Wednesday, June 25, 2014

दिल्ली युनिवर्सिटी, जेएनयू और हू-तूतू


दिल्ली युनिवर्सिटी, जेएनयू और हू-तूतू
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एक नया समय सामने है। कोई आँटो चलाने वाले की लडकी चार्टर्ड एकाउंटेंसी की परीक्षा में सर्वश्रेष्ठ हो कर निकलती है तो किसी बस ड्राईवर का बच्चा भारतीय प्रशासनिक सेवा का देदीप्यमान सितारा बन जाता है। ये वे विद्यार्थी होते हैं जिन्होंने अपने माँ बाप के पेट की बोटियाँ काट कर और रोटियाँ छीन कर उन्हें अपनी पुस्तक बनाया है। उन्होंने दिल्ली युनिवर्सिटी के एडमिशन का कट ऑफ़ लिस्ट नहीं जाना है न ही वे जेएनयू की उच्च-फंतासीय बहसों में उलझते देखे गये हैं। ये एक अरब से अधिक की जनसंख्या वाले देश के लाख सवालाख क्रीमी लेयर वाले विद्यार्थियों का हिस्सा नहीं होते अपितु उन स्कूलों की लाजवाब प्रदर्शनियाँ हैं जिनकी दीवारों पर गोबर के उपले चिपके होते हैं और उन कॉलेजों के प्रतिफल हैं जिन्हे अपनी दीवारों तक को बचाने के लिये संघर्ष करते रहना होता है। 

ऐसे समय में दिल्ली युनिवर्सिटी में स्नातक के कोर्स को ले कर बडी मजेदार बहस जारी है। होनी भी चाहिये क्योंकि यह देश की राजधानी में खडी इमारत में चलने वाला संस्थान है और इसलिये यहाँ से पास होने की अहमियत बढ जाती है। यहाँ के विद्यार्थियों को किसी साक्षात्कार में धीमी आवाज में नहीं बोलना पडता कि श्रीमान मैं बस्तर युनिवर्सिटी का पास आउट हूँ या कि मणिपुर के किसी कॉलेज से पढ कर निकला हूँ। पढना तो छोडिये यहाँ नेतागिरी का भी अपना स्तर है। छात्रसंघ का चुनाव जीतने वाले, बडी बडी पार्टी के अध्यक्षों के साथ खडे हो कर अपने चौखटे पर फ्लैश चमकवाते हैं और फिर सीधे ही नेशनल पॉलिटिक्स का हिस्सा बन जाते हैं। इसीलिये अगर किसी छात्र ने अपने राज्य के स्कूल से पढ लिख कर अथवा येन-केन-प्रकारेण भी नब्बे प्रतिशत से अधिक अंक पा लिये हैं तो फिर उसका आगे पढने का ठिकाना दिल्ली ही होना चाहिये? अगर यही सही है तो फिर यह भी ठीक ही होगा कि डीयू-यूजीसी के बीच जारी अहं के टकराव का कोई सम्मानजनक रास्ता निकलते ही देश के शिक्षा बदहालता और नीतिगत अंधत्व से मुक्ति मिल जायेगी? 

मैं इस बात से कत्तई प्रभावित नहीं हूँ कि चार साल के कोर्स से चमत्कारिक परिणाम होने वाले हैं जैसा कि दावा है और इस बात से भी अनभिग्य नहीं हूँ कि तीन साल पढ कर हुए ज्यादातर स्नातक सफेद हाथियों की कतार में इजाफा ही करते हैं। ग्लोबल कंपिटेबिलटी का जहाँ तक प्रश्न है तो क्या इस परमसत्य का केवल दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रतिपादन भारत को चीन, जापान और अमेरिका के बराबर खडा कर देगा और टिम्बकटू का विद्यार्थी होनालुलु के छात्र से आँख मिला कर कहेगा “इंडिया हेज चेंज्ड”। हद दर्जे की दकियानूसियत यह है कि ऑटोनॉमी का मतलब कुछ कुतुबमीनार खडे करना मान लिया गया हैं जिसके लिये मैदानों में गड्ढे खोद कर वहाँ के मिट्टी-पत्थर तक उखाड दिये जायेंगे। 

अगर कन्याकुमारी का छात्र वही सब कुछ, उसी श्रेष्ठता के साथ अपने पाठ्यक्रम के माध्यम से नहीं पढता अथवा उन सुविधाओं का हकदार नही हैं जो दिल्ली युनिवर्सिटी को राजधानी होंने के विशेषाधिकार के कारण उपलब्ध है तो शिक्षा बजट की अधिकांश राशि के वास्तविक हकदार छोटे छोटे विश्वविद्यालय ही हैं जहाँ मन मार कर विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं और बेमन से पढाने वाले प्राध्यापकों के हवाले कर दिये जाते हैं, प्राथमिकता से ये स्थितियाँ बदलनी चाहिये। वस्तुत: जो विश्वविद्यालय मठ बन चुके हैं उन्होंने संस्थानों के भीतर चमचम चांदनी तो बहुत बटोर ली है लेकिन चराग तले अंधेरा ही है। रही पढाई की बात तो पास होने की शर्त पर डिग्री देने वाले विश्वविद्यालय अपने छात्रों की अध्ययन प्रणाली की विवेचना कर के देख लें। साल भर छात्र का डब्बा गोल रहता है और परीक्षा का टाईमटेबल आने के बाद रात दिन एक कर दिया जाता है। सेम्पल-पेपर, गैसपेपर छापने वालों यहाँ तक कि पेपर सेट करने वाले अध्यापकों के भी अच्छे दिन आ जाते हैं; परीक्षा खत्म तो फिर गया छात्र सात-आठ महीने की प्रसुप्तावस्था में। यही तीन साल की पढाई है और यही चार साल की भी। यही वार्षिक परीक्षाओं का भी हासिल था और यही सेमेस्टर सिस्टम का भी। यही रविशंकर विश्वविद्यालय का हाल है, यही सिक्किम मनिपाल का तो यही दिल्ली युनिवर्सिटी का भी, आप मानो या न मानो। 

मेरा स्पष्ट मानना है कि यदि शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूक परिवर्तन करने हैं तो सबसे पहले विशेषाधिकार प्राप्त संस्थानों को उनके ही हाल पर छोड देना होगा। नीति निर्धारकों तथा शिक्षाविदों को अपना ध्यान क्षेत्रीय संस्थानों को समुचित पंख प्रदान करने पर लगाना होगा। कोर्स के तीन और चार साल जैसी बहसों के खोखलेपन को राष्ट्रीय मीडिया के लिये छोड दिया जाना चाहिये लेकिन जमीन पर काम तो तभी माना जायेगा जब झारखण्ड का छात्र रांची को और ओडिसा का छात्र भुवनेशवर को भी दिल्ली जैसा मान दे और अपनी युनिवर्सिटी में भी नवीनतम मापदंड तथा श्रेष्ठतम सुविधायें हासिल करे। पटना से भाग कर दिल्ली जायेंगे और वहाँ के विश्वविद्यालय की हर शर्त पर जी हाँ कर के प्रवेश हासिल कर लेंगे तो आपका योगदान अपनी आंचलिकता के लिये क्या रहा? एक देश के मापदंड पर आंचलिकता की बात बौनी लग सकती है लेकिन यह एसा ही है जैसे सभी अपना-अपना घर साफ कर लें तो पूरा देश दमकने लगे। 

