Sunday, August 31, 2008

मौत जब सनसनीखेज हो जाये


मेरे क्षेत्र में
भूख से कोई मर नहीं सकता
मीडिया के आरोपों से सांसद महोदय तैश में थे
मानो घर के आगे उन्होंने लंगर खोल रखा हो।
आंकडे "नेताईयत " की आत्मा हैं
मगर कम्बखत परमात्मा तो वही नंगा है
जो मर कर जी का जंजाल हो गया है...

नेता जी गुरगुराये, माईकों के बीच मुस्कुराये
पिछले साल सौ में से सैंतालीस मौतें मलेरिया से
तिरालिस डाईरिया से, चार कैंसर से, छ: निमोनिया से..
सरकारी आँकडों की गवाही है
कीटाणुओं तक के पेट भरे हैं
आदमी की क्या दुहाई है?
सरकारी योजनाओं में हर हाँथ कमाई है,
निकम्मे हैं, इसी लिये नंगाई है..
फसले झुलसती हैं, मुआवजा मिलता है
दुर्घटना, बीमारी या बेरोजगारी सबके हैं भत्ते
थुलथुल गालों के बीच मूँछें मुस्कुरायीं

सवाल मौन हो गये, गौण हो गये...

और दूर उस गाँव में जो मौत बबाल हो गयी थी
उसके तन की दुर्गंध फैलने लगी थी
उसके भैंस की खाल सी
काली, मोटी, सिकुडी चमडी
जैसे पानी की बूँद देखे, बीती हों सदियाँ..
जाँच करने वाले डाक्टर
नाक में रूमाल रख कर, विश्लेषण में मग्न थे
पुलिसिये लट्ठ लिये खाली बर्तन ठोक रहे थे
मौत जब सनसनीखेज हो जाये
कितनों की परेशानी बन जाती है..

अचानक कुछ आँखों में चमक सा
घर के एक कोने में, पत्ते के दोने में
आधा खाया हुआ प्याज, थोडा नमक था....।

मौत भूख से नहीं हुई है
पेट की बीमारी है
जाँच पूरी है, रिपोर्ट सरकारी है...

*** राजीव रंजन प्रसाद
30.04.2007

Wednesday, August 27, 2008

पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ...


मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..

एक कूँवे में दुनियाँ थी, दुनियाँ में मैं
गोल है, कितना गहरा पता था मुझे
हाय री बाल्टी, मैने डुबकी जो ली
फिर धरातल में उझला गया था मुझे
मेरी दुनिया लुटी, ये कहाँ आ गया
छुपता फिरता हूँ कैसी सजा पा गया
मेघ देखा तो राहत मिली है मुझे
जी मचलता है मैं अब बहूँ तब बहूँ..
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..

मेढकी मेरी जाँ, तू वहाँ, मैं यहाँ
तेरे चारों तरफ ईंट का वो समाँ
मैं मरा जा रहा, ये खुला आसमाँ
तैरने का मज़ा इस फुदक में कहाँ
राह दरिया मिली, जो बहा ले गयी
और सागर पटक कर परे हो गया
टरटराकर के मुख में भरे गालियाँ
सोचता हूँ, पिटूंगा नहीं तो बकूं ?
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..

एक ज्ञानी था जब पानी पानी था मैं
हर मछरिया के डर की कहानी था मैं
आज सोचा कि खुल के ज़रा साँस लूँ
बाज देखा तो की याद नानी था मैं
कींचडों में पडा मन से कितना लडा
हाय कूँवे में खुद अपना सानी था मैं
संग तेरे दिवारों की काई सनम
जी मचलता है मैं अब चखूँ तब चखूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..

थम गयी है हवा जम के बरसात हो
औ छिपें चील कोटर में जा जानेमन
शोर जब कुछ थमें साँप बिल में जमें
तुमको आवाज़ दूंगा मैं गा जानेमन
मेरे अंबर जो सर पर हो तब देखना
सोने दूंगा न जंगल को सब देखना
हाय मुश्किल में आवाज खुलती नहीं
भोर होगी तो मैं फिर से एक मौन हूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..

*** राजीव रंजन प्रसाद
12.04.2008

Tuesday, August 26, 2008

इतना सख्त भी नहीं पहाड


पहाडों के आगे

बैठा हुआ मैं सोचता हूँ

अगर तुम्हारा गम न रहा होता

तो आज

कितना बौना पाता मैं अपनें आप को


और अब देखता हूँ

इतना सख्त भी नहीं पहाड

जितना मेरा दिल हो गया है..


