Tuesday, April 30, 2013

पुरुषोत्तमदेव, रथयात्रा तथा बस्तर का समाजशास्त्र



जनजातीय विकास के विभिन्न चरणों को वहाँ की राजनीति के क्रमबद्ध अध्ययन के बिना समझना कठिन प्रतीत होता है। जैसे बस्तर में अपने समय के साम्राज्यवादी शासकों की छाया पड़ी, धार्मिक आन्दोलनों का असर हुआ वैसे ही हर शासन व्यवस्था के उत्थान और पतन के साथ जनजातिगत समीकरणों में भी नई युतियाँ अथवा नव-समावेश देखे गये। यहाँ तक कि जब एक नया शासक वर्ग उदित हुआ तो दूसरे शासक वर्ग के वंशजो ने वनों के भीतर पलायन कर स्वयं को सुरक्षित करना उचित समझा। निश्चित ही यह प्रक्रिया नये तरीके के सांस्कृतिक समन्वयों को गढ़ती रही तथा नवीन परम्पराओं का भी समुद्भव होता रहा। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी किंतु राजा पुरुषोत्तम देव के शासन काल में बस्तर में नये सामाजिक समीकरण बने। इस संदर्भ को समझने के लिये काकतीय/चालुक्य नरेश पुरुषोत्तमदेव के शासन काल की कुछ प्रमुख विशेषताओं का अवलोकन किया जाना आवश्यक है। पुरुषोत्तमदेव के पूर्ववर्ती शासक भैरवदेव (1410-1468) के शासन काल के सम्बन्ध में ओड़िशा की प्राचीन साहित्यिक कृतियों में उल्लेख मिलता है कि उनके पिता हमीर देव (1369-1410) को पाटणा की सत्ता से युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई। भैरवदेव पर निश्चित ही पाटणा नरेश का दामाद होने के पश्चात भी गंग शासकों का दबाव बना रहा होगा। यद्यपि बस्तर में उपलब्ध राजवंशावलियाँ ओड़िशा के इस दावे को पुख्ता नहीं करती। यहाँ उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार भैरमदेव का शासनकाल यद्यपि उथल-पुथल भरा रहा किंतु यह गंग शासकों का उपनिवेश हर्गिज नहीं था। भैरवदेव की दो रानियाँ थीं मेघई अरिचकेलिन तथा जानकी कुँवर। रानी मेघई शिकार की शौकीन थीं। उनकी कालबान नाम की बंदूख देखने योग्य है। इसे दो व्यक्ति मिल कर भी उठाने की क्षमता नहीं रखते हैं। मेघई अरिचकेलिन एक वीरांगना थी जिन्होंने स्वयं नाग सरदारों के विद्रोह का दमन कर बस्तर शासन को स्थायित्व व शांति प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रो. वल्र्यानी तथा साहसी ने अपनी पुस्तक बस्तर का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहासमें लिखा है कि भैराजदेव नाम मात्र के शासक थे। उनके शासन का संचालन मेघावती द्वारा किया जाता था। रानी मेघावती (मेघई अरिचकेलिन) के शिकार की कथायें सदियों से चित्रकोट अंकल में प्रसिद्ध हैं। आगे चल कर रानी मेघावती की कालवान बंदूख को दशहरा अवसर पर अस्त्र-शस्त्र पूजा में सम्मिलित किया गया। कालवान बन्दूख की नली इस समय बची हुई है। यह भी माना जाता है कि एक समय प्रचलित चित्रकोट के मंधोता में गाड़ी में बैठ कर शिकार खेलने की परम्परा की जनक रानी मेघई अरिचकेलिन ही थीं। यही नहीं माना जाता है कि दंतेवाड़ा मंदिर की मेघी साड़ीभी मेघई रानी ने ही देवी को अर्पित की थी। इतनी विवेचना के पश्चात यह लिखना उचित ही होगा कि मेघई रानी वस्तुत: कोषकुण्ड (वर्तमान कुआकोण्डा) के महामेघवंशी जमीन्दार की पुत्री रही हैं। यदि बस्तर को चौहानो अथवा गंगो का उपनिवेश न भी स्वीकार किया जाये तब भी यह मानना ही होगा कि भैरवदेव का समय नाग-विद्रोहों के दमन का गंगो-चौहानों के दबावों से भरा तथा यदा-कदा रेड्डियों के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा है। आर सुब्रमण्यम ने दि सूर्यवंशी गजपतिज ऑफ ओड़िशामें जिक्र किया है कि ओड़िशा के गजपति राजा कपिलेन्द्र (1435-1468 ई) से भैरवदेव का इन्द्रावती तथा गोदावरी के मध्य की उर्वरा भूमि पर स्वामित्व को ले कर संघर्ष हुआ जिसमें राजा भैरवदेव मारे गये। यह सूत्र भी बस्तर वंशावली गाथाओं से पुष्ट नहीं होता।