यह गलतफहमी भी दूर होनी चाहिये कि बडे शिक्षा संस्थान वास्तव में राष्ट्र निर्माण के आधारस्तंभ है। क्या देश भूल गया कि जब बस्तर में छियत्तर जवान नक्सलियों ने मार दिये थे तब नयी दिल्ली के ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हर्ष प्रकट करने के लिये जाम से जाम  टकराये गये थे और इस कृत्य को बौद्धिकता और प्रगतिशीलता की चाशनी से पोता भी गया था। इन दिनो दिल्ली युनिवर्सिटी के कतिपय छात्र और अध्यापक एक दूसरे की नाक और माथा जिस तरह तोडने फोडने मे लगे हैं वह भी निंदनीय और शर्मनाक है। ये सभी कृत्य कथित रूप से देश की श्रेष्ठतम मानी जाने वाली शिक्षा संस्थाओं की एक अन्य हकीकत भी है जिस तथ्य को बहस के साथ ही रखना पडेगा। दिल्ली बहुत दूर है और यह बात इस देश को अब समझ आनी चाहिये। पहली बात तो शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूक परिवर्तन चाहिये और उसके लिये देश के शिक्षाविद एकजुट हो कर काम करें न कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी हिट एण्ड ट्रायल पॉलिसी का प्रयोग किया जाये। दूसरा यह कि वह चाहे 10+2+3 हो या 10+2+4 या कोई और फॉर्म्यूला लेकिन देश भर में एक ही तरह का मानकीकरण अवश्य होना चाहिये। फिलहाल तो एकरूपिता ही बहाल रखिये, वह दिन भी जल्दी ही आयेगा जब बस्तर का सोमारू दिल्ली के दिलबाग के साथ कंधा मिला कर खडा मिलेगा। सपना तो यही होना चाहिये बाकी सारी शिक्षा विषयक बहसें केवल हू-तूतू है। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Wednesday, June 18, 2014

बस्तर, बंदूख और इन्द्रू केवट का रास्ता


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यह मुख्यधारा किस चिडिया का नाम है और कहाँ पायी जाती है? महानगरों को भी बहुत निकटता से देखा है जहाँ हमेशा रहने वाली बिजली, जगमग सडकें, मैट्रो और बसों के कॉरीडोर उस लुभावनी दुनिया का उदाहरण बने हुए हैं जिसको कथित तरक्की का प्रतिमान माना जाता है। ऐसे में आज भी ढिबरी युग में जी रहे हमारे गाँवों को, जिन्हें नक्शों तक में जगह नहीं मिलती उनके महत्व, उनके गौरव और योगदानों को भुला दिया जाना स्वाभाविक है। ठीक है कि सिविल सर्विसेज में सफलता पाने के लिये आपका यह जानना आवश्यक है कि महात्मा गाँधी कौन थे और इन्द्रू केवट का परिचय रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसीलिये यह भी कडुवा सत्य है कि गाँधीवाद का शाब्दिक अर्थ पकड कर बैठ जाने वाली हमारी पीढी उसके मर्म तक नहीं पहुँच सकी चूंकि उसने राजनेताओं को महात्मा गाँधी की समाधी पर फूल चढाते देखा है किंतु इन्द्रू केवट के मृतक स्मारक की उपेक्षा उसे ज्ञात ही नहीं है।

कौन है इन्द्रू केवट? इस प्रश्न का उत्तर जानने की इच्छा रखने वालों से यह अपेक्षा भी अवश्य है कि क्या और कहाँ है बस्तर? लाल-आतंकवाद के साये में पिसते बस्तरिया आदिवासी, शहरी विश्वविद्यालयों में पढने-पढाने वाले कथित बुद्धिजीवियों को बंदूख से क्रांति करते प्रतीत होते हैं। उनकी फंतासियाँ इस अंचल की पीडा को शब्दों की चिपचिपी चाशनी बना देती है जिसमे रेल्वे स्टेशन पर बैठ कर अंग्रेजी उपन्यास पढने वाला युवा चिपकता जरूर है। हमारी बुद्धिजीविता वस्तुत: क्रूर राजनीतिज्ञ है और उनसे किसी भी परिस्थिति की सही विवेचना पाने की अपेक्षा रखना वृथा है। अगर ऐसा न होता तो गणपति और रमन्ना की कहानियाँ क्रांति की परिचायक नहीं बना दी गयी होतीं। फिर तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की कथित बहसों में इन्द्रू केवट के उस योगदान पर भी चर्चा हो गयी होती जो एक समय बंदूख से इतर क्रांति की मशाल जलाये आदिवासी समाज को जगाने पैदल पैदल भटकता रहा करता था।

इन्द्रू केवट की कहानी वर्तमान बस्तर संभाग के उत्तरी क्षेत्र से जुडी है जो कभी कांकेर रियासत का हिस्सा हुआ करता था। अविश्वसनीय किंतु सत्य है कि दुर्गू कोंदल जैसे छोटे से गाँव के निवासी इन्द्रू केवट ने महात्मा गाँधी के सत्याग्रही मार्ग को जीवन में उतार लिया तथा वे इस आदिवासी अंचल में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के सूत्रधार बने। साधारण सी धोती और हाँथ में डण्डा यही उनका वेश और सामान था जिसके सहारे वे गाँव गाँव घूमते तथा गाँधी के आदर्शों व स्वतंत्रता की आवश्यकता जैसी बातों से ग्रामीणों को परिचित कराया करते थे। बात वर्ष-1933 की है जब महात्मा गाँधी दुर्ग आये हुए थे। उस समय यह निर्धन, आदिवासी सत्याग्रही अपनी लाठी टेकता हुआ पैदल ही निकल पडा दुर्गू कोंदल से दुर्ग तक; वह भी नंगे पाँव। आदिवासी अंचल के सत्याग्रही इन्द्रू केवट की मुलाकात जब महात्मा गाँधी से हुई और वे उनके समर्पण भाव तथा ओजस्विता को देख कर अत्यधिक प्रभावित हुए थे। गाँधी जी से हुई इस मुलाकात के बाद इन्द्रू केवट बस्तर के गाँव-गाँव घूम कर आदिवासी समाज को स्वतंत्रता के मायने समझाने लगे। 

इन्द्रू केवट के कारण ही कांकेर रियासत ने राष्ट्रीय राजनीति का अर्थ जाना और तिरंगे से परिचित हुए। वर्ष 1944-45 की बात है जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों को धन, लकडी, अनाज आदि की आवश्यकता पडी। ऐसे में बस्तर और कांकेर रियासतें मुख्य रूप से उनके द्वारा शोषित हुईं। केवल कांकेर रियासत से ही अंग्रेज उस दौरान 41242 वर्गफुट उत्तम किस्म का सागवान कटवा कर ले गये थे। इसके अलावा आदिवासी किसानों से कम दाम में खरीद करवा कर लगभग अट्ठारह हजार मन धान और पच्चीस हजार रुपये राजस्व के रूप में वसूला गया था। वर्ष 1945 में नयी भू-राजस्व वयवस्था के तहत अनेक गाँवों को जोडा गया और हंटर के बल पर किसानों से उनकी फसल छीनी जाने लगी। इन्द्रू केवट ने तब लगान मत पटाओ का नारा दिया और राजा तथा अंग्रेजों के विरोध में जुट गये। खण्डी नदी के पास पातर बगीचा में सत्याग्रहियों की पहली बैठक हुई जिसमें पहली बार चरखा युक्त झंडा प्रतीक बना। इस बैठक में लगभग डेढ हजार आदिवासी प्रतिनिधि एकत्रित हुए थे। अहिंसक आन्दोलन जोर पकडने लगा और इसमे गुलाब हल्बा, पातर हल्बा, कंगलू कुम्हार जैसे अनेक आदिवासी उनके साथ जुडने लगे। 