*** राजीव रंजन प्रसाद

Wednesday, August 20, 2008

गुनगुनाते हुए कुछ ही पल..



धूप भरी ज़िन्दगी में
निर्झर में पैर डाले
गुनगुनाते हुए कुछ ही पल
एसे नहीं हैं क्या
जैसे भूले हुए लम्हों में
बीती हुई बातों की चीरफाड
और छोटी छोटी बातों पर घंटों की उलझन
जैसे आपस में गुथे हुए हम...

फिर फिर याद आओगे आप हमें
स्मृतियों में महकेंगे ये पल
और डूब डूब जायेंगे हम
हल्के से मुस्कायेंगे
जैसे कि डूबी शाम में
दूर कहीं बज उठी "जगजीत" की गज़ल..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२७.११.१९९५

Tuesday, August 19, 2008

युगों तक खमोश दो बुत..



नारज़गी हद से बढी
और हो गयी पर्बत
आँखों से पिघल गया ग्लेशियर
जैसे मोम नदी हो जाता है
पत्थर की तरह पिघल पिघल कर..

पीठ से पीठ किये
युगों तक खमोश दो बुत
इस तरह बैठै रहे
तोड तोड कर चबाते हुए घास के तिनके
जैसे गरमी की दोपहर ढलती नहीं..

और जब नदी न रही
पिघल चुका पत्थर
बुत "मै" और "तुम" हो गये
बहुत सोच कर भी
याद न रहा, न रहा
कि मुह फुलाये ठहर गये कितने ही पल
...कारण क्या था?

*** राजीव रंजन प्रसाद
२३.११.१९९५

Sunday, August 17, 2008

जैसे कोई मर्तबान में, जल-चीनी का घोल बना दे..


जैसे इकलौता गुल खिल कर, काँटों को बेमोल बना दे
सीपी क्या है एक खोल है, मोती हो अनमोल बना दे..

तुम होते हो खो जाता हूं, फिर अपनी पहचान साथ है
जैसे कोई मर्तबान में, जल-चीनी का घोल बना दे..

मन के भीतर की आवाज़ें, आँखों से सुन लेता हूँ,
साथ हमारा एसा जो, खामोशी को भी बोल बना दे..

तुम को खो कर हालत मेरी, उस बच्चे के इम्तिहान सी
टीचर उसकी काँपी में, कुछ अंक नहीं दे गोल बना दे..

चार दीवारें, आँखों में छत, तनहाई "राजीव" रही
जैसे गम दुनिया निचोड कर इतना ही भूगोल बना दे..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१२.११.२०००

Friday, August 15, 2008

सठिया गया है देश चलो जश्न मनायें।



गाँधी की नये फ्रेम में तस्वीर सजायें,
सठिया गया है देश चलो जश्न मनायें।।

हमने भी गिरेबाँ के बटन खोल दिये हैं
थी शर्म, कबाड़ी ने रद्दी में खरीदी है
बीड़ी जला रहे हैं अपने जिगर से यारों
ये पूँछ खुदा ने जो सीधी ही नहीं दी है
हम अपनी जवानी में वो आग लगाते हैं
कुत्तों को, सियारों को जो राह दिखाते हैं

मौसम है उत्सव का, लेकर मशाल आओ
हम पर जो उठ रहे हैं, वो प्रश्न जलायें।
सठिया गया है देश, चलो जश्न मनायें।।

आज़ाद का मतलब, सड़कों पे पिघल जाओ
आज़ाद का मतलब है, बस - रेल जलाओ
आज़ाद का मतलब है, एक चक्रवात हो लो
आज़ाद का मतलब है पश्चिम की बात बोलो
सब रॉक-रोल हो कर चरसो-अफीम में गुम
हो कर कलर आये, फिर से सलीम में गुम

आज़ाद ख्याली हैं, दिल फेंक मवाली हैं
सपने न हमसे देखो, उम्मीद भाड़ जाये।
सठिया गया है देश, चलो जश्न मनायें।।

पूछा था जवानी ने, हमसे सवाल क्यों है
बुड्ढे जो तख्तो-ताज पे उनको तो घेरिये
बच्चे कल की आशा, उनकी बदलो भाषा
"मुट्ठी में क्या है पूछें", सर हाँथ फेरिये
टैटू भी गुदाना है, बालों को रंगाना है
कानों में नयी बाली, हम नहीं हैं खाली

मत बजाओ थाली, बच्चों बजाओ ताली
सुननी नहीं हो गाली तो राय न लायें।
सठिया गया है देश, चलो जश्न मनायें॥

ले कर कलम खड़ा था, मैं भूमि में गड़ा था
हँसने लगा वो पागल, जो पास ही खड़ा था
बोला कि अपने घर को, घर का चराग फूँके
वो आईने के अक्स पर, हर शख्स आज थूके
भटके हुए जहाज को आजाद नहीं कहते
लश्कर के ठिकानों को आबाद नहीं कहते

तुम अपनी कलम घिस्सो, दीपक ही जलाओ
वो गीत लिखो जिसको, बहरों को सुनायें
सठिया गया है देश चलो, जश्न मनायें॥

*** राजीव रंजन प्रसाद
9.08.2007

Wednesday, August 13, 2008

मेरे साये..