भैरवदेव के बाद बस्तर पर शासन करने वाले चौथे राजा हुए - पुरुषोत्तम देव (14681534 ई.)। राजा ने रायपुर के कलचुरी शासकों पर चढ़ाई कर दी। दुर्भाग्यवश पराजित हो गये। इधर बस्तर सेना ने रायपुर पर आक्रमण किया, उधर कलचुरी राजा ब्रम्हदेव ने रतनपुर रियासत से सहायता माँगी। रतनपुर के राजा जगन्नाथ सिंह ने सेना भेज दी। संयुक्त सेनाओं ने चौतरफा आक्रमण किया। भगदड़ मच गयी। राजा पुरुषोत्तम देव अपने हाथी को युद्धभूमि से भगा ले गये। कलचुरियों की सेना पीछे लगी हुई थी। इससे पहले कि पुरुषोत्तम देव शत्रु सैनिकों द्वारा पकड़े जाते, एक सेनापति ने अपने वस्त्र राजा को पहना दिये। राजा उस सेनापति के घोड़े पर सवार बस्तरकी ओर भाग निकले। इतिहासकार डॉ. के के झा बताते हैं कि प्रतिवर्ष सम्पन्न बस्तर दशहरा में रथ के उपर खड़े हो कर एक व्यक्ति द्वारा वस्त्र खण्ड को लगातार हाँथ से दूर करने तथा समेटने की जो क्रिया सम्पन्न की जाती है वह इसी घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये है। यहाँ यह भी जोड़ना आवश्यक होगा कि पुरुषोत्तम देव के पलायन के पश्चात भी कलचुरियों ने पलट कर बस्तर भूमि पर आक्रमण नहीं किया। जिससे यह सिद्ध होता है कि भले ही विजय अभियान असफल हो गया हो तथापि पुरुषोत्तम देव शक्तिशाली शासक थे। उनके शासनकाल में ही राजधानी को मंधोता से हटा कर बस्तर लाया गया था। 

राजा पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी की तीर्थयात्रा पेट के बल सरकते हुए की थी। जगन्नाथपुरी के राजा ने उनका भरपूर स्वागत किया तथा वहाँ उन्हें रथपतिकी उपाधि से विभूषित किया गया। पुरी के राजा ने मंदिर के पुजारी के माध्यम से 16 पहियों का रथ प्रदान किया। रथ के साथ सथ भगवान जगन्नाथ तथा सुभद्रा की काष्ठ मूर्तियाँ भी बस्तर लायी गयीं। राजा ने बस्तर लौट कर दशहरे के अवसर पर रथयात्रा निकालने की परम्परा आरंभ की। राजा की जगन्नाथपुरी यात्रा की स्मृति को जीवित रखने के लिये बस्तर में गोंचापर्व भी मनाया जाता है। स्थानीय ग्रामीण बाँस की छोटी छोटी नलियाँ बनाती हैं। ये यह नलियाँ तुपकीकहलाती है। इसमें मालकांगनी का फल रख कर बाँस की लकड़ी के दबाव से गोली की तरह चलाया जाता हैं।

पुरुषोत्तमदेव के समय की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना है कालापहाड़ का आक्रमण। कालापहाड़ के सम्बन्ध में केदारनाथ ठाकुर ने विस्तार से जानकारी दी है कि काला पहाड़ का वास्तविक नाम संभवत: कालचन्द्र रहा होगा जो कि बंगाल के पठान सुल्तान बाबेकशाह की सेना में उच्च पद पर कार्यरत था। उसे सुल्तान की कन्या दुलीमा से प्रेम हो गया। अनेक अडचनों के बाद दुलीमा से उसका निकाह तो सम्पन्न हो गया किंतु तत्कालीम पंडितों ने उसे हिन्दू धर्म से बहिष्कृत कर दिया। एक सम्पन्न ब्राम्हण कुल में जन्मे तथा उच्च सैनिक पद पर आसीन इस व्यक्ति ने बहिष्कार को अपना घोर अपमान करार दिया। उसने इस्लाम ग्रहण किया तथा अपना नाम मोहम्मद कामूली रख लिया। दिल्ली के शासक बहलोल लोदी (1451-1488) से भी उसकी मित्रता थी अत: एक बड़ी सेना संग्रह कर वह अपने अपमान को क्रूरता से सहलाने लगा। उसने हजारो विधर्मियों का कत्लेआम किया; अनेक मंदिर व देव प्रतिमाओं को नष्ट किया।  उसके कुकृत्यो व दहशत ने उसे प्रचलित नाम दिया काला पहाड़। काला पहाड़ ने ओड़िशा, आन्ध्र, कामरूप, दीनाजपुर, रंगपुर, कूचबिहार, जौनपुर तथा देवबनारस के साथ साथ बस्तर पर भी आक्रमण किया था।       