इस आदिवासी सत्याग्रही के गतिविधियों की जानकारी जैसे ही मिली तब अंग्रेजों का दबाव राजा पर पडा और इन्द्रू केवट की गिरफ्तारी का वारंट निकाला गया। जेल से बचने के लिये इस उन्होंने बडी ही युक्ति से काम लिया। धोती ही तो एकमात्र आवरण था उनका और बाकी शरीर पर उन्होंने ‘टोरा का तेल’ मल लिया। सिपाहियों ने उन्हे पकडा जरूर लेकिन वे फिसल कर उनकी पकड से छूट निकले और भाग गये। आन्दोलन बढा तो लगभग तीन सौ गाँवों के किसान सत्याग्रही हो गये और अब पूरी ताकत राजा को लगानी पडी जिसके पश्चात इन्द्रू केवट और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें पैदल ही रियासत की राजधानी कांकेर तक लाया गया। इन्द्रूकेवट और उनके 429 किसान साथियों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। अब समय सत्याग्रह की ताकत से परिचित होने का था। गाँव गाँव से लगभग दो सौ बैलगाडियों में भर कर किसान इन्द्रू केवट और उनके साथियों को छुडाने कांकेर पहुँच गये। आन्दोलन को इस तरह फैलते देख अंग्रेज सकते में आ गये और उन्होंने आन्दोलनकारियों से समझौता कर लिया। राजद्रोह के मुकदमे वापस ले लिये गये तथा इन्द्रू केवट अपने साथियों के साथ रिहा कर दिये गये। 

इन्द्रू केवट जब तक जीवित रहे बस्तर के गाँधी बन कर स्वतंत्रता आन्दोलन को अपना बहुमूल्य योगदान देते रहे। इन्द्रू केवट के गाँव में आज भी पोते मौजूद हैं। मैं उनके घर पहुँचा तो इस बात को जान कर बहुत दु:ख हुआ कि परिजनों के पास इन्द्रू केवट का एक पेंसिल स्केच छोड कर कोई भी तस्वीर, दस्तावेज अथवा जानकारी मौजूद नहीं है। परिजनों को सरकार से मदद की अनेक अपेक्षायें हैं। गाँव की पहचान ही इन्द्रू केवट से है और इसी कारण गौरव ग्राम मानते हुए प्रवेश द्वार बनवाया जा रहा है। गाँव के बाहर नदी के किनारे इन्द्रू केवट का आदिवासी परम्परा के अनुरूप बनाया गया मृतक स्मृति स्मारक अभी ठीक ठाक हालत में नदी के किनारे अवस्थित है। 

काश कि इस मृतक स्मारक की महत्ता का अंदाजा हमारी पीढी को होता तो वे अंतर कर पाते कि क्रांति और सत्याग्रह के वास्तविक मायने क्या हैं? व्यवस्था परिवर्तन का सही रास्ता क्या है? मुद्दों और जनपक्षधरता की लडाई कैसे लडी जा सकती है तथा नक्सलवादी बंदूखें किसलिये अनुचित है। बस्तर की आत्मा और उसकी जिजीविषा को समझने के लिये इन्द्रू केवट के रास्ते से हो कर गुजरना ही होगा। 

-राजीव रंजन प्रसाद 

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Sunday, June 15, 2014

भोपालपट्टनम के विरासतों की नियति है नष्ट होना


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भोपालपट्टनम के विरासतों की नियति है नष्ट होना।
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भोपालपट्टनम का यह चहलपहल वाला क्षेत्र है। राजमहल बतायी गयी इमारत के सामने खडा हो कर लगा कि दुनिया को उलट-पुलट हो जाना चाहिये। जब हमें अपनी पहचान से, अपने अतीत और विरासत से ही लगाव नहीं तो एक बार को ही सबकुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाये, न बांसतरी में बांस रहे न बांसुरी ही बजे....। इतिहास को इस निर्ममता से ध्वस्त होते देख कर यही मेरे आरम्भिक मनोभाव थे। माना कि मैं लालकिले के सामने नहीं खड़ा था और यह किसी राजा-महाराजा का दुर्ग या भवन भी नहीं। यह भी माना कि कभी एक वन्य राज्य रहे बस्तर के गोंड जमींदार का भवन महत्व के मानक पर कभी परखा भी नहीं जायेगा किंतु यह कैसे मान सकता हूँ कि आने वाली पीढी भी अपने अतीत को हमारी तरह महत्वहीन ही मान कर चलेगी? मुख्यद्वार से भीतर प्रवेश करते हुए यह अहसास हो चला था कि भोपालपट्टनम में रियासत काल की यह निशानी निश्चित ही अत्यधिक भव्य रही होगी। इस विरासत के कर्णधारों ने क्यों इसका संरक्षण करना उचित नहीं समझा यह कहना कठिन है लेकिन इसकी महत्ता पर चर्चा की ही जा सकती है। 

भोपालपट्टनम में समृद्ध नाग कालीन विरासतें सर्वत्र बिखरी हुई हैं किंतु यहाँ का विधिवत राजनैतिक इतिहास वर्ष 1324 से प्रारंभ होता है जब वारंगल (वर्तमान तेलंगाना का हिस्सा) से चालुक्य राजकुमार अन्नमदेव तुगलकों के आक्रमण से परास्त शरणागत की तरह गोदावरी और इन्द्रावती नदी के संगम स्थल की ओर से नाग शासकों की भूमि में प्रविष्ठ हुए। एक समय समृद्ध रहा चक्रकोट अब एक सशक्त केन्द्रीय शक्ति के अभाव में इतना कमजोर हो गया था कि केवल दो सौ सैनिकों के साथ इस वन्यप्रांतर में प्रवेश करने वाले अन्नमदेव ने नागों को निर्णायक रूप से परास्त कर बस्तर राज्य की स्थापना की। कथनाशय यह है कि आज जिस भोपालपट्टनम का परिचय केवल और केवल लाल-आतंकवाद से निरूपित हो रहा है वस्तुत: यही भूमि उस राजैतिक व्यवस्था परिवर्तन की सूत्रधार रही है जिसके बाद स्थापित चालुक्य सत्ता का सम्पूर्ण बस्तर राज्य में वर्ष 1324 से वर्ष 1947 तक शासन रहा है। 

अन्नमदेव ने जब भोपालपट्टनम प्रवेश किया होगा तब यहाँ के भयावह जंगल तथा नागों से जुडे अनेक मिथकों को सुन कर उनकी क्या अवस्था हुई होगी इसे इस बात से समझा जा सकता है कि नाग शासकों के विरुद्ध अपना युद्धाभियान प्रारम्भ करने से पूर्व उन्होंने संगम स्थल पर शिवलिंग स्थापित कर विधिवत पूजा-अर्चना की और उसके बाद ही आगे का विजय अभियान आरम्भ हुआ। भोपालपट्टनम का नाग राजा कभी यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कोई गोदावरी की ओर से प्रवेश कर उसकी छोटी सी शासित परिधि में आक्रमण कर सकता है। अप्रत्याशित हमले से घबरा कर उसने भोपालपट्टनम रिक्त कर दिया और बिना लडे ही भाग खडा हुआ। यह अन्नमदेव के बस्तर विजय अभियान की पहली विजय थी जिसके लिये उन्हें रक्त की एक बूंद भी नहीं बहानी पडी। नागों की सत्ता का अंत होते ही बस्तर में सामंतवादी व्यवस्था की जडें भी गहरी हुईं तथा अन्नमदेव ने अपने विजित क्षेत्रों पर अनेक जमींदार नियुक्त किये। 