जैसे ही आईना देखा, चौंक गया,
मेरा चेहरा कहीं नहीं था, कहीं नहीं..
सिर धुनता दीवारों पर मैं चीख उठा
खंडहर पर बैठे चमगादड़ उड़ कर भागे
डर कर मकड़ी धागे पर कुछ और चढ़ी
आँखें मिच-मिच करते उल्लू अलसाये
खिल-खिल कर के हँसी गहनतम खामोशी
कितने फैल गये देखो मेरे साये..


*** राजीव रंजन प्रसाद

९.११.१९९५

Tuesday, August 12, 2008

धर्म और राजनीति..

अशांत थे भीष्म
मन के हिमखंडों से
पिघल-पिघल पड़े, गंगा से विचार..
कि कृष्ण! यदि आज तुम प्रहार कर देते
तो क्या इतिहास फिर भी तुम्हें ईश्वर कहता?
रथ का वह पहिया उठा कर, बेबस मानव से तुम
धर्म-अधर्म की व्याख्याओं से परे
यह क्या करने को आतुर थे?
स्तंभ नोचती बिल्ली के सदृश्य?

तुम जानते थे कि अर्जुन का वध मैं नहीं करूंगा
तुम्हारा गीताज्ञान आत्मसात करने के बावजूद..
तुम यह भी जानते थे कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर
ऐसी किसी भी प्रतिज्ञा से बाध्य नहीं था
तब मेरे अनन्यतम आराध्य
तुम्हारी अपनी ही व्याख्याओं पर प्रश्नचिन्ह क्यों?

मैं विजेता था उस क्षण
मेरे किसी वाण के उत्तर अर्जुन के तरकश में नहीं थे
तुम्हारा रथ और ध्वज भी मैनें क्षत-विक्षत किया था
और मेरा कोई भी वार धर्मसम्मत युद्ध की परिभाषाओं से परे नहीं था।
फिर किस लिए केशव तुमने मुझे महानता का वह क्षण दिया
जहाँ मैं तुमसे उँचा, तुम्हारे ही सम्मुख “करबद्ध” था?
मैंने तुम्हें बचाया है कृष्ण और व्यथित हूँ
धर्म अब मेरी समझ के परे है
अब सोचता हूँ कि दुर्योधन ने तुम्हें माँगा होता, न कि तुम्हारी सेना
तो क्या द्वेष के इस महायुद्ध का खलनायक युधिष्ठिर होता?

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:..
तब तुम ही आते हो न धर्म की पुनर्स्थापना के लिये?
तो क्या किसी भी कीमत पर विजय, धर्म है?
तुम क्या स्थापित करने चले हो यशोदा-नंदन
सोचो कि तुमने मुझे वह चक्र दे मारा होता
और मैने हर्षित हो वरण किया होता मृत्यु का
स्वेच्छा से..
तो भगवन, सिर्फ एक राजा कहलाते तुम
और इतिहास अर्जुन को दिये तुम्हारे उपदेशों पर से
रक्त से धब्बे नहीं धोता।
तुम्हारी इस धरती को आवश्यकता है कृष्ण
पुनर्निमाण को हमेशा भगवान चाहिये
और इसके लिये इनसान बलिदान चाहिये

अब तुमने जीवन की इच्छा हर ली है
शिखंडी का रहस्य फिर तुम्हारे मित्र को सर्वश्रेष्ठ कर देगा
मुझे मुक्ति, लम्बा सफर देगा
मन का यह बोझ सालता रहेगा फिर भी
कि धर्म और राजनीति क्या चेहरे हैं दो
चरित्र एक ही?

*** राजीव रंजन प्रसाद
22.04.2007

Sunday, August 10, 2008

सचमुच तरक्की भी क्या चीज है..