डॉ. हीरालाल शुक्ल मानते हैं कि कलचुरियों से युद्ध में 1534 ई. में राजा पुरुषोत्तमदेव की मृत्यु हुई। यद्यपि कलचुरियों के बस्तर पर शासन करने अथवा किसी अन्य प्रकार के हस्तक्षेप की कोई और जानकारी उपलब्ध नहीं होती। 1534 ई. में राजा पुरुषोत्तम देव मृत्यु के बाद जयसिंहदेव ने चौबीस वर्ष और फिर नरसिंह देव ने 1558 ई. से शासन किया। इन दोनों ही राजाओं के शासन आम तौर पर शांतिपूर्ण थे। यदि हम राजा पुरुषोत्तम देव के समय की महत्वपूर्ण घटनाओं की विवेचना करते हैं तो उनके समय की कई गतिविधियों, निर्णयों व कार्यों का आज भी असर पाते हैं। क्या बस्तर ग्राम एवं राजधानी को ले कर आना ही काकतीयों/चालिक्यों के शासित क्षेत्र का नाम बस्तर कर देता है? यह भी एक प्रबल संभावना है। बस्तर दशहरा की प्रसिद्ध रथयात्रा व कृष्ण-बलराम-सुभद्रा पूजन जैसी अन्य परम्परायें भी उनकी ही देन हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पुरुषोत्तम देव अपने साथ पुरी से अनेक ब्राम्हण, पंड़ा, शिक्षाशास्त्री तथा सबरा जाति के लोगों को ले कर लौटे थे जो बस्तर में ही बस गये। इतना ही नहीं राजा पुरुषोत्तमदेव की जगन्नाथपुरी यात्रा में उनके साथ बस्तर से जो आदिवासी गये थे उन्हें लौट कर राजा ने भद्र कह कर संबोधित किया तब से ही वे आदिवासी और उनके वंशज भतरा कहलाने लगे। जनजातीय समाज में ये बड़ी घटनायें थी जिनपर किसी समाजशास्त्री ने विवेचना प्रस्तुत नहीं की है। यह आगमन किसी आक्रांता का नहीं था। ये लोग जो राजा के साथ आये थे अपने साथ बिलकुल ही भिन्न सामाजिक परिवेश की पहचान ले कर पहुँचे थे। वे अपने साथ पूजा-पाठ-कर्म-काण्ड-पोथी-पतरी थामे हुए बस्तर पहुचे थे तथा उन्हे सीधे राजाश्रय भी प्राप्त हो गया था। इस दृष्टि से जनसंख्या में भले ही यह एक बहुत ही छोटा समूह जुड़ा किंतु प्रभाव की दृष्टि से एक वृहत घटना माना जाना चाहिये। यदि केवल दशहरा के ही पूजा अनुष्ठानों को ध्यान दे देखा जाये तो इसमे आदिवासी परम्पराओं और ब्राम्हण परम्पराओं का जबरदस्त घालमेल है। यहाँ पुजारी भी हैं तो सिरहा भी है; यहाँ अनुष्ठान हैं तो बलि भी है; यहाँ दंतेश्वरी और मावली माता हैं तो काछनदेवी भी है। एक आदिवासी समाज को भद्र कहे जाने और फिर भतरा के रूप में उन्हें एक पहचान मिलने की घटना के भी अनेक समाजशास्त्रीय दृष्टि से विवेच्य दूरगामी परिणाम हुए। पुरुषोत्तमदेव का समय बस्तर के समाज में बदलाव का एक बड़ा पड़ाव है जिसकी विस्तृत विवेचना से बस्तरिया सामाजिक संगठन की अनेक परतें खोली जा सकती हैं। समाजशास्त्र को भी इतिहास मे झांकना होगा अगर बस्तर की अबूझियत को पढ़ने की कोई इच्छाशक्ति किसी में है।      
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1 comment:

Ramakant Singh said...

राजीव बाबू कमेन्ट को स्पैम से निकलने का कष्ट करें .....