भोपालपट्टनम के पहले जमींदार थे नाहर सिंह पामभोई। यह कहा जाता है कि भोई वस्तुत: अन्नमदेव के पालकीचालक हुआ करते थे। वारंगल से भोपालपट्टनम तक के प्रयाण में भोई समुदाय ने अपने नायक अन्नमदेव की जी-जान से सहायता की। इनाम स्वरूप अपनी पहली ही जीत को अन्नमदेव ने भोई नायक नाहर सिंह पामभोई के नाम कर दिया और उन्हें जमींदार नियुक्त किया गया। भोई के पामभोई कहे जाने के पीछे भी एक रोचक कहानी है। यह जनश्रुति है कि जब अन्नमदेव गोदावरी नदी पार कर रहे थे तब अचानक हवा के तेज बबण्डर के साथ एक बडा सा अजगर प्रकट हुआ। भोई ने बडी ही बहादुरी से इस अजगर को मार दिया। यह मिथककथा भोपालपट्तनम के जमींदार के लिये गाये जाने वाले विरुद का एक अंश “गालिवीर पामभोई” से भी स्पष्ट होती है जहाँ गालि का अर्थ है हवा, वीर अर्थात साहसी, पाम का अर्थ है अजगर तथा भोई का मतलब है पालकीचालक। इस विरुद को कालांतर में बदल कर “कृष्णपामभोई” कर दिया गया था। ब्लण्ट तथा दि ब्रेट जैसे अंग्रेज विवेचनाकर्ताओं ने यहाँ के जमींदार को गोंड जाति का माना है। बस्तर के पहले इतिहासकार कहे जाने वाले केदारनाथ ठाकुर (1908) ने इन्हें भोई जाति का माना है। यह कहा जा सकता है कि गोंडों की ही उपशाखा भोई है। भोई चालुक्य शासन में कितने शक्तिशाली थे इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वर्ष 1901 तक जगदलपुर के निकट तक के अनेक गाँवों के अधिपति भोई ही थे। 

भोपालपट्टनम के राजनैतिक इतिहास और उसकी महत्ता को समझने की कोशिश किये जाने की आवश्यकता है। यदि भोपालपट्टनम का संधिविच्छेद किया जाये तो भूपाल अर्थात राजा तथा पत्तनम अर्थात बंदरगाह। इसके अतिरिक्त यह भी माना जाता है कि भूपाल (राजा) के चरण सबसे पहले इसी क्षेत्र में पडे इसीलिये भोपालपट्टनम नाम पड गया। सत्यता जो भी हो किंतु रियासतकालीन बस्तर और वर्तमान बस्तर संभाग का हिस्सा भोपालपट्टनम अभी रहस्य की चादर ओढे हुए है। 

उपलब्ध शासकीय दस्तावेजों की दृष्टि से भोपालपट्तनम को समझने की कोशिश की जाये तो जो जानकारियाँ सामने आती हैं उनके अनुसार “भोपालपट्टनम जमींदारी का कुल क्षेत्रफल 722 वर्गमील था जिसके अंतर्गत 139 गाँव थे जिसमे 14 जनशून्य थे। यहाँ की कुल जनसंख्या 9055 थी (दि ब्रेट, 1909)।” वर्ष 1918-19 में इस जमींदारी का अस्तित्व कोर्ट ऑफ वार्ड्स के आधीन था। वर्ष 1887 में हुए विद्रोह का तत्कालीन अंग्रेज शासकों के पक्ष में दमन करने में सहायता करने के कारण भोपालपट्टनम के जमींदार को मल्लमपल्ली परगना 1859 ई. मे उपहार स्वरूप दिया गया था। यद्यपि वर्ष 1908 में अंग्रेजों द्वारा प्रतिपादित नये नियम के तहत मल्लमपल्ली परगना पुन: अहीरी जमींदारी में मिला दिया गया किंतु भोपालपट्टम के जमींदार का वहाँ से भूमिकर (मालकानी) वसूलने का अधिकार बना रहा (केदारनाथ ठाकुर, 1908)। जमींदारी का मुख्यालय भोपालपट्टनम नगर था जहाँ वर्ष 1908 से पूर्व ही राजमहल, अस्पताल, स्कूल, पोस्टऑफिस, पुलिस कार्यालय, इन्जीनियर कार्यालय एवं तहसील कार्यालय बनाये गये थे। भोपालपट्टनम को सडक मार्ग से जगदलपुर से जोड दिया गया था (केदारनाथ ठाकुर, 1908)। वर्ष 1910 के विद्रोह (भूमकाल) के समय भोपालपट्तनम का जमींदार श्रीकृष्णा पामभोई था। अंग्रेजों का साथ देने के कारण उन्हें 1912 में जगदलपुर दशहरा दरबार में सम्मानित भी किया गया था। रिकॉर्ड बताते हैं कि जमींदार श्रीकृष्ण पामभोई के कारण जमींदारी मेनेजमेंट के तहत थी। उस दौरान 147 एकड बंजर भूमि को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित किया गया और 4300 रुपये तकाबी ऋण के रूप में किसानों मे वितरित किया गया (एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट 1954, अप्रकाशित)। वस्तुत: ब्रिटिश शासनकाल में भोपालपट्टनम जमींदारी नौ परगनों में विभक्त थी। इनमे से आठ माझी परगने थे और एक चालकी परगना था। भोपालपट्टनम जमींदारी का तीन चौथाई भाग जंगली और पहाड़ी था। यहाँ के जमींदार की आय का मुख्य स्त्रोत सागवान जैसी कीमती इमारती लकडिया एवं वनोपज ही थे। गोदावरी तथा इन्द्रावती नदी मार्ग से निर्यात किया जाता था। तीन नदियों (गोदावरी, इंद्रावती तथा चिंतावागु) एवं राज्यों की सीमा का संगम होने के कारण यह महत्वपूर्ण व्यापारिक एवं सामरिक महत्व का स्थल भी हुआ करता था। 

इतिहास बताता है कि अन्नमदेव ने अपने शासनकाल में बस्तर को एक रहस्यमय राज्य बना दिया था और इस तरह उसने लम्बे समय तक बाहरी राजनैतिक दखल से सुरक्षा बनाये रखी। अंग्रेज जासूस कैप्टन जे डी ब्लण्ट वर्ष 1795 में बस्तर सियासत के भीतर भोपालपट्टनम की ओर से घुसने की कोशिश मे था किंतु यहाँ के गोंड आदिवासियों ने अपने तीरों से उसके अनेक साथियो को घायल कर दिया और उसे गोदावरी के दूसरी ओर खदेड दिया था। भोपालपट्टनम में अंग्रेजों के विरुद्ध शौर्यगाथा लिखने में अनेक वीर आदिवासियों का योगदान रहा है जिसमें धुर्वाराव, यादोराव, वेंकुटराव तथा बाबूराव प्रमुख थे। यह सबकुछ अब भुला दिया गया है। 