सभ्यता व्यंग्य से मुस्कुराती है
जंगल के आदिम जब "मांदर" की थाप पर
लय में थिरकते हैं
जूड़े में जंगल की बेला महकती है
हँसते हैं, गुच्छे में चिडिया चहकती है
देवी है, देवा है
पंडा है, ओझा है
रोग है, शोक है, मौत है..
भूख है, अकाल है, मौत है..
फिर भी यह उपवन है
हँसमुख है, जीवन है

करवट बदलता हूँ अपनी तलाशों में
होटल में, डिस्को में, बाजों में, ताशों में
बिजली के झटके से जल जाती लाशों में
भागा ही भागा हूँ
पीछा हूँ, आगा हूँ
जगमग चमकती जो
दुनिया महकती जो
उसके उस मौन को
मैं हूँ "क्या" "कौन्" को
उस पल तब जाना था
जबकि कुछ हाथों ने मस्जिद गिराई थी
राम अब तक घुटता है भीतर मेरे
फिर कुछ हाथों ने मंदिर जलाया था
रहीम के चेहरे में अब भी फफोले हैं

देखो तो आईना हँसता है मुझपर
सभ्यता के लेबल पर, मेरी तरक्की पर
हम्माम में ही आदमी का सच नज़र आता है
दंगा ऐसा ही गुसलखाना है मेरे दोस्त
अपनी कमीज पर पडे खून के छींटे संभाल कर रखना
कि दंगा तो होली है,
हर बार नयी कमीज क्यों कर खराब करनी?

तरक्की का दौर है, आदमी बढा है
देखो तो कैसा ये चेहरा गढा है
ऊपर तो आदम सा लगता है अब भी
मुखड़ा हटा तो कोई रक्तबीज है
नया दौर है, सचमुच तरक्की भी क्या चीज है

*** राजीव रंजन प्रसाद

२८.०१.२००७

Friday, August 08, 2008

बडा स्कूल.


स्कूल बहुत बडा है
डिजाईनर दीवारें हैं
हर कमरे में ए.सी है
एयरकंडीश्नर बसें आपके बच्चों को घर से उठायेंगी
यंग मिस्ट्रेस नयी टेकनीक से उन्हे पढायेंगी
सूरज की तेज गर्मी से दूर
नश्तर सी ठंडी हवाओं से दूर
मिट्टी की सोंधी खुश्बू से दूर
जमीन से उपर उठ चुके माहौल में बच्चे आपके
केवल आकाश का सपना बुनेंगे
नाम स्कूल का एसा है साहब
मोटी तनख्वाहें देने वाले
स्वतः ही आपके बच्चों को चुनेंगे
बच्चे गीली मिट्टी होते हैं
हम उन्हें कुन्दन बनाते हैं
आदमी नहीं रहने देते..

मोटी जेबें हों तो आईये एडमिशन जारी है
पैसे न भी हों तो आईये, अगर प्यारा है बच्चा आपको
और अपनी आधी कमाई फीस में होम कर
आधे पेट सोने का माद्दा है आपमें
जमाने की होड में चलने का सपना है
और बिक सकते हैं आप,तो आईये
बेच सकते हैं किडनी अपनी, मोस्ट वेलकम
जमीर बेच सकते हैं...सुस्वागतम|

कालाबाजारियों से ले कर मोटे व्यापारियों तक
नेताओं से ले कर बडे अधिकारियों तक
सबके बच्चे पढते हैं इस स्कूल में
और उनके बच्चे भी जो अपने खून निचोड कर
अपने बच्चों की कलम में स्याही भरते हैं..

हम कोई मिडिलक्लास पब्लिक स्कूल की तरह नहीं
कि बच्चों को बेंच पर खडा रखें
मुर्गा बनानें जैसे आऊट ऑफ फैशन पनिशमेंट
हमारे यहाँ नहीं होते..
हम बच्चों में एसे जज्बे, एसे बीज नहीं बोते
कि वो "देश्" "समाज" "इंसानियत" जैसे आऊट ऑफ सिलेबस थॉट्स रखे..

यह बडा स्कूल है साहब..
और आप पूछते हैं कि
ए से "एप्पल", "अ" से "अनार" से अलग
एसा क्या पढायेंगे कि मेरे बच्चे अगर कहीं बनेंगे,
तो यहीं बन पायेंगे?
सो सुनिये..हर बिजनेस की अपनी गारंटी है
हम सांचा तैयार रखते हैं
बच्चों को ढालते हैं
फ्यूचर के लिये तैयार निकालते हैं
हमारे प्राडक्ट एम.बी.ए करते हैं
डाक्टर ईन्जीनियर सब बन सकते हैं
कुछ न बने तो एम.एम.एस बनाते हैं..

