जाहिर है किसी बरसात ढह कर अपना अस्तित्व खो देगा। क्या इस बात से हमको कोई फर्क पड़ने वाला है? लगभग नष्ट हो चुके इस मंदिर को देख-महसूस कर एक प्राचीन किंवदंति से सहमत हो गया हूँ कि जहाँ खजाना होता है वहाँ उसकी रक्षा के लिये नाग अवश्य होते हैं। हम आज यह समझ सकें अथवा नहीं कि हमारी विरासतें हमारी सम्पदा है लेकिन शायद ये नाग इस बात को जानते समझते हैं इसीलिये वे न तो आगंतुक को डराते डसते हैं न ही इस स्थल को छोड कर सदियों से किसी अन्य स्थान पर जा रहे हैं। हाँ ये नाग सितरम की विरासत के पहरुए हैं।

-राजीव रंजन प्रसाद

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