भोपालपट्टनम नगर को यह सुध ही नहीं कि उनकी महानतम विरासत की निशानियाँ मटियामेट हो रही हैं। लम्बे समय तक रियासतकालीन राजनीति के केन्द्र मे रहा राजमहल भवन अभी पूरी तरह क्षतिग्रस्त नहीं हुआ है और यदि कोशिश की जाये तो इसे बचाया जा सकता है। भवन के भीतर के भवनों में कब्जा कर लिया गया है तथा पीछे अवस्थित मैदानों में भी लोग झोपडियाँ बना कर रहने लगे हैं। सामने की संरचना, भीतर का अहाता और उससे लग कर अनेक भवन अभी ठीक-ठाक अवस्था में हैं जबकि पिछली दीवारों पर बरगद का कब्जा है। अनेक बडे कमरे अब ईंटों का ढेर रह गये हैं। संभवत: समय की प्रतीक्षा की जा रही है जब अतीत का यह साक्ष्य धराशायी हो जाये। शायद इतिहास तो लालकिलों के ही होते हैं भोपालपट्टनम की इन विरासतों की नियति नष्ट होना ही है। 

-राजीव रंजन प्रसाद 

Wednesday, June 11, 2014

हाँ भई!! राष्ट्रीय समस्या है दिल्ली की बिजली



हाँ भई!! राष्ट्रीय समस्या है दिल्ली की बिजली 
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अभी बहुत दिन नहीं हुए, नक्सलियों ने विद्युत व्यवस्था ठप्प कर दी थी और लगभग पंद्रह दिनों तक केरल राज्य से भी बड़े बस्तर संभाग के बहुतायत क्षेत्रों में घुप्प अंधेरा हो गया था। सभी त्रस्त थे, लालटेन युग लौट आया था, लोग गर्मी की रातों में सडकों पर नींद लेने के लिये विवश थे, अस्पतालों में ऑपरेशन तक नहीं हो सके थे। ठीक इसी समय राष्ट्रीय मीडिया दिल्ली में गली मोहल्ले की लडाई को राष्ट्रीय समाचार बनाये हुए था। हम यह सोचने के लिये बाध्य थे कि क्या बस्तर भारत का ही हिस्सा है? और अगर हाँ तो यहाँ की दिक्कतें, समस्यायें और हालात राष्ट्रीय खबर क्यों नहीं बनते? दिल्ली से कैमरे तब ही बस्तर आते हैं जब उन्हें कोई सनसनीखेज खबर करनी हो। वे तब जंगल के भीतर जाते हैं, किसी नक्सली का इंटरव्यू ले आते हैं और फिर खबर बनती है कि फलाना चैनल ग्राउंड जीरो पहुँचा। क्षेत्रीय संवेदनाओं, समस्याओं और वास्तविकतओं को यह राष्ट्रीय मीडिया की श्रद्धांजलि होती है। 

आज दिल्ली में अस्थाई बिजली संकट है और कुछ इलाकों के हाल उत्तरप्रदेश के नगरों में सर्वदा रहने वाले हालात जैसे हो गये है। दिल्ली वालों को आठ से दस घंटे बिजली नहीं मिल रही यह खबर इतनी बडी है कि इसे कन्याकुमारी वाला भी झेले, कश्मीर वाला भी और बिहार के लोग भी। हाँ य़ह ठीक है कि देश की राजधानी होने का सुख दिल्ली को हमेशा मिलता रहता है और वहाँ के गली मुहल्लों की घटना भी राष्ट्रीय खबर हो जाती है। मीडिया के प्रोपागेंडा की वजह से एक बडे शहर में जिसे राज्य का दर्जा मिला है, वहाँ गाँवों जितनी बडी परिधियों वाले विधान सभाओं में बहुमत से कम सीटें हासिल करने के बाद बेमेल जोड से बनी एक सरकार की नौटंकियाँ दिन रात का राष्ट्रीय समाचार बनी रही। केजरीवाल ने क्या खाया, क्या बोला, कहाँ खांसे आदि आदि सुन कर अरुणाचल भी पकता रहा और कोच्चि भी। इस दौरान अनेक बडे बडे राज्यों मे भी नयी सरकारें आयीं, किसी ने नहीं जाना। 

यह दिल्ली का विशेषाधिकार है कि वह खुद को ही दिखाये, खुद की परेशानियों पर ही छाती पीटे, अपनी सडकों के गड्ढों को तालाब बताये, अपने बिजली संकट को अंतर्राष्ट्रीय समस्या निरूपित कर दे। यह दिल्ली के मीडिया पर है कि उसके लिये देश सिमटता सिमटता स्टूडियो के भीतर घुस आया है। उसे क्यों फिक्र हो कि आज भी देश की बहुतायत आबादी लालटेन युग में ही है। उसे क्यों फिक्र हो कि आज भी देश के बहुतायत गाँव सडकों से नहीं जुडे और बरसात आते ही देश-दुनिया से पूरी तरह कट जाते हैं। उसे क्यों फिक्र हो कि इस देश में असम, अरुणाचल, सिक्किम मणिपुर जैसे राज्य भी हैं जिनकी भौगोलिक परिधि भी दिल्ली से अधिक बडी है और समस्यायें भी अनसुनी हैं। दिल्ली ही राष्ट्र है इसलिये हम बाध्य हैं कि अरविन्दर सिंह लवली, अरविन्द केजरीवाल और हर्षवर्धन के विद्युत प्रवचनों को इनवर्टर से हासिल बिजली में भी झेलें और इसपर बहसियायें। हम भारत के लोग दिल्ली के विकास से रोमांचित हैं और दिल्ली की परेशानी से बेचैन। हमारी मजबूरी है।

-राजीव रंजन प्रसाद 

Tuesday, June 10, 2014

बस्तर - प्राचीन स्त्री राज्य की विरासत है।


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स्त्री नें हमेशा बराबरी और सम्मान की लडाई लडी है। भारत भर में एसे उदाहरण कम ही देखने को मिले हैं जहाँ उसने यह अधिकार पाया है। इस आधी आबादी के पास अगर कोई उदाहरण है तो वह पाषाणकालीन अतीत की ओर इशारा करता है जब मातृसत्तात्मक जीवन शैलियों का चलन था। प्राचीन बस्तर क्षेत्र जिसे रामायण काल में “दण्डकारण्य”, महाभारत काल में “कांतार” तथा गुप्त काल में “महाकांतार” कहा गया एक एसे इतिहास की ओर इशारा करता है जहाँ लगभग तेरहवी शताब्दी के पूर्वार्ध (1335 ई.) तक स्त्रीसत्ता का ही प्रमुखता से उल्लेख प्राप्त होता है। महाभारतकालीन वीरांगना प्रमिला से आरंभ हो कर यही विशिष्ठता नागकालीन राजकुमारी मासक देवी तक पहुँचती है; यद्यपि कालांतर में भी “रानी चो रिस (1878-1882 ई.)” जिसमें कि तत्कालीन रानी जुगराज कुँअर नें अपने ही पति राजा भैरमदेव के विरुद्ध सशस्त्र आन्दोलन का संचालन किया था; राजमाता सुबरन कुँअर जो कि 1910 के महान भूमकाल के सूत्रधारों में थीं तथा महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी (1921-1936 ई.) जिन्होंने बैलाडिला की खदानों को निजाम के हाँथो जाने से बचाने के लिये प्राणों की आहूति दे दी जैसे उदाहरण मिलते हैं। क्या एक लम्बे समय तक युद्ध में उलझ जाने और उसके पश्चात शांतिकाल में प्राचीन दण्डकारण्य एक स्त्री-शासित प्रदेश बन गया था? इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन बस्तर में रामायणकाल को दो संस्कृतियों के संघर्ष, मैत्री तथा सम्मिश्रण का समय माना जायेगा। इसके बाद का समय अपेक्षाकृत स्थायित्व दर्शाता है; बडी सभ्यताओं नें अपनी अपनी सुविधा के क्षेत्रों पर अब तक कब्जा हासिल कर लिया है तथा प्राचीन बस्तर अंचल पुन: अपने आप में सिमटता जाता प्रतीत होता है। 