हम बुनियाद रख रहे हैं
नस्ल बदल देंगे
जितनी मोटी फीस
वैसी ही अकल देंगे
कि आपके बच्चे राह न भटक पायें
पैसे से खेलें, पैसे को ओढें, पैसे बिछायें
आपका इंवेस्टमेंट वेस्ट न जानें दें
पैसा पहचानें, पैसा उगायें
सीट लिमिटेड है, डोनेशन लाईये
बच्चे का भविष्य बनाईये
होम कर दीजिये वर्तमान अपना
कि शक्ल से ही मिडिल क्लास लगते हैं आप..

और कल आप देखेंगे आपका लाडला
पहचाने न पहचाने आपको,
मिट्टी को, सूरज को, पंछी को, खुश्बू को
पहचाने न पहचाने देश, परिवेश
इतना तो जानेगा
कौन सा रिश्ता मुनाफे का है
हो सकता है आपसे पीठ कर ले
कि बरगद के पेड में फल कहाँ लगते हैं
घाटे की शिक्षा वह यहाँ नहीं पायेगा
यह बडा स्कूल है...

*** राजीव रंजन प्रसाद

१५.०१.२००७

Thursday, August 07, 2008

टुकडॆ अस्तित्व के..


मन का अपक्षय
आहिस्ता आहिस्ता
मुझको अनगिनत करता जाता है
नदी मेरे अस्तित्व से नाखुश है
और मुझे महज इतना ही अचरज है
इतना तप्त मैं
टूटता हूं पुनः पुनः
मोम नहीं होता लेकिन..

निर्निमेष आत्मविष्लेषण
एकाकी पन
एकाकी मन
और तम गहन..गहनतम
अपने ही आत्म में हाथ पाँव मारती आत्मा
दूरूह करती जाती है प्रश्न पर प्रश्न
और उत्तर तलाशता मन
क्या निचोड कर रख दे खुद को
फिर भी महज व्योम ही हासिल हो तब..

मन मुझे गीता सुनाता है
सांत्वना देता है कम्बख्त.."नैनम छिंदन्ति शस्त्राणि"
और जाने कौन अट्टहास करता है भीतर
और मन में हो चुके सैंकडो-सैंकडो छेद
पीडा से बिफर पडते हैं
दर्द और दर्द और वही सस्वर "नैनम दहति पावकः"
क्या जला है
क्या जल पायेगा?
और टुकडे टुकडे मेरे अस्तित्व के
अनुत्तरित बिखरते जाते हैं,बिखरते जाते हैं ,बिखरते जाते हैं..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.०६.१९९५

Wednesday, August 06, 2008

ज़ुल्फें..


बांध कर न रखा करो ज़ुल्फें अपनी

नदी पर का बाँध ढहता है

तबाही मचा देता है

एसा ही होता है

जब तुम

एकाएक झटकती हो खोल कर ज़ुल्फें..


*** राजीव रंजन प्रसाद

Tuesday, August 05, 2008

आ कर कहीं से तुम तभी...


आप तो जाते रहे

फिर नींद भी जाती रही

आसमां की चांदनी

हमको जलाती भी रही


वो एक ख्वाब जो आँखें खुले

देखा किये हम रात भर

जलती रही अपनी चिता

जैसे जला करते अभी

जब बुझ गये बस राख थे

आ कर कहीं से तुम तभी

ले चुटकियों में राख

माथे पर सजा ली

फिर जी गये हम


पलक झपकी

रात काली...


*** राजीव रंजन प्रसाद

६.११.२०००

Sunday, August 03, 2008

अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।


अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

तुमने मेरी गुडिया तोडी, मैनें बालू का घर तोडा
तुमने मेरा दामन छोडा, मैंने अपना दामन छोडा
तुम मुझसे क्यों रूठे जानम, मैं ही टूटा, मैनें तोडा
मुझको मुझसे ही शिकवा है, तुमसे मेरा क्या नाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

पत्ता खडके, कोयल बोले, निर्झर झरता या सावन हो
मोती टूटे, यह मन बिखरे, जैसे काँच काँच कंगन हो
विप्लव ही पर बादल बरसे, जैसे यह मेरा जीवन हो
यादों का सम्मोहन फिर फिर सोंधी मिट्टी महकाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

फर्क नहीं पडता इससे कि आँखें हैं या दिल रोता है
सागर कितना खारा देखो, ज़ार ज़ार साहिल रोता है
मैनें अपना कत्ल किया फिर देखा आखिर क्या होता है
सात आसमानों के उपर भी क्या दिलबर तडपाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

***राजीव रंजन प्रसाद
30.10.2000