इस काल खण्ड तथा इसकी विशेषताओं पर चर्चा करने से पूर्व उन तथ्यों पर बात करते हैं जो मूल महाभारत कथा के साथ “कांतार” अर्थात प्राचीन बस्तर का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। उत्तरापथ में आर्यों का समुचित विस्तार हो गया था अत: महाभारत की मूल कथा वहीं से अपना अधिक सम्बन्ध रखती है तथापि पाण्डवों के वनवास के कुछ प्रसंग कांतार की भूमि में घटित हुए प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि वर्तमान बस्तर के कई गाँवों के नाम महाभारत में वर्णित पात्रों पर आधारित हैं, उदाहरण के लिये गीदम के समीप नकुलनार, नलनार; भोपालपट्टनम के समीप अर्जुन नली, पुजारी; कांकेर के पास धर्मराज गुडी; दंतेवाड़ा में पाण्डव गुडी नामक स्थलों प्रमुख हैं। कई आदिवासी देवता भी इस कालखण्ड का पुरातत्व अपने नामों में छुपाये हुए हैं जिनमें प्रमुख हैं - भीमुलदेव, पाण्डुरों, पाण्डुराजा आदि। बस्तर की परजा (घुरवा) जनजाति अपनी उत्पत्ति का सम्बन्ध पाण्डवों से जोड़ती है। बस्तर भूषण (1908) में पं केदारनाथ ठाकुर नें उसूर के पास किसी पहाड़ का उल्लेख किया है जिसमें एक सुरंग पायी गयी है। माना जाता है कि वनवास काल में पाण्डवों का यहाँ कुछ समय तक निवास रहा है। इस पहाड के उपर पाण्डवों के मंदिर हैं तथा धनुष-वाण आदि हथियार रखे हुए हैं जिनका पूजन किया जाता है। महाभारत के आदिपर्व में उल्लेख है कि बकासुर नाम का नरभक्षी राक्षस एकचक्रा नगरी से दो कोस की दूरी पर मंदाकिनी के किनारे वेत्रवन नामक घने जंगल की सँकरी गुफा में रहता था। वेत्रवन आज भी बकावण्ड क्षेत्र में मिलते हैं तथा यह नाम बकासुर से साम्यता दर्शाता भी प्रतीत होता है; अत: यही प्राचीन एकचक्रा नगरी अनुमानित की जा सकती है। बकासुर भीम युद्ध की कथा अत्यधिक चर्चित है जिसके अनुसार एकचक्रा नगर के लोगों नें बकासुर के प्रकोप से बचने के लिये नगर से प्रतिदिन एक व्यक्ति तथा भोजन देना निश्चित किया। जिस दिन उस गृहस्वामी की बारी आई जिनके घर पर पाण्डव वेश बदल कर माता कुंती के साथ छिपे हुए थे तब भीम नें स्वयं बकासुर का भोजन बनना स्वीकार किया। भीम-बकासुर का संग्राम हुआ अंतत: भीम नें उसे मार डाला। महाभारत में वर्णित सहदेव की दक्षिण यात्रा भी प्राचीन बस्तर से जुडती है। दो तथ्य रुचिकर लग सकते हैं पहला कि भीम शब्द का सम्बन्ध बस्तर क्षेत्र के अनेक देवताओं से जुडना सिद्ध होने के बाद भी विष्णु पुराण में यह उल्लेख मिलता है कि कांतार निवासी, कौरवों की ओर से महाभारत महा-समर में सम्मिलित हुए थे। द्रौपदी के लिये सम्मान का भी जनजातियों में अभाव दिखता है विशेषरूप से दण्डामि माडिया ‘बोली’ में ‘पांचाली’ एक अपशब्द है।

कृष्ण का आगमन भी कांतार भूमि मे हुआ है। कांकेर (व धमतरी) के निकट सिहावा के सुदूर दक्षिण में मेचका (गंधमर्दन) पर्वत को मुचकुन्द ऋषि की तपस्या भूमि माना गया है। मुचकुन्द एक प्रतापी राजा माने गये हैं व उल्लेख मिलता है कि देव-असुर संग्राम में उन्होंने देवताओं की सहायता की। उन्हें समाधि निद्रा का वरदान प्राप्त हो गया अर्थात जो भी समाधि में बाधा पहुँचायेगा वह उनके नेत्रों की अग्नि से भस्म हो जायेगा। मुचकुन्द मेचका पर्वत पर एक गुफा में समाधि निन्द्रा में थे। इसी दौरान का कालयवन और कृष्ण का युद्ध चर्चित है। कृष्ण कालयवन को पीठ दिखा कर भाग खडे होते हैं जो कि उनकी योजना थी। कालयवन से बचने का स्वांग करते हुए वे उसी गुफा में प्रविष्ठ होते हैं तथा मुचकुन्द के उपर अपना पीताम्बर डाल कर छुप जाते हैं। कालयवन पीताम्बर से भ्रमित हो कर तथा कृष्ण समझ कर मुचकुन्द ऋषि के साथ धृष्टता कर बैठता है जिससे उनकी निद्राभंग हो जाती है। कालयवन भस्म हो जाता है। यही नहीं, कृष्ण के साथ बस्तर अंचल से जुडी एक अन्य प्रमुख कथा है जिसमें वे स्यमंतक मणि की तलाश में यहाँ आते हैं। ऋक्षराज से युद्ध कर वे न केवल मणि प्राप्त करते हैं अपितु उनकी पुत्री जाम्बवती से विवाह भी करते हैं। 

महाभारत में दक्षिण क्षेत्र के माल जनपद का उल्लेख मिलता है। कालिदास नें भी मेघदूत में माल क्षेत्र के भूगोल की विस्तृत व्याख्या की है जो इसे रामगिरि (ओडिशा) से उत्तर पश्चिम का क्षेत्र (कांतार) घोषित करते हैं। महाभारत में माल क्षेत्र को शाल वन से घिरा हुआ बताया गया है। इस आधार पर माल जनपद की मालदा अथवा मालवा के पठार से की जाने वाली तुलना तर्कपूर्ण नहीं प्रतीत होती व इसे कोरापुट तक विस्तृत प्राचीन बस्तर का क्षेत्र ही माना जाना चाहिये। बस्तर का वर्तमान में बहुचर्चित क्षेत्र माड़ वस्तुत: माल जनपद के अपभ्रंश के रूप में आज भी जाना जाता है एवं यहाँ के निवासी माडिया कहे जाते है। 

एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है। युधिष्ठिर नें जब अश्वमेध यज्ञ का घोडा छोडा था, तब उस घोडे की रक्षा में स्वयं अर्जुन सेना के साथ चला था। दक्षिण की ओर चलते चलते युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का घोडा “स्त्री राज्य” में पहुँच गया। - “उवाच ताम महावीरान वयं स्त्रीमण्डले स्थिता:” (जैमिनी पुराण)। स्त्री राज्य (कांतार) की शासिका का नाम प्रमिला था। उल्लेखों से ज्ञात होता है वह बड़ी वीरांगना थी। प्रमिला देवी के आदेश से अश्वमेध यज्ञ के घोडे को बाँध कर रख लिया गया। घोडे को छुडाने के लिये अर्जुन नें रानी प्रमिला तथा उनकी सेना से घनघोर युद्ध किया; किन्तु आश्चर्य कि अर्जुन की सेना लगातार हारती चली गयी। स्त्रियाँ युद्ध कर रही थीं इसका अर्थ यह नहीं कि वे साधन सम्पन्न नहीं थी जैमिनी पुराण से ही यह उल्लेख देखिये कि किस तरह स्त्रियाँ रथों और हाँथियों पर सवार हो कर युद्धरत थीं – “रथमारुद्य नारीणाम लक्षम च पारित: स्थितम। गजकुम्भस्थितानाम हि लक्षेणापि वृता बभौ॥“; इसके बाद युद्ध का जो वर्णन है वह प्रमिला का रणकौशल बयान करता है। प्रमिला नें अपने वाणों से अर्जुन को घायल कर दिया। अब अर्जुन नें छ: वाण छोडे जिन्हें प्रमिला नें नष्ट कर दिया। विवश हो कर अर्जुन को ‘मोहनास्त्र’ का प्रयोग करना पड़ा जिसे प्रमिला नें अपने तीन सधे हुए वाणों से काट दिया। अब प्रमिला अर्जुन को ललकारते हुए बोली – “मूर्ख! तुझे इस छोटी सी लडाई में भी दिव्यास्त्रों का अपव्यय करना पड़ गया?” – [प्रमीला मोहनास्त्रं तत सगुणम सायकैस्त्रिभि:। छित्वा प्राहार्जुनं मूढ! मोहनास्त्रम न भाति ते॥] इस उलाहने नें अर्जुन के भीतर ग्लानि भर दी। अर्जुन नें रानी प्रमिला के समक्ष विनम्रता का परिचय दिया एवं संधि कर ली। इसके बाद ही यज्ञ के घोडे को मुक्त किया गया। 

अपने आलेख का प्रारंभ मैने स्त्री अस्मिता तथा उसके प्रतिमानों के उदाहरणों के तौर पर प्राचीन बस्तर को सामने रख कर किया था। इस कथन की पुष्टि मार्कण्डेयपुराण, वात्स्यायन के कामसूत्र, वाराहमिहिर की वृहत्संहिता तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों में वर्णित उल्लेखों से भी होती है। वस्तुत: कांतार के स्त्रीराज्य होने का विवरण सर्वप्रथम महाभारत में ही मिलता है जहाँ शांति पर्व में उल्लेख है कि कलिंग के राजा की पुत्री चित्रांगदा के स्वयंवर के अवसर पर स्त्री राज्य के अधिपति सुग्गल भी आये थे - सुग्गलश्च महाराज: स्त्री राज्याधिपतिश्च य:। यह स्त्री राज्य एक बडे विमर्श की पृष्ठभूमि बनता है। कौटिल्य नें जिस तरह से कांतार में स्त्री राज्य का उल्लेख किया है उसके अनुसार यह प्रतीत होता है कि दक्षिण से उत्तर की ओर लाये जाने वाले माणिक्यों को इस राज्य से हो कर गुजरना पडता था। साथ ही इस क्षेत्र के खनिजों की जानकारी व महत्ता का विवरण भी चाणक्य उपस्थित करते हैं। महाभारत काल से आगे बढ कर नाग युग के आगमन तथा उसके बहुत बाद भी स्त्री ही सामाजिक व्यवस्था की धुरी बनी रही है। वात्स्यायन का कामसूत्र स्त्री राज्य के अंत:पुर में पुरुषों के होने की व्यवस्था का वर्णन करता हैं – ग्रामनारीविषये स्त्रीराज्ये च युवानांअंतपुरसधर्माणा एकैकस्या: परिग्रहभूता:। वस्तुत: रामायणकाल तथा महाभारत काल के उल्लेख कालांतर में घटित हुई परिस्थितियों की भूमिका बने हैं। वर्तमान समय के स्त्री विमर्श को भी पुरा अतीत की पृष्ठभूमि में ही समझना होगा तभी हम आधुनिक सामाजिक संगठनों को समझ सकते हैं।

-राजीव रंजन प्रसाद

Monday, June 09, 2014

राजनीति में सनसनी की दुर्गति और सोनी सोरी


- पिछले पेज से आगे - 


आम आदमी पार्टी ने सनसनी की राजनीति का प्रसार करते हुए बस्तर में विवादित तथा बहुचर्चित सोनी सोरी को प्रत्याशी बनाया था। लोकतंत्र केवल विधारधाराओं का पंचवर्षीय शक्तिपरीक्षण भर नहीं है यह जमीनी आन्दोलनों को भी अपनी लोकप्रियता परखने की परिपाटी प्रदान करता है। पिछले कुछ दशकों से लोकसभा चुनावों के दृष्टिगत बस्तर सीट में मुख्य मुकाबला यदि कॉग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच बना हुआ है तो तीसरी ताकत वर्ष 1984 के बाद से यहाँ भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी बन कर उभरी है। कतिपय चुनावों में यहाँ बहुजन समाज पार्टी और नेशनलिस्ट कॉग्रेस पार्टी का प्रदर्शन भी बहुत अच्छा देखा गया है। ऐसे में आम आदमी पार्टी का बस्तर के चुनाव में उतरना और यहाँ से सोनी सोरी को टिकट दिया जाना कई राजनैतिक पंडितों को बडे बडे दावे करने के लिये बाध्य कर रहा था। चूंकि इस प्रत्याशी पर नक्सलवादी मामलों में संलिप्तता होने के कारण अदालत में मामला लम्बित है अत: स्वाभाविक था कि आम आदमी पार्टी के कदम से देश भर में नक्सलवाद और उसकी प्रासंगिकता पर बहस छिडी। यदि पार्टी के एकमेव चेहरा अरविन्द केजरीवाल बस्तर में चुनाव प्रचार करने के लिये आये होते तो माना जा सकता था कि कथित पुलिस प्रताडना की शिकार महिला सोनी सोरी को संसद की आवाज बनाने के लिये पार्टी संजीदा है। प्रशांत भूषण बस्तर में प्रचार करने पहुचे किंतु इस वकील का जनाधार नहीं तो वह अपने प्रत्याशी की क्या मदद कर सकता था, परिणाम सामने है।     
  
चुनावी नतीजों का बस्तर के परिप्रेक्ष्य मे विश्लेषण कई कारणों से आवश्यक है। पहला यह कि कोई गलतफहमी न पाले कि बस्तर का मतदाता गंभीर मामलों के प्रति संजीदा नहीं है या यह न समझ बैठे कि सोनी सोरी से पहले क्षेत्रीय मुद्दों पर प्रत्याशी खडे नहीं किये गये और वे सफल नहीं हुए। बहरहाल बस्तर के चुनावी इतिहास से पहले बात उस पार्टी की जिसके दावों के गुब्बारे में जनता ने पिन मार दिया है। आन्दोलन की जमीन तो अन्ना के हटते ही खसक गयी थी लेकिन उसके शेष बचे प्रभाव की परिणति थी कि केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली में आम आदमी की सरकार बन सकी।   एक एक गाँव जितने बडे क्षेत्रफलों वाली विधानसभाओं वाले राज्य की सरकार जिनसे नहीं चल सकी उनकी महत्वाकांक्षाओं के हवाई किले दर्शनीय थे। “हम राजनीति को बदलने आये हैं” जैसे वाक्यांश का थोथापन आज उजागर हो चुका है किंतु इस दावे को बस्तर के परिप्रेक्ष्य में तौलता हूँ तो यह लगता है कि सोनी सोरी का इस्तेमाल हुआ है। यह जानकारी सार्वजनिक है कि पार्टी को सोनी सोरी के नाम पर बहुत अच्छा चन्दा मिला जिसमें विदेशों से भी लोगों ने मोटी मोटी धनराशि भेजी थी। इस राशि और उसके इस्तेमाल पर प्रश्नचिन्ह लगाना मेरे आलेख का उद्देश्य नहीं है अपितु जो महिला आन्दोलन की वैश्विक प्रतीक बना दी गयी हो उसका अपने ही निवास क्षेत्र में जनाधार क्यों नहीं पन सका, इसपर तो बात होनी ही चाहिये। 

इन चुनावों में बस्तर लोकसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने पचास प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त कर अब तक की सबसे बडी जीत हासिल की किंतु ऐसा नहीं कि अन्य पार्टियाँ एकदम हाशिये पर ही चली गयी हों। कॉग्रेस के दीपक कर्मा को चौंतीस प्रतिशत मत प्राप्त हुए जबकि भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी की बिमला सोरी को साढे चार प्रतिशत मत मिले। यद्यपि महेन्द्र कर्मा (1984 में मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के प्रत्याशी) तथा रामनाथ सर्फे ने कॉंग्रेस वर्चस्व के एक दौर (1984 – 1998 तक) में अपनी जबरदस्त उपस्थिति दर्ज करायी है तथापि तीसरे स्थान पर आज भी बस्तर में लाल चिनगारी की सुलगन देखी जा सकती है यदि राख को थोडा झाडा जाये। ऐसा क्यों हुआ कि बस्तर के आम मतदाता ने सोनी सोरी को वोट देने के स्थान पर उससे अधिक नोटा के बटन दबाये। बस्तर में कुल नोटा मत पडे 38772 अर्थात कुल प्राप्त मतों का पाँच प्रतिशत, जबकि आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी सोनी सोरी को केवल सोलह हजार नौ सौ तीन मत प्राप्त हुए अर्थात महज दो प्रतिशत। यदि आम आदमी पार्टी को प्राप्त मतो का विश्लेषण किया जाये तो ये मत किसी भी राजनीतिक दल के जनाधार में सेंध नहीं लगाते अपितु उससे भी कम हैं जितने कि बस्तर में अनेक निर्दलीय प्रत्याशी बिना प्रोपागेंडा के लड कर हासिल करते रहे हैं। 

अतीत के चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि डाली जा सकती है। लोकसभा चुनाव वर्ष-1952 में निर्दलीय प्रत्याशी मुचाकी कोसा कॉग्रेस को एक लाख से भी अधिक मतों से हरा कर विजयी हुए। वर्ष 1962 में पहले स्थान पर निर्दलीय प्रत्याशी लखमू भवानी (प्राप्त मत 87557) रहे तो दूसरा स्थान भी निर्दलीय लड रहे बोधा दादा (प्राप्त मत 61348 ) को मिला। 1971 के लोकसभा चुनाव में लम्बोदर बलिहार ने निर्दलीय लड कर जीत हासिल की जबकि निर्दलीय अनेक प्रत्याशी इस चुनाव में खडे हुए थे और एक दूसरे को बहुत अच्छी स्पर्धा दे रहे थे। 1977 का चुनाव एक बडे राष्ट्रीय आन्दोलन की भेंट चढा था और पूरे देश में जनता पार्टी की लहर देखी गयी थी। जनता पार्टी के तत्कालीन प्रभाव को वर्तमान की आम आदमी पार्टी के प्रादुर्भाव से जोड कर देखा जाता रहा है। इसका अनुमापन बस्तर के परिप्रेक्ष्य में करें तो भारतीय लोकदल के प्रत्याशी दृग्पाल शाह एक लाख से अधिक मत पा कर 1977 के चुनावों में विजयी हुए थे जबकि सोनी सोरी चुनाव में नाम मात्र की उपस्थिति भर दर्ज करा सकीं। महेन्द्र कर्मा 1996 का लोकसभा चुनाव निर्दलीय लडे थे और उन्हें 124322 मतों के साथ जबरदस्त जनसमर्थन प्राप्त हुआ था। महेन्द्र कर्मा की हत्या के पश्चात दंतेवाडा सीट पर भी जिस तरह देवती कर्मा के पक्ष में वोट पडे उससे भी इस आदिवासी नेता के जनाधार को खारिज नहीं किया जा सकता। तो क्या यह निष्कर्ष निकाला जाया कि सोनी सोरी भले ही बस्तर से हों, लेकिन वास्तव में वे जनाधार विहीन आम आदमी पार्टी के लेबल के साथ पैराशूट प्रत्याशी ही थीं। चुनावी इतिहास तो यही सिद्ध करता है अब चाहे दिल्ली-वर्धा-पुणे जो मर्जी आंकलन करे।

जो लोग नक्सलवाद पर पैनी दृष्टि रखते हैं वे स्वामी अग्निवेष की बस्तर में विशेष रुचि से अवश्य अवगत होंगे। अग्निवेश ने बाकायदा सोनी सोरी के पक्ष में चुनाव प्रचार किया और नक्सलियों से यह अपील भी की थी कि वे चुनाव जीतने में सोनी सोरी की मदद करें। नक्सलियों से मांगी गयी इस मदद के व्यापक मायने हैं, कोई गहरे इसे बूझने का यत्न तो करे। यद्यपि बीबीसी की हिन्दी बेबसाईट में इसी दौरान एक खबर छपी जिसमें बताया गया कि माओवादियों की दक्षिण रीज़नल कमेटी के सचिव गणेश उईके ने एक बयान जारी कर आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और सोनी सोरी के ख़िलाफ़ गंभीर आरोप लगाये तथा चुनाव बहिष्कार की अपील जारी की। बस्तर में चल रहा यह पूरा प्रकरण चुनाव में गहरी अभिरुचि बढा रहा था। 

यह चुनाव यह स्पष्ट करता है कि नक्सलवाद के नाम पर बाहर से होने वाली चीख चिल्लाहट का कोई जमीनी आधार बस्तर में मौजूद नहीं है। अगर आम आदमी पार्टी की खाल सोनी सोरी ने न भी ओढी होती तो भी इतने वोट उन्हें आसानी से मिल जाते अपितु अधिक सम्मान से उन्हे देखा जाता तथा संभव है तब चुनाव लडे जाने को संघर्ष की संज्ञा भी दी जा सकती थी। आम आदमी पार्टी अपने इस प्रत्याशी को ले कर कितनी संजीदा थी इस बात का प्रमाण यह है कि जहाँ अमेठी, वाराणासी, गाजियाबाद जैसी हारी हुई सीटों पर माथाफुटौव्वल आज भी जारी है वही बस्तर सीट की इस पराजय का कोई नामलेवा पिछले तीन दिनो से चल रही पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी कोई नहीं था। वस्तुत: मुझे सोनी सोरी और विनायक सेन एक ही तराजू में झूलते नजर आते थे। वे जब तक जेल में थे तब तक कथित आन्दोलन और हवाई जिन्दाबाद-मुर्दाबाद वादियों के प्रतीक थे जेल से बाहर आने के बाद सेन नदारद हैं और सोरी भी भुला दी जायेंगी, झंदाबरदार जल्दी ही कोई न कोई नया प्रतीक तलाश लेंगे। सनसनी की राजनीति की यह स्वाभाविक परिणति है। रही आम आदमी पार्टी की बात तो बस्तर के परिप्रेक्ष्य में ये मौकापरस्त किसी सहानुभूति के भी हकदार नहीं है। 

-राजीव रंजन प्रसाद
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